संजय सिन्हा, संपादक, आजतक :
बहुत तेज बर्फबारी और कड़ाके की ठंड के बीच मैं अमेरिका के बफैलो एयरपोर्ट पर खड़ा था। मुझे वहाँ से फ्लोरिडा जाना था। आमतौर पर हम कहीं भी आते-जाते हैं तो पहले से विमान का टिकट खरीद चुके होते हैं, होटल और टैक्सी वगैरह की बुकिंग करा चुके होते हैं।
पर उस दिन मुझे अचानक जाना पड़ गया। बफैलो में बहुत ठंड थी और मैं बिना किसी पूर्व योजना के न्यूयार्क से नाएग्रा फॉल्स देखने पहुँच गया था। ऐसे में जब मैं एयरपोर्ट पहुँचा तो पता चला कि वहाँ से अगली उड़ान फ्लोरिडा के ओरलैंडो शहर के लिये है।
क्योंकि बहुत तेज बर्फबारी हो रही थी और खबरों में आ चुका था कि ढेरों उड़ानें रद्द हो चुकी हैं, तो ऐसे में मुझे यही सही लगा कि जैसे भी संभव हो यहाँ से तो निकला जाए। हम दो लोग थे और हम दोनों ने तय किया कि अगली उड़ान चाहे जहाँ की हो, उसी का टिकट ले लिया जाए।
मैंने काउंटर पर बैठी महिला से पूछा कि कितने डॉलर लगेंगे दो टिकट के?
महिला ने कम्यूटर में झांका और बताया कि करीब 190 डॉलर लगेंगे। मैंने अपना पर्स खोला और पाँच सौ डॉलर का एक ट्रैवेलर्स नोट उसकी ओर बढ़ाया। महिला पाँच सौ डॉलर का ट्रैवेलर्स नोट देख कर हैरान रह गयी। ऐसा नहीं है कि पाँच सौ डॉलर का ऐसा नोट उसने नहीं देखा होगा, पर वो हैरान थी कि कोई व्यक्ति भला पाँच सौ का नोट लेकर क्यों चल रहा है। उसने मेरी ओर बहुत हैरानी भरी निगाहों से देखा और पूछा कि क्या आपके पास क्रेडिट कार्ड नहीं है?
मैंने उससे पूछा कि पाँच सौ के डॉलर इस ट्रैवलर नोट में क्या समस्या है?
महिला ने मुझसे कहा कि कोई समस्या नहीं है। पर क्योंकि उड़ान का समय हो चुका है, अब बहुत देर तक इंतजार नहीं कर सकते। आपको फटाफट विमान तक पहुँचना है, ऐसे में क्रेडिट कार्ड देते तो टिकट जल्दी हो जाता।
“पर इसे लेने में देर क्यों होगी?”
“सर, इतना बड़ा नोट मैं आपसे लूंगी, कैलकुलेटर पर मुझे पूरा हिसाब करना होगा कि कितने डॉलर मुझे आपसे लेने हैं और कितने लौटाने हैं। इसमें काफी समय लगेगा। यह बहुत बड़ा नोट है। आम तौर पर हम लोग इतना बड़े नोट का छुट्टा भी नहीं रखते।”
मैं बहुत हैरान था। मैंने बात आगे बढ़ाते हुए कहा कि आप ज़्यादा मत सोचिए, 190 की जगह सीधे दो सौ डॉलर काट लीजिए और मुझे तीन सौ डॉलर वापस कर दीजिए, पर फटाफट टिकट दे दीजिए।
महिला ने कहा कि सर ये संभव नहीं है। हम ऐसा नहीं कर सकते। मुझे पूरा हिसाब जोड़ने और समझने में काफी समय लगेगा और आपकी ये उड़ान छूट जाएगी। अगर आपके पास क्रेडिट कार्ड है तो दीजिए, वर्ना आपकी ये उड़ान तो गई।
मैंने क्रेडिट कार्ड दिया और टिकट लिया।
पाँच सौ डॉलर का वो ट्रैवेलर्स नोट मेरी जेब में पड़ा रह गया।
कहानी यहीं खत्म नहीं हुई। जब मैं फ्लोरिडा पहुँचा तो वहाँ भी कई जगह मुझे पाँच सौ के उस नोट की वज़ह से एक हद तक शर्मिंदगी से गुजरना पड़ा। मैं जहाँ मैं उस नोट को चलाने की कोशिश करता, लोग मुझे हैरान निगाहों से देखते।
पाँच सौ डॉलर का नोट? इतनी बड़ी रकम? ये तो धन का भोंडा प्रदर्शन है।
