तो कहाँ है वह संगच्छध्वम् ?

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कमर वहीद नकवी, वरिष्ठ पत्रकार :  

चौदह के पन्द्रह अगस्त और पन्द्रह के पन्द्रह अगस्त में क्या फर्क है? चौदह में ‘सहमति’ का शंखनाद था, पन्द्रह में टकराव की अड़! याद कीजिए चौदह में लाल किले से प्रधान मन्त्री नरेन्द्र मोदी का पहला भाषण। संगच्छध्वम्! मोदी देश को बता रहे थे कि हम बहुमत के बल पर नहीं बल्कि सहमति के मजबूत धरातल पर आगे बढ़ना चाहते हैं। उस साल एक दिन पहले ही नयी सरकार के पहले संसद सत्र का सफल समापन हुआ था। मोदी इसका यश सिर्फ सरकार को ही नहीं, पूरे विपक्ष दे रहे थे! संगच्छध्वम्!

सहमति और राजनीति

और अब एक साल बाद! दो दिन पहले ही संसद का मानसून सत्र बिना किसी कामकाज के बीत गया! लोग सहमति को ढूँढ़ते रहे, लेकिन वह कहीं मिली नहीं! सहमति को राजनीति खा गयी! मोदी अड़ गये तो अड़ गये! अड़ना जरूरी था! राजनीति का तकाजा था। और राजनीति में मोदी के रणवीर आखिर भारी पड़ गये और काँग्रेस पूरे विपक्ष में अन्तत: अलग-थलग पड़ गयी। एक तरह से संसद नहीं चलने का ठीकरा भी काँग्रेस के सिर फूटा। देश का कारपोरेट जगत विह्वल हो उठा कि आखिर काँग्रेस क्यों संसद नहीं चलने दे रही है? और मोदी के रणवीर इसमें भी सफल रहे कि वह सवाल ही बहस से गायब हो गया, जिस पर संसद ठप्प रही! क्या सुषमा स्वराज और वसुन्धरा राजे ने कुछ भी गलत नहीं किया था? यूपीए-2 में अश्विनी कुमार और पवन बंसल पर लगे आरोपों के मुकाबले क्या सुषमा और वसुन्धरा पर लगे आरोप ज्यादा गम्भीर नहीं थे? पवन बंसल पर तो सीधे कोई आरोप मिला भी नहीं, जबकि सुषमा और वसुन्धरा के मामले में सब सामने हैं। कुछ साबित होना बाकी नहीं है। अब यह अलग बात है कि सुषमा और वसुन्धरा के मामले में आप सही और गलत के पैमाने अपनी सुविधा से बदल दें।

क्या मिला अध्यादेशों से?

लेकिन मोदी सरकार ने तय कर लिया कि सुषमा और वसुन्धरा का इस्तीफा नहीं होना है तो नहीं होना है। बात खत्म! संसद चले, न चले! और यही एक मामला क्यों? सहमति और कहाँ बनी या बनाने की कोशिश की गयी? भूमि अधिग्रहण कानून पर मोदी सरकार अड़ी रही तो अड़ी रही! शिव सेना और अकाली दल जैसे उसके सहयोगी भी उसका विरोध करते रहे तो करते रहे। तीन बार अध्यादेश जारी हो गया, लेकिन पूरे एक साल में अध्यादेश के तहत एक इंच जमीन भी अधिग्रहीत नहीं की गयी! और जब संसद की संयुक्त समिति की बैठकों में साबित हो गया कि मोदी सरकार जो संशोधन सुझा रही है, उनके पक्ष में इक्का-दुक्का समर्थन के अलावा और कोई है ही नहीं, तब जा कर सरकार झुकी। एक साल बर्बाद हो गया तो हो गया!

गजेन्द्र चौहान पर क्यों अड़े?

पुणे फिल्म संस्थान का मामला ले लीजिए। गजेन्द्र चौहान को उसका अध्यक्ष बनाये जाने का चौतरफा विरोध हुआ। फिल्म जगत की जानी-मानी हस्तियों से लेकर देश के सारे अखबारों, पत्रिकाओं, टीवी चैनलों तक में से शायद ही किसी को गजेन्द्र चौहान की नियुक्ति सही लगी हो, लेकिन मोदी सरकार को जाने उनमें कैसी विशिष्ट योग्यता नजर आती है कि सरकार टस से मस नहीं होना चाहती है। फिल्म संस्थान चले, न चले, उसकी बला से।

कहानी तीस्ता और केजरीवाल की

तीस्ता सीतलवाड का मामला लीजिए। देश में अब तक हुए तमाम बड़े दंगों में असर और पहुँच वाले अपराधी कभी पकड़ में नहीं आते। गुजरात के दंगों में पहली बार अगर ऐसे कुछ लोगों तक कानून का हाथ पहुँच सका तो उसका श्रेय केवल तीस्ता और उनके पति जावेद आनन्द की अथक लड़ाई को जाता है। इसके बदले में पहले गुजरात पुलिस और फिर सीबीआई के जरिये तीस्ता को पकड़ कर अन्दर करने की बड़ी कोशिशें की गयी। कहा गया कि वह राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा है। इसके चौतरफा विरोध पर भी सरकार बहरी बनी बैठी रही। आखिर मुम्बई हाइकोर्ट ने जब सीबीआई को फटकार लगायी, तब जा कर सरकार के होश ठिकाने आये। हाइकोर्ट ने साफ-साफ कहा कि तीस्ता के खिलाफ ऐसा कोई आरोप नहीं है कि उसे गिरफ्तार करके पूछताछ की जाये। और सहमति का एक और नमूना हम आये दिन दिल्ली में देखते हैं कि दिल्ली पुलिस किस बेशर्मी से आम आदमी पार्टी के पीछे पड़ी हुई है! नजीब जंग और केजरीवाल सरकार में चल रही जंग को कानूनी तरह से निबटने दीजिए या फिर बैठ कर साफ-साफ बात कीजिए और सहमति का रास्ता निकालिए। राजनीतिक गतिरोध अपनी जगह है, लेकिन उसमें दिल्ली पुलिस क्यों पार्टी बने?

जजों की अटकी नियुक्तियाँ

राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (एनजीएसी) पर सरकार और न्यायपालिका में सहमति नहीं बन पायी। मामला फिलहाल सुप्रीम कोर्ट में है। और इस बीच खबर आयी है कि देश के 24 हाईकोर्टों में करीब सवा सौ जजों की नियुक्तियाँ अटकी हुई हैं, जिनके नामों की सिफारिश कालेजियम सिस्टम के तहत की गयी है। अब जब तक सुप्रीम कोर्ट में यह मामला नहीं सुलझता, हाईकोर्टों में काम रुका रहेगा। 

तो कहाँ है वह ‘संगच्छध्वम्’, जिसका एलान नरेन्द्र मोदी ने पन्द्रह अगस्त के अपने पिछले भाषण में किया था? ‘संगच्छध्वम् संवदध्वम् सं वो मनांसि जानताम्’—हम साथ चलें, मिल कर चलें, मिल कर सोचें, यह बात तो वाकई बहुत सुन्दर है मोदी जी! लेकिन सहमति का मतलब क्या है? जो आप कहें, बस वही सही, या फिर सहमति में दूसरों की बात सुनना और समझना शामिल नहीं है? 

(देश मंथन, 17 अगस्त 2015)

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