क़मर वहीद नक़वी, वरिष्ठ पत्रकार :
बच्चे थे, तब से सुन रहे हैं! शायद तब से अब तक हजारों बार सुन-पढ़ चुके हैं! न्याय न सिर्फ होना चाहिए, बल्कि होते हुए दिखना भी चाहिए! तो बाकी बातें छोड़ दीजिए, बस जी कर रहा है कि यही एक सवाल माननीय पी. सदाशिवम जी से पूछूँ।
वे अपने दिल पर हाथ रख कर ईमानदारी से जवाब दे दें। उन्होंने जो कदम उठाया है, क्या वह इस एक लाइन की कसौटी पर खरा उतरता है? न्याय न केवल हो, बल्कि होते हुए दिखे भी! उन्होंने जो फैसला लिया है, वह न केवल उनकी निगाह में सही हो, बल्कि न्यायिक बिरादरी को भी, आम जनता को भी लगे कि यह फ़ैसला सही है। क्या उनके केरल का राज्यपाल बनने से न्यायपालिका की, न्यायाधीशों की गरिमा बढ़ेगी? न्यायपालिका की स्वतंत्रता को इस फैसले से बल मिलेगा? क्या इन सवालों का जवाब हाँ है?
क्या यह सवाल इतना ‘कठिन’ था?
सदाशिवम जी भारत के मुख्य न्यायाधीश रहे हैं। अभी चार महीने पहले रिटायर हुए हैं। क्या यह सवाल उनके लिए इतना कठिन है? क्या इसके लिए क़ानून की मोटी-मोटी पोथियाँ पलटने की जरूरत है? नहीं! सिर्फ़ अपनी अंतरात्मा से पूछ लीजिए! वह बता देगी! बड़े-बड़े पूर्व जज, कानूनविद्, पत्रकार-समीक्षक वगैरह-वगैरह क्या कह रहे हैं, मत सुनिए। अंतरात्मा भी दुविधा में हो, तो अपने आसपास किसी बाज़ार में, मुहल्ले में घूम-टहल कर किन्हीं दस-बीस लोगों से पूछ लीजिए कि आपको इस ‘बड़े कठिन’ सवाल का जवाब नहीं मिल पा रहा है। और देखिएगा, लोग कैसे चुटकियों में आपकी समस्या हल कर देंगे कि माननीय जज साहब, भारत का मुख्य न्यायाधीश होने के बाद राज्यपाल की कुर्सी पर बैठने का आपका फैसला सही नहीं लगता!
सुप्रीम कोर्ट का फ़ैसला क्यों याद नहीं आया?
जस्टिस सदाशिवम के अपने तर्क हैं। वे कहते हैं कि अमित शाह के मामले में उन्होंने वही किया, जो कानून के मुताबिक उचित था। और जब उन्होंने अमित शाह को राहत दी थी तो किसे पता था कि वे आगे चल कर बीजेपी अध्यक्ष बन जायेंगे? ठीक। लेकिन सवाल सिर्फ यही नहीं है। सवाल कई हैं। मसलन, आज तक भारत का कोई मुख्य न्यायाधीश कभी राज्यपाल नहीं बना। न पहले किसी सरकार ने कभी ऐसा प्रस्ताव ही किया। यानी आज तक कहीं न कहीं परंपरा में माना जाता रहा कि भारत का मुख्य न्यायाधीश होना राज्यपाल होने के मुकाबले बहुत बड़ी बात है! इसलिए किसी ने कभी ऐसा सोचा नहीं!
फिर आज राज्यपालों का मामला ऐसे ही विवादों में है। बरसों पहले सुप्रीम कोर्ट राज्यपालों के बदले जाने पर अपनी साफ-साफ राय दे चुका है। सुप्रीम कोर्ट के फैसले को अनदेखा कर सारे राज्यपाल बदले गये। क्या सरकार ने ऐसा कर सही किया? और क्या ऐसे में, सुप्रीम कोर्ट के ही एक रिटायर्ड चीफ जस्टिस का उस कुर्सी पर बैठना सही है, जहाँ से मौजूदा राज्यपाल को बिना वजह हटाया गया?
ख़तरे में न्यायपालिका की स्वतंत्रता
तीसरी बात कि प्रस्तावित नये संविधान संशोधन से न्यायपालिका की स्वतंत्रता को लेकर नये सवाल खड़े हो गये हैं। जजों की भर्ती के नये प्रस्तावित तरीके को लेकर सुप्रीम कोर्ट चिंतित है। मौजूदा सरकार ही नहीं, देश का समूचा राजनीतिक तंत्र और तमाम राजनीतिक दल अदालतों पर नकेल कसना चाहते हैं। यह सही है कि न्यायपालिका में भ्रष्टाचार और जजों की नियुक्ति की मौजूदा व्यवस्था को लेकर बहुत-से सवाल खड़े हुए हैं और उसमें जरूरी सुधार जल्दी से जल्दी होने चाहिए, लेकिन सब जानते हैं कि केंद्र सरकार की ताजा कोशिशें कतई ईमानदार नहीं हैं और उससे न्यायपालिका की स्वतंत्रता को लेकर गंभीर खतरा पैदा हो जायेगा। क्या जस्टिस सदाशिवम ने इस सवाल पर सोचा? फिर जस्टिस सदाशिवम सिर्फ चार महीने पहले रिटायर हुए हैं। इतनी जल्दी सरकार की ‘मेहरबानी’ स्वीकार करना क्या उचित है?
