आलोक पुराणिक, व्यंग्यकार
लालूजी कह रहे हैं कि बीजेपी उनके वोट बैंक में सेंध लगाने के चक्कर में है।
एक होता है बैंक और एक होता है वोट-बैंक।
बैंक यू रिजर्व बैंक अनुमति से बनते हैं, पर वोट-बैंक बनाने के लिए किसी की अनुमति नहीं चाहिए होती है, जिसका जब चाहे मन करे, बना ले। मनमानी के काम में घोटाले हो जाते हैं। रिजर्व बैंक सामान्य बैंकों में घोटाले नहीं होने देता, पर वोट-बैंकों पर उसका दखल नहीं है, सो वोट-बैंकों में खूब घोटाला हो रहा है।
एक पार्टी गुस्सा करती है कि पैंसठ सालों से हमने डिपाजिट कराया था, उस बैंक से कोई और पार्टी वोट निकाल कर ले गयी। निकाले भी ऐसे कि पता नहीं चला। निकल लिये, तब पता चला। बैंकिंग लेन-देन का रिकार्ड होता है, और उसके आधार पर धरपकड़ संभव है। पर वोट बैंक के डिपाजिट-घोटालों के रिकार्ड संभव नहीं होते, क्योंकि वोट गुप्त होता है, और वोटर होशियार।
वोटर हर नेता से कह सकता है- जी आपके वोट बैंक के ही कस्टमर हैं हम। नेता पकड़ ना सकता है कि वोटर असल में कहाँ डिपाजिट करा आया वोट। ऐसा घपला सचमुच के बैंक में संभव नहीं है। बैंकिंग का कोई भी कस्टमर हरेक बैंक से ये ना कह सकता है कि हम तो आपके ही कस्टमर है। कस्टमर है, तो चेकबुक दिखाओ, हमारा एटीएम कार्ड दिखाओ। बैंकिंग के लेन-देन में फर्जीवाड़ा संभव नहीं है, वोट-बैकिंग के मामले में ये बात नहीं है। सचमुच की बैंकिंग में तो जहाँ नोट डिपाजिट कराओ, वहीं का एटीएम कार्ड मिलेगा, उसी के कार्ड से किसी एटीएम से रकम निकाली जा सकती है। पर वोट बैंकिंग में यह नहीं है। कोई एक साथ आठ-दस नेताओं से कह सकता है कि हम तो जी आपके ही वोट हैं, आपके ही वोट बैंक में गिरेंगे। एक साथ कोई वोटर ए पार्टी से आटा, बी पार्टी से कंबल और सी पार्टी से दारु लेकर डी पार्टी को वोट दे सकता है। ऐसा घोटाला सामान्य बैंकिंग में नहीं होता।
वोट बैंक में घोटालों से हैरान-परेशान नेता माँग कर सकते हैं कि उनके यहाँ भी लेन-देन के हिसाब वैसे रखे जायें, जैसे बैंकों के लेन-देन मे रखे जाते हैं। पासबुक बन जाये, चार बोतल दारु की हमारी पी गये, तो चार वोट तो हमें दो। पासबुक में दर्ज हो कि अब तक बीस बोतल दारु उन्हे सप्लाई हो चुकी है, पर सवाल उठता है कि उनसे क्या वापस आया।
सामान्य बैंकिंग में रिजर्व बैंक सुनिश्चित करता है, जिस डिपाजिटर ने जो डिपाजिट बैंक में कराया है, उसे वह अपनी मनमर्जी से वह जब चाहे निकाल सकता है। पर वोट बैंकिंग के मामले में ये ना होता, वोट बैकिंग में भी पासबुक और चेकबुक का चलन शुरू होना चाहिए। पासबुक में दर्ज रहे कि बीस बोतलें उन्हे दी जा चुकी हैं, बदले में अठारह वोट उन्होने दिये, दो वोटों का बैलेंस उनकी तरफ बचता है। जिन्हे आगामी चुनावों में खेंचा जाना बाकी है। वोटों का ओवरड्राफ्ट मिलने का जुगाड़ भी वोट बैंकिंग में होना चाहिए। जैसे नार्मल बैंकिंग खाते में होता है कि एक लाख रुपये खाते में हों, तो भी बन्दे को दो लाख रुपये निकालने की परमीशन मिल जाती है, बैंक ओवरड्राफ्ट के जरिये। वोट बैंकिंग में ऐसी माँग कुछ नेताओं ने की है। चार सीटें कम पड़ रही हैं, सरकार बनाने में। चार सीटों का ओवरड्राफ्ट मिल जाये, अगले चुनावों में बहुमत से चार ज्यादा जीत लें। ऐसी सुविधाएँ वोट बैंकिंग में हों, तो वोट बैंक चकाचक चलें।
लोकतन्त्र के सामने सबसे बड़ा सवाल यह है कि देश के वोट बैंक कब उतने प्रोफेशनल होंगे, जितने प्रोफेशनल हमारे नार्मल बैंक हैं।
(देश मंथन, 9 जुलाई 2015)