जानते हैं गोयबल्स के सच्चे चेलों को?

0
209

राजीव रंजन झा : 

गोयबल्स के बारे में जानते हैं – पॉल जोसेफ गोयबल्स? जर्मनी के तानाशाह चांसलर हिटलर का प्रचार प्रमुख था। कम ही लोग जानते होंगे कि हिटलर के बाद वह जर्मनी का चांसलर भी बना था, बस दो दिनों के लिए। खैर, नाम तो सुना ही होगा। 

अगर वाम-समाजवादी विचारधारा से जुड़े रहे हों तो आपके बाँटे हुए परचों में ही जाने कितनी बार उसका नाम आया होगा। और अगर दक्षिणपंथी विचारधारा से जुड़े रहे हों तो गोयबल्स के नाम पर बीसियों बार ताने खा चुके होंगे।

आखिर कहता क्या था गोयबल्स? उसका मुख्य सूत्र था – सौ बार झूठ बोलो तो लोग सच मानने लगेंगे। 

हिटलर का युग बीते अरसा हो गया, मगर गोयबल्स के इस सूत्र का जम कर पालन करने वाले आज भी हैं। ना ना, वे लोग नहीं, जिन्हें गोयबल्स के नाम पर सबसे ज्यादा ताने सुनाये जाते हैं। वो क्या है ना, उन लोगों को पढ़ने-लिखने से ज्यादा मतलब होता नहीं। इसलिए गोयबल्स का नाम शायद वे फेसबुक पर ही पहली बार देखते हैं और उनमें इतनी भी जिज्ञासा नहीं होती कि उसके बारे में कुछ पढ़ा जाये। पढ़ना उनके बस का होता ही नहीं ना!

तो फिर गोयबल्स के सूत्रों का रट्टा कौन लगाते हैं? वही, जो उसके नाम पर सबसे ज्यादा ताने मारते हैं दूसरों को। उन्हें पक्का यकीन है कि सौ बार झूठ बोलो तो दुनिया सच मान लेगी। 

क्या? मेरी बात का भरोसा नहीं हो रहा? 

याद कीजिए, साल भर से ज्यादा समय हो गया, जब यह खबर आयी थी कि जेएनयू के जिन सात वीडियो फुटेज की जाँच की गयी, उनमें से दो ‘डॉक्टर्ड’ थे, यानी उनमें कोई चीज अलग से डाल दी गयी थी जो मूल वीडियो में नहीं थी। ध्यान दीजिए, सात में से दो। यानी बाकी पाँच वीडियो? सात में दो गलत, तो क्या इसका मतलब यह नहीं कि सात में से पाँच सही?

पर गोयबल्स के चेलों ने सात में से पाँच सही की बात गोल कर दी। सब तरफ फैला दिया कि देखो, झूठे वीडियो चला कर जेएनयू को बदनाम किया गया। भई, जो पाँच सही वीडियो थे उनमें क्या भजन चल रहा था? आजतक की एक मार्च 2017 की एक खबर बताती है कि “स्पेशल सेल के सूत्रों के मुताबिक तरीबन 40 से ज्यादा वीडियो फूटेज को सीएफएसएल लैब जांच के लिए भेजा गया। रिपोर्ट में जेएनयू के कई फूटेज असली पाए गए जिनसे साबित होता है की जेएनयू में देश विरोधी नारे लगाए गए थे।” इस खबर में बताया गया कि “वीडियो फूटेज की जांच में उमर खालिद और अनिर्बान समेत कुल 9 लोग देश विरोधी नारे लगाते पाए गए।”

लेकिन आज भी आपको ऐसे तमाम लोग मिलेंगे जो डॉक्टर्ड वीडियो से जेएनयू को बदनाम करने की साजिश रचे जाने की बात कहेंगे। वे ऐसी ही कुछ बारीकियों को पकड़ेंगे कि वीडियो डॉक्टर्ड थे, पर सात में पाँच सही थे, यह बात गोल! वे कहेंगे कि कन्हैया ने कश्मीर की आजादी वाले नारे नहीं लगाये थे, पर देशविरोधी नारे लगाने वाले नौ छात्रों को पहचाना जा चुका है, यह बात गोल!

