संदीप त्रिपाठी :
अरुणाचल प्रदेश प्रकरण में सुप्रीम कोर्ट के फैसले से भारतीय जनता पार्टी की किरकिरी हुई है। भाजपा इस किरकिरी के ही लायक है। वैसे तो इस किरकिरी के लायक कांग्रेस समेत अन्य सभी राजनीतिक दल हैं लेकिन चूँकि कांग्रेस इस फैसले की लाभार्थी है, इसलिए वह अभी मस्त है।
सवाल यह है कि भाजपा इस किरकिरी के लायक क्यों है? इस पर चर्चा से पहले भारतीय राजनीति में 1980 से पहले की तीन घटनाओं का जिक्र करना चाहूँगा। पहला 1964 में प्रसोपा तीन हिस्सों में बँटी। एक खेमा कांग्रेस में गया, दूसरा प्रसोपा में रहा, तीसरे खेमे ने संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी (संसोपा) बनायी। दूसरे किस्सा कम्युनिस्ट पार्टी का है जिसमें 1964 में विभाजन होता है और मूल धड़ा भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (भाकपा) में रहता है और दूसरा धड़ा मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा) बनाता है। तीसरा महत्वपूर्ण विभाजन लालबहादुर शास्त्री की मृत्यु के बाद इंदिरा गाँधी के नाम पर कांग्रेस में होता है जिसमें कांग्रेस के दो हिस्से होते हैं कांग्रेस-आर और कांग्रेस-ओ के रूप में। कांग्रेस में कई अन्य बार भी विभाजन होते रहे हैं।
इस दौरान और इसके बाद भी दो घटनाएँ और होती हैं। इसमें पहली घटना 1967 में होती है जब चौधरी चरण सिंह कांग्रेस मंत्रिमंडल छोड़ कर अपना गुट बना लेते हैं और राम मनोहर लोहिया के नेतृत्व में संसोपा, कम्युनिस्ट पार्टी, स्वतंत्र पार्टी और जन संघ उन्हें समर्थन दे कर उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री बनवा देते हैं और इस फॉर्मूले पर देश में किसी राज्य में पहली बार गैर कांग्रेसी सरकार बनती है, वह भी नौ राज्यों में। दूसरी घटना 1987 में होती है जब राजीव मंत्रिमंडल के वित्त मंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह बगावत करते हैं और सभी विपक्षी पार्टियाँ उन्हें समर्थन देती हैं जिसके परिणामस्वरूप 1989 के चुनाव में विश्वनाथ प्रताप सिंह प्रधानमंत्री बनते हैं।
राजनीतिक अराजकता पर रोक
दल के भीतर रह कर अलग-अलग मुद्दों पर सहमत-असहमत होने की जो स्वतंत्रता राजनीतिक कार्यकर्ताओं या यूँ कहें कि सांसदों/विधायकों को मिली थी, उसे सीमित करने का पहला काम राजीव काल में हुआ और दल-बदल विधेयक आया। इसमें एक तिहाई सदस्यों के अलग होने पर ही अलग गुट को मान्यता की बात कही गयी। यह राजनीतिक स्थिरता के लिए और राजनीतिक अराजकता से बचने के लिए एक प्रशंसनीय कदम था। इसकी तब बहुत चर्चा हुई थी।
दलों के भीतर राजनीतिक असहमति की आजादी खत्म
लेकिन 2003 में अटल बिहारी वाजपेयी सरकार ने 91वें संविधान संशोधन के जरिये सांसदों/विधायकों को पार्टी आलाकमान का गुलाम बना दिया, पार्टी के भीतर राजनीतिक असहमति की आजादी खत्म कर दी गयी। इस संशोधन विधेयक में कहा गया कि किसी पार्टी के संसदीय दल या विधायक दल के दो तिहाई सदस्य जब एक साथ अलग होंगे और उनका किसी अन्य पार्टी में विलय होगा तभी उनकी सांसदी/विधायकी बनी रहेगी वरना रद हो जायेगी। इस विधेयक को बड़ी शांति के साथ भाजपा, कांग्रेस व अन्य दलों ने चुपचाप पारित कर दिया।
आलाकमान के बंधुआ बने जनप्रतिनिधि
अब देखें तो इस संशोधन विधेयक का मंतव्य क्या निकलता है? इस संशोधन विधेयक का सीधा मंतव्य यह है कि यदि आप किसी पार्टी के टिकट पर चुने गये या चुने जाने के बाद किसी पार्टी में शामिल हो गये तो फिर उस पार्टी के आलाकमान के हर सही-गलत निर्णय का आपको समर्थन करना होगा। स्पष्ट है कि इस संशोधन विधेयक से सांसद-विधायक की वैयक्तिक समझ को कुंद करने का प्रयास हुआ। यानी जनता के प्रतिनिधियों की समझ और तर्कों को उनकी पार्टियों के आलाकमान के सामने गिरवी रखने की परंपरा डाली गयी। यह राजनीतिक स्वतंत्रता का हनन है और यह पार्टियों के आलाकमान की तानाशाही का सृजन करने वाला है।
लोकतंत्र के सिद्धांतों के खिलाफ
यह लोकतंत्र के स्थापित सिद्धांतों और बहुमत के सिद्धांत के खिलाफ है। इस कानून का अर्थ यह है कि अगर किसी पार्टी के संसदीय दल या विधायक दल के एक तिहाई से एक ज्यादा सदस्य एक बात पर राजी हैं और इस समूह में आलाकमान शामिल है तो दो तिहाई से एक कम संख्या वाले समूह के लोगों की आवाज कानून के नाम पर दबायी जा सकती है। इसके बाद भी तुर्रा यह कि यदि दो तिहाई सदस्य एक पक्ष में हैं जो आलाकमान के पक्ष के विपरीत हैं तो किसी अन्य दल में इस समूह का विलय नहीं होने पर इनकी सदस्यता रद हो जायेगी। यानी आलाकमान के सामने बहुमत की भी नहीं चलेगी। यह लोकतंत्र के मुकाबले आलाकमान के सिद्धांत को मजबूत करने का विधेयक था।
आज अरुणाचल प्रदेश में यही हुआ है। सत्तारूढ़ कांग्रेस के आधे सदस्य अपने आलाकमान के खिलाफ हो गये। सदन में इस बागी गुट को भाजपा के 11 और दो निर्दलीय सदस्यों का समर्थन मिलने पर यह गुट सदन में बहुमत में आ गया। लेकिन 2003 के इस संशोधन विधेयक के कारण ही अरुणाचल में बहुमत के समर्थन वाला गुट विपक्ष में बैठने को मजबूर है। यह नुकसान भाजपा का नहीं है और न ही कांग्रेस का फायदा है। यह सीधे-सीधे लोकतंत्र का नुकसान है। यदि यह कानून संविधान में शुरू से होता तो आज हम न लोहिया को याद कर पाते, न विश्वनाथ प्रताप सिंह को। तब आलाकमान रह चुके नेताओं के अलावा किसी की कोई हैसियत नहीं होती।
(देश मंथन 15 जुलाई 2016)