सरकार की (दोगली) आत्मा

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आलोक पुराणिक, व्यंग्यकार :

नितीश कुमार का चुनावी वादा था – बिहार में शराब बंद की जायेगी। 

चुनाव जीतने के बाद नितीश कुमार ने कहा शराब बंद होगी। फिर खबर आयी कि सिर्फ देशी शराब बंद होगी। फिर खबर आयी कि ना इंगलिश शराब भी बंद होगी। 

बिहार के शराबी कनफ्यूजन में हैं कि आखिर होना क्या। 

बिहार के अफसर भी कनफ्यूजन में हैं, शराब बंद करने का मतलब 5,500 करोड़ रुपये का नुकसान। शराबी अपना भले ही नुकसान कर ले, पर अर्थव्यवस्था को तो फायदा ही पहुँचाता है। 

सरकारों की आफत है शराब बैन करते हुए दिखना भी है और शराब से होनेवाली कमाई भी बनाये रखनी है।

दृश्य कुछ-कुछ यूँ हो जाता है- जैसे एक साथ एक्सीलेटर और ब्रेक पर पैर रखा जा रहा हो।

दिल्ली के परम-व्यस्त चौराहों में से एक आईटीओ चौराहे पर एक इश्तिहार दिखाता रहता है- शराब आत्मा को नष्ट कर देती है। इश्तिहार दिल्ली सरकार की तरफ से होता है। दूसरी तरफ दिल्ली सरकार के एक मंत्री ऐसी इच्छा जाहिर की कि दिल्ली में शराब पीने की उम्र 25 साल है, यह ज्यादा है। इससे भी कम उम्र में शराब पीने की इजाजत होनी चाहिए। कम उम्र में बंदे शराब पीयें, तो सेल बढ़े, सेल बढ़े तो सरकार की कमाई बढ़े।

शराब आत्मा को नष्ट कर देती है- यह बात दिल्ली सरकार का इश्तिहार बताता है।

पर सरकारों की आत्मा कहाँ होती है। आत्मा-ऊत्मावाली बात तो बंदों-बंदियों पर लागू होती है। सरकार आत्मा नहीं कमाई देखती है। आत्मा हवाई बात है, कमाई ठोस बात है। सरकार ठोस काम करती है, हवाई बातों पर ध्यान ना देती।

सरकार की आत्मा होती भी हो, तो पक्का दोगली होती होगी। सरकार की आत्मा एक साइड से 5,500 करो़ड़ रुपये की कमाई की ओर ताकती है, फिर वही आत्मा चुनावी वादे की ओर भी देखने लगती है।

कुल मिलाकर सरकार दारुबाजों की ओर बड़ी उम्मीद भरी निगाह से देखती हैं। स्मार्ट वित्तमंत्री तो वह होगा, जो हर बच्चे के जन्म के साथ ही दारुबाजी की संभावनाएँ भी कैलकुलेट कर ले कि अगर अठारह में ही इसने पीना शुरू कर दिया तो पच्चीस साल की उम्र तक को यह सरकार की इतनी कमाई करा चुका होगा। ऐसे वित्तमंत्री के लिए आदर्श राज्य वह होगा, जहाँ हर बंदा या तो शराबी हो, या भावी शराबी हो।

शराब पीने से आत्मा नष्ट तो शराबी की होती है ना। सरकार की आत्मा हो, तब ही तो नष्ट होगी ना। दोगली आत्मा किसी भी खतरे से बरी होती है।

शराब के मसले समझना आसान थोड़े ही है।

इंगलिश शराब का एक बड़ा ब्रांड है- टीचर। गोया शराब ही बहुत बड़ी टीचर हो गयी है। हालाँकि कई लोग शराब पीने के बाद बेतरह अंगरेजी बोलते पाये जाते हैं, मतलब एक अर्थ में शराब को अंगरेजी का या कहें कि अंड-बंड अंगरेजी का खराब टीचर माना जा सकता है। पर समूचे टीचर समुदाय से ही शराब को जोड़ना बहुत गलत बात है। टीचर ब्रांड के साथ डिस्क्लेमर लगाया जाये कि टीचर-खराब अंगरेजी का टीचर।

इंगलिश शराब का एक ब्रांड भी संत-समुदाय के साथ पूरा न्याय नहीं करता। एक इंगलिश शराब का ब्रांड है-ओल्ड मोंक, हिंदी में इसका अनुवाद कुछ यूं होगा-पुराना साधु।

हालाँकि कई साधु नामधारी ऐसा कुछ गुजर रहे हैं, जिनसे यह नाम न्यायोचित सा लग उठता है कि पुराने साधु को दारु-चरस का प्रेमी होना चाहिए, एकाध बलात्कार का आरोप भी पुराने साधु को शोभा दे सकता है। पर भारत-भूमि के समस्त साधुओं के बारे में ऐसी बात नहीं कही जा सकती है। साधु-समाज को इस मसले पर ध्यान देना चाहिए।

इंगलिश शराब के मुकाबले देसी शराब के ब्रांड काफी यथार्थवादी से हैं। देसी शराब का एक ब्रांड है-घूमर, यानी एक तरह से चेतावनी ही है कि भाई पीने के बाद घूम सकता है। देसी शराब का एक ब्रांड है कमांडर, शराब पीकर बंदा खुद को राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री ना भी समझे, पर कमांडर लेवल तक समझ ही सकता है। देसी शराब का एक ब्रांड है हीर-रांझा। यह भी बहुत यथार्थवादी सा नाम है। इश्क वगैरह के मामले में दारुबाजी की ओर ले जा सकते हैं, गम सिर्फ महँगी दाल ही नहीं देती, इश्क भी काफी गम दे देता है, जिसके निपटारे के लिए दारु की तरफ आना पड़ सकता है।

शराब के मामले पेचीदा हैं, उलझे हुए हैं। पर सरकारों को कोई उलझन ना होती, कमाई में काहे की उलझन।

पर उस इश्तिहार का क्या होगा कि जिसमें बताया गया है कि शराब आत्मा को नष्ट कर देती है।

बताया ना साहब, सरकारों के पास आत्मा नहीं होती ही कहाँ है, सो वह इश्तिहार किसी सरकार पर लागू ना होता।

(देश मंथन, 08 दिसंबर 2015)

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