रवीश कुमार, वरिष्ठ टेलीविजन एंकर :
गौंडा से फोन आया था। वहाँ कोई जगह है जहाँ बड़ी संख्या में स्कूल कालेज है। जनाब की शिकायत थी कि आस पास प्रदूषण फैलाने वाले कारखानों की वजह से बच्चों को सांसों की तकलीफ होती है।
आप इसे दिखाइये। आपने सांसद से शिकायत की इन दिनों मैं ये सवाल कई लोगों से करता हूँ। जनाब निराश से हो गये। मैं कहने लगा कि एक बार अपने सांसद से संपर्क तो कीजिए। हजार दो हजार लोगों को लेकर जाइये। शांतिपूर्ण घेराव कीजिए क्या पता सांसद महोदय जिम्मेदारी से ऐसा कर दें। जनाब और निराश हो गये।
सवाल है कि हम कब अपने सांसदों का बेहतर इस्तमाल करेंगे या सब कुछ नरेंद्र मोदी या उनकी पार्टी पर छोड़ देंगे। शिकायतकर्ता बताने लगा कि कई बार सांसद के घर गये मगर यही जवाब मिला कि साहब नहीं हैं। मैंने पूछा कि वे साहब कब से हो गये। उनके नेता तो खुद को सेवक और चौकीदार कहते हैं। ये उस पार्टी के सांसद हैं जिन्हें फरीदाबाद में ले जाकर बड़े बड़े नेता यह उपदेश दे रहे थे कि लोक आचरण क्या होना चाहिए।
लोगों की सेवा कैसे जी जान से करनी है। जब वहाँ बैठे सौ सवा सौ लोग इन बातों की गंभीरता से नहीं समझते हैं तो आम जनता से हम कैसे उम्मीद करें कि वो भी नये तरीके से सांसदों के साथ व्यवहार करे। शिकायतकर्ता ने यह भी कहा कि जीतने के बाद से एक बार भी क्षेत्र नहीं आए हैं। बताया कि किसी बचे खुचे राजपरिवार के बेटे हैं। हो सकता है कि सांसद जी क्षेत्र में गये भी हों और शिकायतकर्ता को पता न चला हो लेकिन यह धारणा कि जीतने के बाद नहीं क्षेत्र में नहीं गये, राजनीतिक व्यवस्था के बारे में सोचने पर मजबूर करती है।
इस बारे में लगातार सोचा जाना चाहिए। उन प्रिय नेताओं के बारे में तो खासकर जिन्हें जीताने के लिए जनता पिछले दो साल से उत्साहित थी। अगर ये नेता पहले ही महीने में इतने उदासीन हो जायेंगे और काम नहीं करेंगे तो फिर किस पैमाने से प्रकाश जावड़ेकर जी अपने दफ्तर के लोगों की हाजिरी चेक करेंगे। उनकी पार्टी का सांसद क्षेत्र से गायब हो जाये, तो उसके लिए क्या दंड है। कोई कैजुअल लीव की व्यवस्था है। हम क्यों किसी को सांसद चुनते हैं। हमें क्यों डर लगता है सांसद के करीब जाने से। जब लोग एक पत्रकार का नंबर पता करने के लिए इतने दिनों तक मेहनत कर सकते हैं तो वही लोग जो कि किसी भी पार्टी से ज्यादा परेशान हैं, क्यों नहीं सांसद के घर दस बार चक्कर लगा सकते हैं।
इसी तरह यूपीएससी के हिन्दी माध्यम के परीक्षार्थी अपनी समस्या को लेकर दर दर भटक रहे हैं। उनके आंदोलन का कोई असर नहीं हुआ। वे इस मीडिया उस मीडिया का दौरा कर रहे हैं। पत्रकारों के फोन नंबर लेकर बात कर रहे हैं। मैंने इनमें से भी कई फोनकर्ताओं से पूछा कि आप किसी सांसद के पास गये थे। बीजेपी उत्साहित है। इसके उत्साह को आप जनदबाव से भी बनाये रखिए। आपका काम तो होगा ही एक नयी राजनीतिक संस्कृति बन जायेगी। उनका भी जवाब निराशाजनक रहा। इन लोगों ने कई सांसदों से मिलने का प्रयास तो किया, मुलाकात भी हुई मगर कुछ नहीं हुआ। कई जगहों पर नेता मिले ही नहीं।
