कमर वहीद नकवी , वरिष्ठ पत्रकार
देश में बहुत कुछ हो रहा है। मोदी सरकार के एक साल पूरे होने वाले हैं। बड़ी तीखी बहस हो रही है इस पर।
सरकार ने एक साल में क्या किया? राहुल गाँधी नये जोश में दिख रहे हैं। वह खुद तो नहीं, लेकिन उनका दफ्तर ट्विटर पर आ चुका है! लोग पूछ रहे हैं कि राहुल तो काफी बदले हुए दिख रहे हैं, लेकिन वह काँग्रेस की किस्मत कितनी बदल पायेंगे? केजरीवाल अपने पुराने मीडिया सिन्ड्रोम में लौट आये हैं। और मीडिया? वह केजरीवाल ही नहीं, सबकी गालियाँ खा रहा है, खासकर, टीवी चैनल वाले! गजेन्द्र सिंह की आत्महत्या, फिर कुमार विश्वास, फिर नेपाल और फिर सलमान खान, टीवी वालों के लिए ‘खबरें’ आती रहीं, और टीवी वालों को लताड़ पड़ती रही कि खबर नहीं, वह सिर्फ ड्रामेबाजी करते हैं! लेकिन न टीवी वाले बदले, न लोगों ने अपने चैनल बदले!
किसे इन्साफ मिला?
बड़े सवाल हैं। और इनमें से बहुत-से सवाल सही हैं। लेकिन इन सवालों से ज्यादा बड़े कुछ और सवाल है। जैसे कौन सोचे? कौन सुने? कौन माने? कौन मनवाये? और ड्रामा कहाँ नहीं है। पूरा देश ही ‘ड्रमेटिक्स’ पर चल रहा है। अब सलमान का ही मामला ले लीजिए। सारे शोर-शराबे में यह बात उठ कर भी गुम हो गयी कि सलमान को जो सजा मिली, वह तो मिली, लेकिन उन बेचारों को क्या मिला, जिनकी जिन्दगी इस हादसे में तबाह हो गयी? एक सड़क दुर्घटना के मामले में फैसला आने में तेरह साल क्यों लग गये और इस तेरह साल बाद हुए इन्साफ के बाद क्या सचमुच उन गरीब परिवारों को इस इन्साफ से कुछ मिला?
सलमान से सहानुभूति और कानून पर चुप्पी!
और इससे भी बड़ी बात यह कि इतने बड़े मामले के बाद भी क्या देश में कहीं यह बहस उठी कि मोटर व्हिकिल कानून में ऐसे कड़े बदलाव हों कि लोगों को शराब पी कर या लापरवाही से गाड़ी चलाने में सचमुच डर लगे! लेकिन इसे कौन सोचे? पुरू राजकुमार, अलिस्टेयर परीरा, सन्जीव नन्दा से लेकर सलमान खान तक ऐसे सैकड़ों मामले हैं, जिनमें सैकड़ों गरीब मारे गये। लेकिन किसी को कानून का डर है क्या? क्यों डर हो, जब सजा मुश्किल से सिर्फ पाँच प्रतिशत मामलों में ही हो पाती है! और इससे भी बड़ी विडम्बना क्या होगी कि जो सरकार अपनी पिछली सरकार के ‘निकम्मेपन’ की मार्केटिंग पूरी दुनिया में करते नहीं थक रही है, वह अपने एक वरिष्ठ मंत्री की सड़क हादसे में मौत के एक साल बाद भी मोटर व्हिकिल कानून में बदलाव के लिए कुछ भी नहीं कर सकी! तो सलमान के मामले पर तमाशा खूब हुआ, फिल्म इंडस्ट्री से लेकर राज ठाकरे तक को सलमान से सहानुभूति हो गयी, उनकी जमानत के कानूनी दाँव-पेंच पर खूब चर्चा हुई, लेकिन इस पर कोई चिन्ता नहीं दिखी कि कानून कड़ा किया जाना चाहिए, फैसले जल्दी होने का इन्तजाम हो और ऐसा कुछ किया जाये कि लोग कानून की परवाह करें।
लेकिन ऐसा कौन करेगा? अगर ऐसा हो गया तो कानून सबको नापने लगेगा? अब अभी मध्य प्रदेश में व्यापम घोटाले की चर्चा है। अभी इस घोटाले से जुड़े आठवें व्यक्ति की मौत की खबर आयी है। ये सभी मौतें रहस्यमय हैं। आपको याद होगा कि कुछ बरस पहले उत्तर प्रदेश में एनआरएचएम घोटाले के सामने आने पर एक के बाद कितनी रहस्यमय मौतें हुई थीं। क्या यह महज संयोग है? और केवल यही क्यों, जितने भी बड़े मामले हैं, उनमें से किसी एक मामले में भी लीपापोती न हो, ईमानदारी से जाँच हो जाये, यह शायद अब तक की सबसे बड़ी खबर होगी!
नेपाल में ‘ड्रमेटिक्स’ की ‘ट्रेजेडी!’
