सेकुलर घुट्टी क्यों पिला गये ओबामा?

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क़मर वहीद नक़वी : 

आधुनिक सेकुलरिज्म और लोकतंत्र एक दूसरे के पूरक विचार हैं। सारी दुनिया में लोगों को अब दो बातें समझ में आती जा रही हैं। एक यह कि आर्थिक विकास के लिए स्वस्थ लोकतंत्र बड़ा जरूरी है। एक शोध के मुताबिक लोकताँत्रिक शासन व्यवस्था अपनाने से देशों की जीडीपी में अमूमन एक प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हो गयी! और जो देश लोकतंत्र से विमुख हुए, वहाँ इसका असर उलटा हुआ और आर्थिक विकास की गति धीमी हो गयी।

दूसरी यह कि स्वस्थ लोकतंत्र के लिए मज़बूत सेकुलरिज़्म को ज़रूरी शर्त माना जाने लगा है। और सेकुलरिज़्म का मतलब केवल राज्य और धर्म के बीच दूरी नहीं, बल्कि यह अब एक आधुनिकतावादी विचार है, जो वैज्ञानिक सोच को बढ़ावा देना चाहता है और मनुष्य को धार्मिक, पुरातन और प्रतिगामी रूढ़ियों से भी मुक्त देखना चाहता है। आरएसएस या संघ के लिए सेकुलरिज्म के विरोध का यह भी एक बहुत बड़ा कारण है, जो वैज्ञानिक तरीकों से किये जाने वाले शोध को नकार कर किंवदन्तियों के आधार पर इतिहास से लेकर विज्ञान तक का निर्माण करना चाहता है!

ओबामा आये, क्या लाये? बस एक सेकुलर घुट्टी पिला कर चले गये। अब ये घुट्टी तो अकसर कड़वी होती है या बेस्वाद। सब मुँह का मजा बिगड़ जाता है! बताइए भला। आपको बुलाया। इतनी धूमधाम की, बाजा-गाजा किया, मन की बात भी कर ली, इतनी बार बराक-बराक कह कर इतनी दिलजोई भी की, फिर भी जाते-जाते घुट्टी पिला गये! सब मूड उखड़ गया! और कुछ तो हत्थे से ही उखड़ गये! आखिर ये ओबामा होता कौन है हमें उपदेश पिलाने वाला?

विज्ञापन को लेकर विवाद

अब यह सेकुलर नाम की चीज कुछ लोगों को हमेशा ही बेहूदा लगती है। न बोलना पड़े तो अच्छा। न सुनना पड़े तो अच्छा। और न देखना पड़े तो और भी अच्छा। खास कर आरएसएस का नजरिया इस पर बिलकुल अलग रहा है। इसलिए गणतंत्र दिवस के सरकारी विज्ञापन में संविधान की ‘बिना सेकुलर वाली’ पुरानी प्रस्तावना छप जाती है तो नीयत पर शक तो होता ही है। हालाँकि यह विवाद अब खत्म हो गया है क्योंकि सूचना और प्रसारण मंत्रालय ने सभी सरकारी विभागों को चिट्ठी लिख कर कह दिया है कि वह सब जगह संविधान की संशोधित प्रस्तावना ही लें, जिसमें ‘सेकुलर’ और ‘समाजवादी’ शब्द हैं। शुरू में सरकार ने यही सफाई दी थी कि उसकी मंशा तो सिर्फ संविधान की उस मूल प्रस्तावना को दिखाने की थी, जिसे आज के ही दिन हमने अपनाया था। और ‘सोशलिस्ट’ और ‘सेकुलर’ शब्द तो इसमें 1976 में जोड़े गये थे। इसलिए पुरानी प्रस्तावना दिखाने में कुछ भी गलत नहीं। और फिर यूपीए सरकार ने भी 2012 में यही तस्वीर इस्तेमाल की थी, तब तो कोई हल्ला नहीं मचा था! चलिए, हो सकता है कि सरकार सच ही बोल रही हो और उसकी नीयत बिलकुल साफ हो। या फिर जैसा कि कुछ लोग शक जाहिर कर रहे हैं, यह भी हो सकता है कि जानबूझकर ही मूल प्रस्तावना की वह तसवीर इसीलिए चुनी गयी हो, ताकि पता चल सके कि इस पर कैसी प्रतिक्रिया होती है? बहरहाल अब सच जो भी है, इस पर सिर्फ अटकलें ही लग सकती हैं।

