दीपक शर्मा, वरिष्ठ पत्रकार :
गरीबी, गुरबत, गाली और गद्दारियों की तोहमतों के बीच कोई कैसे जिये? पंचर जोड़ना, हजामत बनाना, कबाड़ का काम, पुताई का ठेका और कसाई की जिंदगी।
अगर जिंदगी यही है तो फिर मुल्क का मतलब क्या है? फिर कोई इसी गुबार से निकल कर जब भीड़ के बीचों-बीच बम रखता है तो क्यूँ थर्रा जाते हैं आप? क्यूँ परेशान होते हैं इंडियन मुजाहिदीन से? फिर क्यूँ नफरत सी हो जाती है आपको शाही इमाम या मुलायम के मुगले-आजम खान से?
नहीं नहीं, सच कुछ और भी है। इतनी गुरबत के बावजूद, मुजाहिदीनों की, शाही इमामों की गिनती हजार से ऊपर नहीं। इंडियन मुजाहिदीन का नेटवर्क 200 सदस्यों से अधिक नहीं और आईएसआईएस (ISIS) की भर्तियाँ कुछ सिरफरों तक सिमट कर रह गयी हैं। भिंडरावाला भी कृपाण के जोर पर 2000 खाड़कू से ज्यादा खालिस्तानी नहीं बना पाया था। नगा भी 4-5 हजार से ज्यादा ईसाइयों के हाथ में एके 47 नहीं थमा सके।
मित्रों, रोजी रोटी के लिए गली से निकला हर मुसलमान झोले में बम लेकर नहीं चलता। लेकिन तस्वीर यही बनायी जा रही है। ऐसी तस्वीर बना कर राजनीति में तात्कालिक लाभ मिल सकते हैं, लेकिन एक बड़े वक्त में यही गुरबत और गालियाँ हमारे आपके रास्ते में तबाही भी ला सकती है। इसलिए 25 करोड़ में 25 हजार भी अगर बहक जायें तो उन्हें रोकिये, और जो बाकी 24 करोड़ पौने 99 लाख हैं उनके ऐतबार को जीतिए। यह हकीकत मोदी समझ रहे हैं, स्वयंसेवक भी समझें। (देश मंथन, 20 सितंबर 2014)