अगर इनकी संख्या पाँच दस हजार है और पूरी सरकार और पार्टी सोशल मीडिया पर है, तो क्या वहाँ धावा नहीं बोला जा सकता है। सरकार ही क्यों विपक्ष के नेताओं की सोशल मीडिया पर घेराबंदी नहीं की जा सकती है। यह तकनीकी का जमाना है। क्यों नहीं हर सांसद अपनी एक साइट बनाये जिस पर कम से कम वो लोग जो इंटरनेट के इस्तमाल में सक्षम हैं, अपनी शिकायत दर्ज करा सकें।
इन शिकायतों का एक ट्रैकर हो जो बताये कि सांसद महोदय ने क्या क्या किया है और उन्हें सही सही क्या आश्वासन मिला है और जो काम सांसद से नहीं हो सकता या उनके बस की बात नहीं है, यह उस शिकायत के आगे साफ साफ लिख दिया जाना चाहिए कि यह गैरकानूनी है या मेरे अधिकार क्षेत्र से बाहर है। अगर ऐसा हो तो पार्टी या सांसद का क्या नुकसान हो जायेगा। वो तो इसी काम के लिए हैं।
ट्टीवटर पर अनाप शनाप लिखने और गालियाँ देने के लिए वक्त होता है लेकिन क्या गौंडा के निवासी और यूपीएसएसी के परीक्षार्थी नेताओं के हैंडल पर जाकर शिकायत दर्ज नहीं करा सकते। एक छात्र से जब कहा तो जवाब ये मिला कि एंटी मोदी हो जायेगा तो। मैंने कहा बात खिलाफ की नहीं है। बात है दबाव डालकर प्रतिनिधि को सूचित करने की। लोकतंत्र में यह बेहद बुनियादी काम है।
ऐसा करते हुए आप किसी के एंटी नहीं होते हैं। बालक कहने लगा कि कुछ ट्वीट हैंडल पर किया है पर जवाब नहीं आया। तो कोई बात नहीं। अगले दिन कर दो। ट्रेंड करा दो। सरकार में बैठे मंत्रियों के पास सही में वक्त कम होता है। इस तकनीक का लाभ उठाते हुए अगर हम उन्हें उनके काम में बिना बाधा पहुँचाये दे सूचन दें, तो क्या यह कम है। छात्र की बात सही है कि मीडिया को तो करना ही चाहिए मगर लोकतंत्र को तो हर दिन किसी न किसी रूप में ज़िंदा रहना चाहिए। वोट देना ही लोकतांत्रिक विवेक का चरम प्रदर्शन नहीं है।
आखिर क्या किया जाये कि हमारे सांसद और विधायक लोगों की बातें सुनें। क्या हम ऐसी कोई व्यवस्था नहीं बना सकते जहाँ किसी को अपने सांसद की खोज के लिए वास्कोडिगामा न बनना पड़े। वोट देने से पहले आप ऐसी व्यवस्थाओं के बारे में भी उम्मीदवार से पूछ लीजिए। मैं अब ऐसे शिकायतकर्ता को काहिल समझने लगा हूँ। मीडिया के अलावा सरकार या सांसद पर जनदबाव के स्थानीय और नवीन उपाय खोजने ही पड़ेंगे।
वर्ना ऐसी खबरें छप भी जायेंगी तो कुछ नहीं होगा। पाँच साल तक गुस्सा दबाकर एक बार में बिना सोचे समझे भड़ास निकालकर किसी को हरा देना और किसी को जीता देना ये आप जनता का फैसला है तो इसकी सजा कुछ भुगतिये भी और रोने से अच्छा है कि उसी चुने हुए सांसद के पास जाते रहिए। विधायक के पास जाते रहिए।
पैरवी के लिए तो लोग दस पाँच को पकड़ कर सांसद को घेर लेते हैं लेकिन इलाके का काम हो तो क्यों नहीं कर पाते, इस पर सोचना पड़ेगा। इस मसले पर दोबारा लिख रहा हूँ। अब से मेरा ज्यादातर फोन पर यही जवाब होगा। सांसद आपका है आप भी इसे अपनाइये। वो भाग रहा है तो खोजिये और आ रहा है तो उसकी तारीफ खुलकर कीजिए।
(देश मंथन, 03 जुलाई 2014)