संघ का सेकुलरिज्म यानी हिन्दुत्व

सवाल यह नहीं है कि सरकार की नीयत सही थी या नहीं! सवाल यह है कि इस मुद्दे पर सरकार की नीयत पर सवाल क्यों उठ रहे हैं? संविधान की मूल प्रस्तावना। इसी का चित्र इस साल गणतंत्र दिवस विज्ञापन के साथ छपा। 

दरअसल, सवाल इसीलिए उठ रहे हैं कि मोदी सरकार और बीजेपी आज चाहे कुछ भी कहे, लोगों के मन में यह सवाल बना ही हुआ है कि क्या बीजेपी सचमुच इस मुद्दे पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के विचार से अलग हो सकती है? आज नहीं तो कल, क्या वह संघ के एजेंडे को लागू नहीं करेगी? अब संघ का क्या विचार है? संघ का कहना है कि वह हिन्दुत्व के जिस विचार को लेकर चलता है, वह अत्यन्त उदार विचार है, सर्व-समावेशक है, सच्चे अर्थों में सेकुलर विचार है! संघ के लिए हिन्दुत्व ही सेकुलरिज्म है! वह सेकुलरिज्म को उस अर्थ में स्वीकार करता ही नहीं है, जिस अर्थ में संविधान में उसे लिया गया है। तो अब मामला समझ में आ ही गया होगा कि संघ के लिए हिन्दुत्व ही एकमात्र सेकुलर विचार है। इसलिए इस एक विज्ञापन पर इतना शक-शुबहा, शंका-आशंका होने लगे तो अचरज कैसा? और हिन्दुत्व के ‘आदर्श सेकुलर विचार’ का नमूना तो हम रोज ही देख रहे हैं। ‘लव जिहाद’ और ‘घर-वापसी’ के शिगूफों के तौर पर! कभी कहते हैं कि भारत में रहनेवाले सभी हिन्दू हैं, चाहे वह किसी भी धर्म (या पंथ) के मानने वाले हों। सभी हिन्दू हैं तो फिर ‘लव जिहाद’ और ‘घर-वापसी’ का गुल-गपाड़ा क्यों? मुसलमान और ईसाई अगर भारत में रहने के कारण हिन्दू हैं तो उन्हें फिर हवन-शुद्धीकरण करके ‘हिन्दू’ क्यों बना रहे हो भाई! शायद यही संघ का ‘सर्व-समावेशक’ तरीका है! और फिर जब इस ‘सर्व-समावेशक’ तरीके से सारे भारत की ‘घर-वापसी’ हो जायेगी, सबका ‘समावेश’ हो जायेगा तो सेकुलरिज्म का टंटा अपने आप ही खत्म हो जायेगा! है न दूर की कौड़ी! अब समझ में आया कि संघ का हिन्दुत्व किस प्रकार सच्चे अर्थों में ‘सेकुलर’ विचार है!

धार्मिक और पुरानी रूढ़ियों के विरुद्ध

सारी दिक्कत यहीं है। आधुनिक सेकुलरिज्म और लोकतंत्र आज एक दूसरे के पूरक विचार हैं। सारी दुनिया में लोगों को अब दो बातें समझ में आती जा रही हैं। एक यह कि आर्थिक विकास के लिए स्वस्थ लोकतंत्र बड़ा जरूरी है।  ताजा शोध के मुताबिक लोकताँत्रिक शासन व्यवस्था अपनाने से देशों की जीडीपी में अमूमन एक प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हो गयी! यह भी पाया गया कि मामूली लोकताँत्रिक सुधारों का भी अच्छा प्रभाव आर्थिक विकास पर पड़ा और जो देश लोकतंत्र से विमुख हुए, वहाँ इसका असर उलटा हुआ और आर्थिक विकास की गति धीमी हो गयी। और दूसरी यह कि स्वस्थ लोकतंत्र के लिए मजबूत सेकुलरिज्म को जरूरी शर्त माना जाने लगा है। और अब तो सेकुलरिज्म को भी नये सिरे से देखा जा रहा है। अब तक सेकुलरिज्म का मतलब था कि राज्य का अपना कोई धर्म न हो और राज्य की दृष्टि में सभी धर्म समान हों। लेकिन अब सेकुलरिज्म को आधुनिक विचारों को अपनाने और परम्परागत धार्मिक मूल्यों को छोड़ने के तौर पर भी कहीं-कहीं देखा जाने लगा है।