और इस आखिरी सवाल का जवाब तो बीजेपी को भी देना चाहिए। अरुण जेटली जी बड़े वकील हैं। कानून के बड़े दिग्गज जानकार। दो साल पहले अपनी ही पार्टी के एक मंच पर उन्होंने कहा था कि न्यायाधीशों में रिटायर होने के बाद पद लेने की होड़ मची रहती है, इससे न्यायपालिका की निष्पक्षता पर असर पड़ता है! तब नितिन गडकरी बीजेपी अध्यक्ष हुआ करते थे। उनका कहना था कि रिटायरमेंट के बाद जजों के लिए दो साल का कूलिंग पीरियड होना चाहिए। बताइए, आज आपका क्या कहना है गडकरी और जेटली जी? वैसे तो राजनेता हमेशा सुविधा की याद्दाश्त रखते हैं। इसलिए हो सकता है यह बात अब याद ही न हो! लेकिन अगर याद भी हो तो कर ही क्या सकते हैं? यह ‘वह वाली बीजेपी’ तो है नहीं। अब तो जो शाह और मोदी कहें, वही सही! बाक़ी सब बजायें ताली!
दोनों की बेकरारी, आख़िर मामला क्या है?
तो लब्बो-लुबाब यह कि माननीय सदाशिवम जी जो भी कहें, समझ में नहीं आया कि राज्यपाल बनने को वे इतना आतुर क्यों हुए कि अपनी और न्यायपालिका की साख दाँव पर लगाने से भी नहीं हिचके? और समझ में नहीं आया कि केंद्र सरकार उन्हें ही राज्यपाल बनाने को इस हद तक लालायित क्यों हुई? कुछ न कुछ तो होगा ही न! कुछ न भी हो तो भी दोनों की बेकरारी देख कर लोग तो कहेंगे ही कि कुछ न कुछ तो होगा ही!
संकट साख का है। संकट एक गलत परंपरा की शुरुआत का है। क्या यह सिलसिला यहीं थम सकेगा? क्या आगे और ढलान नहीं है? अगर न्यायपालिका अपने भीतर ऐसे मानक, ऐसे तंत्र नहीं विकसित कर सकी कि उसकी स्वतंत्रता और गरिमा बनी रहे तो देखते ही देखते हमारे सामने बस न्याय का एक नकली महल होगा। चीजें अकसर देखते ही देखते रेत की तरह मुट्ठी से फिसल जाती हैं। देखते ही देखते मीडिया मुखौटा बन गया! अब चुनौती न्यायपालिका के सामने है।
और रंजीत सिन्हा के ये ‘मुलाकाती’
साख का यह संकट कहाँ नहीं है? सीबीआई प्रमुख रंजीत सिन्हा के घर मुलाकातियों की जो सूची सामने आयी है, वह अगर सही है तो मामला वाकई गंभीर नहीं है क्या? कोई-कोई ‘मुलाकाती’ सैंकड़ों-सैंकड़ों बार उनसे क्यों मिला, कोई-कोई 60-70 बार क्यों मिला और इनमें से कोई-कोई दिन में चार-चार, पाँच-पाँच बार क्यों मिला भाई? इनमें एक सज्जन हैं गोश्त के निर्यातक। एक और सीबीआई निदेशक से उनके रिश्तों को लेकर इनकम टैक्स विभाग पहले ही जाँच कर रहा है। अब सिन्हा साहब के मामले में भी उनका नाम प्रमुखता से आया है! तो सब संयोग है क्या? तो सीबीआई ‘पिंजड़े में कैद तोता’ है या ‘ड्राइक्लीनिंग कंपनी?’ या दोनों? जरा पीछे नजर दौड़ाइए और देखिए कि किन बड़े मामलों में सीबीआई अपनी जाँच सफलतापूर्वक पूरी कर सकी और आरोपियों को सजा दिलवा सकी? एक चारा घोटाले में लालू यादव का मामला छोड़ दीजिए तो बोफोर्स से लेकर मायावती और मुलायम सिंह तक के खिलाफ सारे मामलों में सीबीआई को ‘पूरे सबूत’ नहीं मिल सके! ये सारे के सारे मामले बड़े जोर-शोर से उछले, खूब शोर मचा, लेकिन अंत में निकला क्या? कुछ नहीं!
यही सब होगा तो साख कहाँ से आयेगी? साख खरीदी नहीं जा सकती, बनानी पड़ती है। और लोकतंत्र साख की बुनियाद पर ही चलता है। तो सोचिए कि क्या हम यह सब करके साख बना रहे हैं? क्या हम चाहते हैं कि हमारा लोकतंत्र जिंदा रहे और आगे बढ़े? (raagdesh.com)
(देश मंथन, 9 सितंबर 2014)