तो जाँच कहाँ होती है, जाँच का ड्रामा होता है! और अब तो राजनीति भी ‘ड्रमेटिक्स’ पर चल रही है! मुद्दे कहाँ है? मुद्दे लम्बे चलते हैं, ‘ड्रमेटिक्स’ लम्बी चल ही नहीं सकती। लोग बोर हो जाते हैं। कल वह दिखाया था, आज कुछ दूसरा दिखाओ! नरेन्द्र मोदी पिछला चुनाव बड़े धमाके से जीते। सरकार की शुरुआत भी बड़े धमाके से हुई। पूरे साल देश ने मोदी की धमाकेदार विदेश यात्राएँ देखीं। लगा जैसे कि वह विदेश में भी कोई चुनाव लड़ रहे हैं! दुनिया भर में उनकी धूम मची। लोग कह रहे हैं कि सरकार की विदेश नीति धमाकेदार रही, उसे सफलता भी धमाकेदार मिली! लेकिन नेपाल में बैठ गयी। मीडिया ने भूकम्प में मोदी का ऐसा पीआर किया या उससे कराया गया कि मोदी की पिछली नेपाल यात्रा ने जो जमीन तैयार की थी, वह पैर के नीचे से निकल गयी। ‘ड्रमेटिक्स’ में कभी-कभी ट्रेजेडी भी होती है!
मीडिया की कवरेज से नेपाल में लोग नाराज हुए। हालाँकि यह भी सही है कि भारतीय मीडिया की वजह से ही नेपाल के भयावह भूकम्प की तस्वीर दुनिया के सामने आयी और फिर सारी दुनिया से राहत टीमें वहाँ पहुँचनी शुरू हो गयीं। लेकिन इसके बावजूद यह सच है कि मीडिया कवरेज कहीं-कहीं बहुत अखरनेवाली थी। और नेपाल ही नहीं, बहुत-से मामलों में मीडिया कवरेज से अकसर लोगों को शिकायत रहती है। और ये शिकायतें अकसर बहुत गलत भी नहीं होती! मीडिया के अन्दर बैठे लोग भी यह जानते हैं और मानते हैं! फिर क्यों नहीं सुधरता मीडिया? कैसे सुधरे? और कौन पहले सुधरे? कौन शुरुआत करे? कोई तंत्र नहीं है जो यह काम करे! फिर यह भी पूछना चाहिए कि मीडिया कम्पनियाँ अपने पत्रकारों के प्रशिक्षण के लिए क्यों एक धेला भी खर्च नहीं करतीं? बुनियादी सवाल हैं, जिन पर कभी बात नहीं होती!
कहाँ गया ‘स्वच्छ भारत?’
बुनियादी सवालों पर मोदी सरकार भी जरूर कुछ न कुछ कर रही होगी, लेकिन सरकार को भी मालूम है और सबको मालूम है कि बुनियादी मामलों में ‘अच्छे दिन’ आने में बड़ा समय लगता है। एक साल में कुछ हो नहीं सकता! फिर लोग क्यों सवाल कर रहे हैं कि ‘अच्छे दिन’ आ गये क्या और अगर नहीं आये तो कब तक आयेंगे? और शायद ऐसा पहली बार है कि किसी सरकार के एक साल होने पर देश में इतनी तीखी बहस छिड़ी हो कि सरकार ने कैसा काम किया? और सरकार इस कोशिश में लगी हो कि वह अपनी पहली सालगिरह पर कैसे अपने को ‘गरीब-समर्थक’ पैकेजिंग में पेश करे! और दिक्कत यह है कि ‘काँरपोरेट समर्थक’ छवि बन जाने के बावजूद काँरपोरेट जगत इस बात पर एकमत न हो कि उनके लिए हालात कुछ बदल पाये हैं या नहीं!
अच्छा, बड़ी बातें नहीं हुईं, तो कोई बात नहीं। छोटी बातों का क्या हुआ? ‘स्वच्छ भारत’ अभियान को अब कोई क्यों याद नहीं करता? बड़ा अच्छा अभियान था। ‘ड्रमेटिक्स’ के बजाय ईमानदारी से किया जाता तो देश में बहुत कुछ बदल सकता था। मोदी ने चुनाव के पहले दहाड़ कर कहा था कि 2015 तक संसद से अपराधी तत्वों का सफाया हो जायेगा। ऐसे किसी बिल की चर्चा आज तक नहीं सुनी! चन्दे को लेकर केजरीवाल पर बड़ा हमला बोला गया, लेकिन काले धन के खिलाफ सरकार जो कदम उठाने को सोच रही है, उसमें राजनीतिक दलों को मिलनेवाले चन्दों की कोई चर्चा क्यों नहीं है?
राहुल, केजरीवाल और ‘ड्रमेटिक्स!’
उधर, राहुल गाँधी हर दिन नये-नये मुद्दे उठा रहे हैं। आज यहाँ, तो कल वहाँ दिख रहे हैं। इससे तुरत-फुरत मीडिया कवरेज तो मिल जाती है, पार्टी में तालियाँ बज जाती हैं, लेकिन इसके आगे क्या? पार्टी के पास कार्यक्रम क्या है, दिशा क्या है, लक्ष्य क्या हैं, और टाइमलाइन क्या है, यह सब तय किये बिना पार्टी कैसे खड़ी हो पायेगी। काँग्रेस को पुनर्जीवित होने के लिए एक लम्बा और ठोस कार्यक्रम और गम्भीर नेतृत्व चाहिए, रोज-रोज की ‘ड्रमेटिक्स’ नहीं!
केजरीवाल को अपनी पिछली पारी में यह समझ में ही नहीं आया था कि उनकी कौन-कौन सी ‘ड्रमेटिक्स’ ने अचानक उनको जनता की आँखों से उतार दिया था। अपनी दूसरी पारी में फिर वह वही पुरानी गलतियाँ दोहरा रहे हैं। सच है, जो चली जाये, वह आदत ही क्या?
(देश मंथन, 09 मई 2015)