भगवान बचाये, भगवान से

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आलोक पुराणिक, व्यंग्यकार :

पुरुषों के श्रृंगार प्रसाधन-इस विषय पर सेमिनार था। 

इटेलियन, फ्रेंच फैशन एक्सपर्ट बोले जा रहे थे। पुरुषों के लिए हमारे देश में ये है, पुरुषों के लिए वो है। पुरुषों की नेल-पालिश अलग है। पुरुषों के परफ्यूम अलग हैं। पुरुषों की लिपस्टिक भी हमारे मुल्क में अलग है।

कई इंडियन पुरुष सेमिनार के लेक्चर शर्मसार होकर सुन रहे थे। एक ने दबी जुबान कहा भी-पुरुषों के लिए और खास तौर पर शादी-शुदा पुरुषों के लिए आम तौर पर इंडिया में सब्जी के भाव हैं, दूध के भाव हैं। जो भाव पता ना हों, उनका पता शादी के बाद चल जाता है। शादी से पहले 170 रुपये का डिओ नौजवान दस दिन में उड़ा देता है। शादी के बाद सोचता है कि हाय इतने में तो दो एक दिन का दूध आ जायेगा। डिओ से दूध तक पतन हो लेता है, इंडिया में। हाय हम कितने पतित, ऐसा कई इंडियन पुरुष सेमिनार में सोच रहे थे।

इतना पतन मुझसे देखा ना गया, मैंने खड़े होकर ललकारा, अबे फ्रेंच, अबे इटैलियन ये तेरी सारी पुरुष लिपस्टिक, पुरुष डियो दो सौ-तीन सौ सालों से ज्यादा के नहीं हैं। हमारे यहाँ ठाकुरजी का श्रृंगार कई शताब्दियों से हो रहा है। कान खोलकर सुन ले, राधाजी का नहीं ठाकुरजी का श्रृंगार, मथुरा वृंदावन में जाकर किसी से भी पूछ ले-ठाकुरजी कई शताब्दियों से हो रहा है। हम बहुत आगे हैं पुरुष प्रसाधन में।

फ्रेंच-इटेलियन चुप हो गये।

चुप तो मैं भी हो गया बाद में, इंडियन तो कई मामलों में लुटे ही श्रृंगार के चक्कर में और खाने के चक्कर में। ठाकुरजी के छप्पनभोग, दबादब खाओ पंडा लोग। रसगुल्ला, चन्द्रकला, रबड़ी, दही, भात, दाल, चटनी, कढ़ी, साग-कढ़ी, मठरी, बड़ा, पूरी, मुरब्बा, शक्करपारा, घेवर, चीला, मालपुआ, जलेबी, पापड़, मोहनथाल, गेहूँ दलिया, लड़्ड़ू, खीर, घी, मक्खन, मलाई, शहद, मोहनभोग, अचार, फल, लस्सी, मठ्ठा, पान, सुपारी, इलायची-छप्पन की सूची ये पूरी ना है। इतना किसी गृहस्थन को हफ्ते में एक दिन भी बनाना पड़ जाये, तो पक्के तौर भगवान विरोधी होकर नास्तिक भी हो सकती है।

इतने खाऊपने पर किसी गृहस्थ को महीने में एक दिन भी खर्च करना पड़ जाये, तो बेहोश हो सकता है। आटे के भाव सुनकर पसीना आता है, छप्पन भोग के आइटम खरीद कर तो हार्ट फेल हो जायेगा। छप्पन भोग अब दर्शनीय आइटम ही हैं, आम पब्लिक के लिए, खाते तो उन्हे पंडे ही हैं। और जी पंडों ने किस दौर में नहीं खाया।

क्षमा करें और चाहें तो ना भी करें, श्रृंगार और भोजन, और इत्ता भोजन, ये ही अगर भगवानीय गुण मान लिये जायें, तो भगवान ही बचाये उस भगवान से। श्रृंगार से फुरसत मिले, तो भोजन, भोजन से फुरसत मिले, तो श्रृंगार, इसी में बिजी रहे, इधर वाले। श्रृंगार और भोजन में इतना टाइम ना खर्च करने वाले इंडिया से माल पार करते रहे। छप्पन भोग इधर रह गया, इंडिया के तख्तेताऊस, कोहेनूर उधर विदेशी म्यूजियमों में पहुँच गये। ब्रिटिश भोजन दुनिया में रसहीन भोजनों की मेरिट लिस्ट में बहुत ऊपर गिना जाता है,पर ब्रिटिश कौम ने पूरी दुनिया को लगभग जीत ही लिया था। खाने में टाइम ज्यादा ना लगाया जाये, तो दुनिया जीती जा सकती है, यह ब्रिटिश कौम बता चुकी है।

इंडिया में मन्दिर-राजा जाने कितनी बार लुटते रहे और भगवान के बंदे छप्पन भोग खेंचते रह गये। अरे लूटपाट से बचने के लिए तलवार उठानी चाहिए थी। कुछ वीरता दिखानी चाहिए थी। यह मसले शर्म के हैं।

एक पंडे से जब ये बात मैंने कही, तो उसने मुझे राष्ट्रविरोधी घोषित कर दिया। मैंने कहा तब तो तुलसीदासजी भी राष्ट्र विरोधी ही माने जायें, उन्होंने अपने वक्त में कहा था- तुलसी मस्तक तब नबौं, जब धनुष-बाण लो हाथ। किसी भी समझदार बंदे की तरह तुलसीदासजी भी परेशान हो गये होंगे, भगवान के खाऊ और श्रंगारी स्वरूप से तब निवेदन किया होगा प्रभू से कि धनुष-बाण वाले स्वरूप में आइये, अन्याय को मिटाइये। तब ही सिर झुकाऊँगा। खाना-श्रृंगार बहुत हुआ।

(देश मंथन, 07 सितंबर 2015) 

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