‘क्रिकेट दबंग’ फारुख की गुंडई !!

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पद्मपति शर्मा, वरिष्ठ खेल पत्रकार :

नब्बे के दशक की शुरुआत में कश्मीरी पंडितों को घाटी से खदेड़ने के लिए कथित रूप से जिम्मेदार जम्मू एवं कश्मीर के तत्कालीन मुख्य मन्त्री और वंशवादी राजनीति के देश में चुनिंदा पहरुओं में एक फारुख अब्दुल्ला को लगता है कि अच्छे दिन बीत गये और आजादी बाद से ही राज्य को लूटने वाले इस शख्स ने राज्य की क्रिकेट का भी कम बेड़ा गर्क नहीं किया। 

चार दशकों से भी ज्यादा समय से जेके क्रिकेट संघ पर कुडली मार कर जमे फारुख सहित उनके चेले चपाटों के खिलाफ हाईकोर्ट ने दो खिलाड़ियों की याचिका स्वीकार करते हुए सीबीआई जांच के आदेश दे दिए। आरोप है कि अब्दुल्ला साहब की सरपरस्ती में बीसीसीआई की ओर से क्रिकेट उन्नयन हेतु भेजे गये 113 करोड़ रुपये हजम कर लिए जाने का आरोप है। 

मामला 2012 का है। अब्दुल्ला साहब तब जेके क्रिकेट संघ के मुखिया थे। यह सर्वविदित है कि घाटी मे शेख अब्दुल्ला परिवार ने जहाँ आधी सदी से भी ज्यादा समय तक एक छत्र राज्य किया है, वहीं दिल्ली में नेहरू वंश ने देश का कम कबाड़ा नहीं किया और मजे की बात यह कि दोनों राज परिवारों में रिश्तों के लिहाज से चोली दामन का साथ रहा है। न जाने क्यों लगता है कि भारतीय खेलों को ऐसे दबंग परिवारों के चंगुल से निकालना लगभग नामुमकिन है। इनकी जड़ें इतनी गहरी हैं कि इन्हे हिलाने के लिए असाधारण इच्छा शक्ति की जरूरत होगी जो फिलहाल नजर नहीं आ रही है। क्योंकि ये घराने कोई आज के नहीं हैं। जरा सोचिए कि आज से 35 बरस पहले भी इन्ही फारुख साहब का राज्य की क्रिकेट में सिक्का चलता था। कैसे? इसका एक छोटा सा नमूना पाठकों को बताना चाहता हूँ जो दर्शाएगा कि रुतबा, प्रताप और प्रभामंडल किसे कहते हैं।

1980 में किम ह्यूज की कप्तानी में आस्ट्रेलियाई टीम भारत दौरे पर आयी थी। उसका तीन दिवसीय मैच नार्थ जोन के खिलाफ श्रीनगर में रखा गया था। दिल्ली से पत्रकारों की टीम मैच कवर करने जब श्रीनगर पहुँची तब उसकी तबियत खुश कर देने वाली शाही मेहमान नवाजी की गयी। आलीशान होटल में ठहराया गया। ‘खाने पीने’ का भी चकाचक इंतजाम। 

खैर, पत्रकार जब स्टेडियम पहुँचे तो यह देख कर दंग रह गये कि ऊबड़-खाबड़ मैदान और वैसी ही पिच है। कोई तैयारी नहीं दिखी। सभी ने रिपोर्ट में मैदान और विकेट की ऐसी तैसी करते हुए लिखा कि परिस्थितियाँ मैच लायक नहीं हैं और खिलाड़ियों के घायल होने की पूरी आशंका है।

अगले दिन देश में यही समाचार खेल पन्नों की सुर्खियाँ बना रहा। मैच के पहले दिन कवरेज के लिए पत्रकार जब मैदान पहुँचे तो प्रेस बाक्स एक दम उजाड़ खंड था। लंच की तो बात ही दीगर, किसी ने पानी तक के लिए भी नहीं पूछा। परन्तु असली सीन तो अभी बाकी था। अपनी रिपोर्ट टेलेक्स के माध्यम से फाइल करने के बाद पत्रकार होटल पहुँचे शाम को तो यह देख कर सकते में आ गये कि उनका सारा सामान होटल के बाहर पड़ा है और तीन टैक्सियाँ उनको ले जाने किए वहाँ तैयार खड़ी थीं। वैन में बैठे हुए थे फारुख साहब। एक पत्रकार को इशारे से बुलाया और सर्द स्वर में कहा, ‘ चार घंटे के भीतर राज्य की सीमा से बाहर निकल जाना नहीं तो जो अंजाम होगा वह तुम लोगों ने सोचा भी नहीं होगा। 

पत्रकारों की हालात खराब। अब क्या होगा? एक वरिष्ठ पत्रकार शेख अब्दुल्ला के इस पुत्र के पास गया, मिन्नतें कीं। काफी मान-मनौवल के बाद जनाब का गुस्सा शान्त हुआ और इसके बाद सभी ने बिना किसी चूँ-चपड़ के खामोशी के साथ राम राम करके कवरेज की और मैच समाप्त होते ही शाम को सभी निकल लिए दिल्ली की ओर। यह वही मुकाबला था, जिसमें अरुण लाल ने रफ्तार के सौदागर राडनी हाग की आग उगलती गेंदों और खतरनाक उछाल लेती पिच पर 99 रनों की महान पारी खेलते हुए भारतीय टीम का टिकट पाया था।

खास बात यह कि उस घटना पर किसी ने एक लाइन भी नहीं लिखी थी। टाइम्स आफ इंडिया के तत्कालीन खेल संपादक आर श्रीमान ने मुझे पूरा प्रकरण सुनाया था। श्रीमान ने तो दुनिया छोड़ दी पर उनके साथी इंडियन एक्सप्रेस के पूर्व स्पोट्स एडिटर किशन बाधवानी जीवित हैं और उनसे इसकी पुष्टि की जा सकती है। मुझे नहीं पता कि जाँच का क्या हश्र होगा। छह महीने के भीतर सीबीआई को रिपोर्ट सौंपनी है। मगर इतना तो फारुख अब्दुल्ला के लिए कहा ही जा सकता है, ” बहुत कठिन है डगर पनघट की”।

(देश मंथन, 07 सितंबर 2015)

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