यानी सेकुलरिज्म का मतलब केवल राज्य और धर्म के बीच दूरी नहीं, केवल यही नहीं कि राज्य के नागरिकों को अपनी इच्छा से कोई धर्म मानने या न मानने की स्वतंत्रता है और राज्य किसी से धर्म के आधार पर कोई भेदभाव नहीं करेगा और न किसी को प्राथमिकता देगा, बल्कि अब सेकुलरिज्म एक आधुनिकतावादी विचार है, जो वैज्ञानिक सोच को बढ़ावा देना चाहता है और मनुष्य को धार्मिक, पुरातन और प्रतिगामी रूढ़ियों से भी मुक्त देखना चाहता है। आरएसएस के लिए सेकुलरिज़्म के विरोध का यह भी एक बहुत बड़ा कारण है, जो वैज्ञानिक तरीकों से किये जाने वाले शोध को नकार कर किंवदन्तियों के आधार पर इतिहास से लेकर विज्ञान तक का निर्माण करना चाहता है!

संघ क्यों चिढ़ता है सेकुलरिज़्म से?

इसलिए जिन लोगों को भ्रम हो कि सेकुलरिज्म का मतलब केवल हिन्दू-मुसलमान-ईसाई आदि तक ही सीमित है और जो लोग ‘छद्म-धर्मनिरपेक्षता’ के फर्जी फिकरे के झाँसे में आये बैठे हैं, उन्हें यह समझना चाहिए कि संघ का सेकुलरिज़्म विरोध केवल हिन्दू-मुसलमान-ईसाई तक सीमित नहीं है। वैसे संघ का यह आरोप बिलकुल सही है कि सभी तथाकथित सेकुलर पार्टियों ने वोट बैंक की राजनीति के कारण सेकुलरिज्म को लगातार फुटबाल बना कर खेला है और इसके नाम पर पर्सनल लॉ जैसे रूढ़िवादी कानूनों पर समझौता किया है। सच है। यह सेकुलरिज्म की मूल भावना के बिलकुल विरुद्ध है। और सेकुलरिज्म का तकाजा है कि देश में कामन सिविल कोड हो। क्योंकि नागरिक कानून आधुनिकतावादी होते हैं और पर्सनल लॉ जैसी चीजें पुरातनपंथी व्यवस्था के अवशेष हैं। लेकिन यहीं संघ परिवार का अन्तर्विरोध खुल कर सामने आता है। एक तरफ वह आधुनिकतावादी कामन सिविल कोड की वकालत करता है, दूसरी ओर इतिहास से लेकर शिक्षा और विज्ञान तक में वैदिक काल में लौटना चाहता है! खाप पंचायतें उसकी निगाह में सही काम कर रही हैं, उसके विचार से बच्चे अँगरेजी न पढ़ें क्योंकि उससे भारतीय संस्कृति नष्ट होती है, महिलाएँ पुराने जमाने के ‘भारतीय परिधान’ में रहें और चार से लेकर दस बच्चे पैदा करते हुए भोग्या बनी हुई जीवन गुजार दें! आधुनिक सेकुलरिज्म में ऐसे विचारों की कोई जगह नहीं है।

ओबामा आये, सेकुलरिज्म पढ़ा गये? क्यों? ओबामा को क्यों चिन्ता है कि भारत सेकुलर रहे? इसलिए कि आज की दुनिया में आर्थिक विकास का लोकतंत्र, सेकुलरिज्म, आधुनिक विचारों से सीधा और गहरा रिश्ता है। और ऐसा भारत, अमेरिका के लिए बड़ा अनुकूल है, बाजार के हिसाब से भी और विश्व राजनीति के हिसाब से भी।

(देश मंथन, 02 फरवरी 2015)

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