कुछ साल पहले अगर प्रति डॉलर की कीमत पचास रुपये भी रही हो तो पाँच सौ डॉलर की कीमत 25 हजार रुपये हुई। भारत में हम एक-एक लाख रुपये लेकर खरीदारी करने निकल जाते थे, दुकानदार थूक लगा कर नोट गिन लेता और भोंडी सी मुस्कान के साथ थैंक्यू बोलता। कभी किसी ने यह पूछने की कोशिश नहीं की कि भई, इतना नकद घर में रखते ही क्यों हो? इतना नकद घर में रखने का मतलब ही है कि सरकार से तुमने टैक्स छुपाया है। और वो दुकानदार? वो भी मुझसे यही कहता था कि अगर आप कच्चे में बिल लेंगे तो आपका इतना पैसा बचेगा, पक्के में लेंगे तो इतना महँगा पड़ेगा। दिल्ली के बहुत नामी ज्वेलर से एक बार मैंने शादी की सालगिरह पर पत्नी के लिए एक अंगूठी खरीदी थी तो वो मुझे समझा रहा था कि क्रेडिट कार्ड से खरीदने पर आपको दस प्रतिशत महँगा पड़ेगा, क्योंकि हम पक्के की रसीद बनाएंगे। लेकिन आप अगर कच्चे की रसीद लेंगे तो आपको कैश देना होगा। कच्चे की रसीद लेने में आपका फायदा है।
“मेरा फायदा?”
“हाँ, आपका फायदा।”
“पर मेरा फायदा तो पक्की रसीद लेने में है। कल को कोई शिकायत आई तो आप अपनी दी हुई कच्चे की रसीद को नहीं पहचानेंगे। आप मुझे पक्के की रसीद ही दीजिए।”
“नहीं सर, ऐसा नहीं है। आप इस रसीद को लेकर जब भी मेरी दुकान में आएंगे, हम इसे फुल ऑनर करेंगे। बस हमारा मकसद अपने ग्राहकों का पैसा बचाना है। आप तो समझदार आदमी हैं।”
मेरा यकीन कीजिए, मैं उस दुकान से उठ कर चला आया था और मुझे यह बताने में कोई गुरेज नहीं कि वो सचमुच दिल्ली का बहुत बड़ा ज्वेलर था। कनाट प्लेस में उनका बहुत बड़ा शो रूम था। मुझे पहली बार लग रहा था कि ये लोग खुद तो बिजनेसमैन कहते हैं, करोड़ों रुपये कमाते हैं, करोड़ों रुपये अपने घर की शादियों में उड़ाते हैं, पर हैं चोर। मुझे पहली बार लगा था कि हिंदुस्तान में बिजनेस का मतलब चोरी करना होता है। इसी को लोग यहाँ धंधा कहते हैं। बड़े-बड़े मकानों में रहते हैं, बड़ी-बड़ी गाड़ियों में चोरी के पैसे से घूमते हैं और खुद को बड़ा आदमी बताते हैं।
खैर, मैं जानता हूँ कि इस तरह के अनुभव से आप सभी लोग बहुत बार गुजरे होंगे और इस तरह की चोरों से आपका पाला मुझसे अधिक पड़ा होगा।
मुझे तो अभी कहानी सुनानी है अमेरिका की।
तो मेरे प्यारे परिजनों, संजय सिन्हा की जेब में वो पाँच सौ डॉलर का नोट बोझ बन गया। हम कहीं खाना खाते तो रेस्त्रां वाला उकसाता कि क्रेडिट कार्ड से भुगतान कर देते अच्छा रहता। टैक्सी वाले को वो नोट दिखाते तो वो भी ऐसे घबरा जाता, मानो संजय सिन्हा बैंक में डकैती डाल के आए हों। खैर, काफी मशक्कत के बाद और बड़ी खरीदारी से मेरा वो पाँच सौ डॉलर का नोट अमेरिका में चल गया।
पर इस एक घटना से मैंने यह समझ लिया कि अमेरिका में आज भी डॉलर की बहुत कद्र है। वहाँ सौ डॉलर के नोट की अहमियत यहाँ के दस हजार रुपयों से अधिक है। वहाँ लोग कैश लेकर नहीं चलते। नहीं चलते, क्योंकि हर दुकानदार आपको पक्का बिल देने में यकीन करता है। वो इसलिए क्रेडिट कार्ड से भुगतान लेना पसंद करता है क्योंकि वो सरकार को टैक्स देने में यकीन करता है। वो एक डॉलर का भुगतान भी इज्ज़त के साथ क्रेडिट कार्ड, डेबिट कार्ड या मोबाइल पर्स के जरिए लेना पसंद करता है क्योंकि वो चोर होने और बिजनेस करने के अंतर को समझता है।
और हमारे यहाँ?