एक ही घटना में कौन-सी बातें सामने रखी जायेंगी, कौन-सी बातें गोल कर दी जायेंगी, यह इससे तय होता है कि बताने वाला किसको नायक और किसको खलनायक बताना चाहता है। मार्च 2016 में कन्हैया कुमार को अंतरिम जमानत मिली थी। गूगल आपको आसानी से उस समय की खबरें दिखा देगा। एक वेबसाइट की खबर में आपको केवल यह जानकारी मिलेगी कि उच्च न्यायालय ने कन्हैया कुमार को बड़ी राहत देते हुए जमानत दे दी। दूसरी वेबसाइट आपको केवल इतनी अतिरिक्त जानकारी देगी कि “कोर्ट ने देश विरोधी नारों पर सख्त रुख अपनाया।” तीसरी वेबसाइट आपको विस्तार से बतायेगी कि जमानत देते हुए न्यायाधीश महोदय ने क्या-क्या टिप्पणियाँ की (जो जाहिर हैं कि कन्हैया कुमार के पक्ष में खड़े लोगों को शर्मिंदा करती हैं और पहली-दूसरी वेबसाइट ने उन्हें गोल कर देना मुनासिब समझा)। 

उच्च न्यायालय ने कन्हैया कुमार को अंतरिम जमानत देते समय कहा था, “जो लोग अफ़ज़ल गुरु और मकबूल भट्ट के पोस्टर सीने से लगाकर उनकी शहादत का सम्मान कर रहे हैं और राष्ट्रविरोधी नारेबाजी कर रहे हैं, उन्हें समझ नहीं है कि दुनिया के सबसे ऊंचे ठिकानों पर लड़ाई के मैदान जैसी परिस्थियों में जहाँ ऑक्सीजन की इतनी कमी है वे इन कठिन परिस्थितियों का एक घंटे के लिए भी मुकाबला नहीं कर सकते। जिस तरह की नारेबाज़ी की गयी है उससे शहीदों के वे परिवार हतोत्साहित हो सकते हैं जिनके शव तिरंगे में लिपटे ताबूतों में घर लौटे।”

पर डॉक्टर्ड वीडियो के नाम पर जेएनयू में देशविरोधी नारे लगने की सारी बात खारिज कर देने वाले लोग इन सूचनाओं को आप तक नहीं पहुँचायेंगे। वे ‘सात में से दो डॉक्टर्ड” वाली बात ही सौ बार दोहरायेंगे। नहीं-नहीं, वे सात में से दो वाली बात भी गोल कर जायेंगे और केवल डॉक्टर्ड वीडियो का रिकॉर्ड बजाते रहेंगे। और अब तो आपको पता ही है कि वे ऐसा क्यों करते हैं? क्योंकि वे हैं गोयबल्स के सच्चे चेले। 

गोयबल्स के ऐसे चेले आपको समय-समय पर कहानियाँ भी सुनाते रहेंगे। अब यह बात तो है ही ना कि कहानी लिखने वालों पर खबरें लिखने वालों से बहुत कम जिम्मेदारी होती है। आप यह नहीं पूछ सकते कि अरे, ऐसी घटना कहाँ हुई थी या उस घटना में वो वाली बात कहाँ हुई थी? आखिर रचनात्मक स्वतंत्रता भी कोई चीज होती है ना? इसलिए एक खास रंग को खलनायक बना देने के लिए सौ कहानियाँ भी लिखनी पड़ें तो वे लिखेंगे। 

पर अब इतनी रामकहानी सुनाने के बाद आपसे यह समझने की उम्मीद तो की जा सकती है कि उनकी कहानी के काफी हिस्सों को आप कल्पना की उड़ान मान लेंगे।

(देश मंथन, 26 मार्च 2017)

कोई जवाब दें

कृपया अपनी टिप्पणी दर्ज करें!
कृपया अपना नाम यहाँ दर्ज करें