लोग आक्रोश दिवस मना रहे हैं। कह रहे हैं कि नोट नहीं तो सब मर जाएंगे।
कल मैं बहुत दिनों के बाद दफ्तर से नीचे उतरा। पेड़ के नीचे खड़े नंदू ठेले वाले से मैंने सिर्फ यह जांचने के लिए कि कैश नहीं होने से क्या समस्या आ रही है, पूछा कि धंधा कैसा चल रहा है? नंदू ने मुस्कुराते हुए बताया कि साहब पहली बार मजा आ रहा है। अब मैं पेटीएम से पैसे लेने लगा हूँ। चाहे एक रूपया भी हो, अगर कोई मुझे पेटीएम से पैसे देता है, तो लगता है कि बैंक में कुछ जमा हुआ।
मैंने पूछा कि पेटीएम इस्तेमाल करना सीख गये?
नंदू ने कहा, जी भैया। बहुत आसन है। और वो मुझे मेरे मोबाइल पर सिखाने लगा कि कैसे पेमेंट करते हैं।
मैंने उससे कहा कि मुझे दो रूपए अगर तुम्हें देने हों तो तुम पेटीएम से लोगे?
“जी भैया। ये मेरा फोन नंबर है, आप इस पर दो रुपया लिख कर बटन दबाइए। मेरे पास एक सेकेंड में दो रुपये पहुँच जाएंगे।”
मैंने ऐसा ही किया।
पहली बार मुझे लगा कि हिंदुस्तान में दो रुपये की भी अहमियत है। अब तक न जाने कितने एक और दो रुपये के सिक्के मैं इधर-उधर छोड़ देता था, वो दो रुपये कल मुझसे नंदू ने व्हाइट में लिए। कल से कई बार अपना अकाउंट देख चुका हूँ। दो रुपये मेरे एकाउंट से निकले।
मैं किसी व्यक्ति का भक्त नहीं हूँ। किसी का भक्त नहीं हूँ।
जिस तरह आम अमेरिकी देशभक्त होता है, बिजनेस और चोरी में अंतर समझता है, देश को टैक्स देना अपना धर्म समझता है, उसी तरह मैं भी देशभक्त हूँ। मैं बिजनेस और चोरी में अंतर को पहचानता हूँ। मैं कच्चे बिल लेने वालों को चोर मानता हूँ। मैं कच्चे बिल से बिजनेस करने वाले को भी चोर मानता हूँ। मैं टैक्स देना अपना धर्म समझता हूँ। ऐसे में चाहे सौदा दो लाख का हो या दो रुपये का, मुझे अपने एकाउंट से खर्च करने में अच्छा लगता है।
नंदू कभी स्कूल नहीं गया। आम अमेरिकी भी ज़्यादा ऊंची पढ़ाई नहीं करते।
असल में देश से प्यार करने के लिए बहुत पढ़ा-लिखा होना जरूरी नहीं होता। जरूरत होती है अच्छे संस्कारों की। देश से प्यार करने के लिए झंडा लेकर रोड पर निकलने की भी दरकार नहीं होती। दरकार होती है कमाई में सफेदी की चमकार की।
ध्यान रहे, मकान ऊंचा होने से इंसान ऊंचा नहीं होता।
(देश मंथन, 01 दिसंबर 2016)