मोदी के कौशल की पहली परीक्षा!

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कमर वहीद नकवी , वरिष्ठ पत्रकार 

दिल्ली में नरेन्द्र मोदी के कौशल की पहली परीक्षा अब है! उनके राजनीतिक जीवन की शायद अब तक की सबसे बड़ी चुनौती उनके सामने है! और शायद पहली भी! इस मामले में मोदी वाकई भाग्यशाली रहे हैं। मुझे नहीं याद पड़ता कि इससे पहले कभी उनके सामने कोई चुनौती आयी भी हो!

गुजरात दंगों को लेकर वह संकट में जरूर घिरे थे। लेकिन वह कोई राजनीतिक चुनौती नहीं थी, जिससे उन्हें निपटना हो। तब पार्टी के ‘लौहपुरुष’ ने रक्षा कवच बन कर उन्हें बचा लिया था! उसके बाद से तो कभी उनके सामने कोई मामूली-सा संकट भी नहीं आया। गुजरात में वह जब तक रहे, चक्रवर्ती सम्राट की तरह रहे। अजेय! शत्रु तो दूर, उनकी मर्जी के बिना कहीं कोई पत्ता भी नहीं खड़क सकता था। तो फिर चुनौती भला कहाँ से आती? ऐसा कोई दरवाजा कहीं खुला छूटा ही नहीं था!

अहमदाबाद और दिल्ली का फर्क!

लोकसभा चुनाव भी उन्होंने आराम-से जीत लिया। जनता काँग्रेस से पक चुकी थी। मोदी के पास विकास के बड़े-बड़े आलीशान, मनोहारी प्रोजेक्ट थे, सपनों के परीलोक थे, जादुई चिरागों की मोहिनी दमक थी। जनता ने उन्हें चुन लिया। अब वह सारे विपक्ष को बौना और मरघिल्ला कर चुके थे। दूर-दूर तक फिर कोई चुनौती नहीं दिख रही थी! सब कुछ कंट्रोल में था! पूरी दुनिया ‘नसीबवाले’ का लोहा मान रही थी!

लेकिन अहमदाबाद और दिल्ली में बड़ा फ़र्क़ है, यह दिल्ली में अरविन्द केजरीवाल ने नौ महीने में ही बता दिया। उस हार को किसी ने चुनौती माना ही नहीं। लेकिन उसके नौ महीने बाद अब बिहार में मिली वैसी ही करारी हार को वही अनदेखा करेगा, जो या तो मूर्ख राजनीतिक हो या अहंकार में अन्धा!

तब शायद नीतीश-लालू के ‘अच्छे दिन’ नहीं आये होते!

मोदी अहंकारी तो हैं, लेकिन उनसे ऐसी मूर्खता की उम्मीद नहीं कि उन्हें राजनीति की जमीनी सच्चाइयाँ दिखना बन्द हो जायें! वैसे उन्हें शायद अब एहसास हो रहा हो कि दिल्ली में ‘रामजादे बनाम हरामजादे’ का नतीजा देख लेने के बाद अगर उन्होंने चाबुक कस दी होती तो शायद बिहार में नीतीश और लालू यादव के ऐसे ‘अच्छे दिन’ न आये होते!

मोदी हैं तो बड़े समझदार! कायदे से तो उन्हें तभी पढ़ लेना चाहिए था कि देश की जनता को ‘रामजादे’ जैसे मुहावरे नहीं चाहिए। अब यह पता नहीं कि वह पढ़ नहीं पाये या पढ़ कर भी कुछ कर नहीं पाये! क्योंकि तब से लगातार वह मुहावरे जारी हैं और हर तरफ़ से बार-बार कोंचे जाने के बावजूद मोदी कभी टस से मस नहीं हुए! तो कुछ तो बात जरूर होगी!

मोदी क्या घृणा-भोंपुओं को बन्द करा पायेंगे?

तो अब बिहार की हार (Bihar Election 2015) के बाद मोदी की सबसे पहली चुनौती यही है कि क्या वह घृणा-भोंपुओं को बन्द करा पायेंगे? संघ और ‘परिवार’ क्या अपने एजेंडे को ठंडे बस्ते में डालेगा? मुश्किल लगता है! क्यों? आगे देखेंगे।

नरेन्द्र मोदी की दूसरी बड़ी चुनौती है उनकी अपनी खुद की पैकेजिंग, ब्राँड मोदी, जिसने लोगों के मन में करिश्माई उम्मीदें पैदा कीं और इसीलिए लोगों को अब लगता है कि वे बुरी तरह ठगे गये हैं! मोदी अब कह रहे हैं कि विकास कोई फर्राटा दौड़ नहीं, बल्कि लम्बी मैराथन है। विकास धीरे-धीरे होगा, समय लगेगा। लेकिन सच यह है कि मोदी जी ने उम्मीद तो ‘फार्मूला वन’ जैसी रफ्तार वाले विकास की जगायी थी। विकास का चक्का तो अभी जाम है। अब मोदी कैसे इसको गति दे पाते हैं और कैसे लोगों को समझा पाते हैं कि वे बेवकूफ नहीं बनाये गये हैं, यह वाकई एक कठिन और गम्भीर चुनौती है। इसे तो उन्हें तुरन्त हाथ में लेना होगा!

अहंकार और अड़ियल जिद्दीपन

लेकिन यह होगा कैसे? बिहार के बाद विपक्ष का हौसला तो बढ़ चुका है। उसे साथ लिये बिना बहुत-से कानून अटके पड़े रहेंगे। नरेन्द्र मोदी को अपना अहंकार छोड़ना होगा। राहुल गाँधी उन्हें पहले ही यह नसीहत दे चुके हैं!

बात सिर्फ़ अहंकार की ही नहीं, जिद्दीपन की भी है। मोदी को समझना चाहिए कि कई छोटी-छोटी बातें मिल कर बहुत बड़ी हो जाती हैं। वैसे ही, जैसे बूँद-बूँद से सागर भरता है। तीस्ता सीतलवाड और ग्रीनपीस से किस तरह और क्यों खुन्दक निकाली जा रही है, यह जनता समझती है और वह यह भी समझती है कि यह वह ‘गवर्नेन्स’ नहीं है, जिसकी शान में मोदी रोज कसीदे पढ़ते हैं। लोगों को यह बात भी चुभती है जब न्यायपालिका को सरकारी घुट्टी पिलाये जाने की कोशिशें होती हैं। पहले तो कभी न्यायपालिका से ऐसी भाषा में संवाद नहीं किया गया! तो अगली चुनौती यह है कि क्या यह अड़ियल जिद की संस्कृति बदलेगी?

पार्टी में भी बढ़ सकती हैं चुनौतियाँ

राजनीतिक मोर्चे पर भी चुनौतियाँ कम नहीं हैं। अब तक अमित शाह के रूप में पार्टी पर नरेन्द्र मोदी की पूरी पकड़ थी। अमित शाह को धुरन्धर चुनाव-विजेता रणनीतिकार के तौर पर पेश किया गया था। शुरू के चुनाव उन्होंने जीते भी। लेकिन दिल्ली और बिहार के दो चुनाव लगातार बुरी तरह हारने के बाद उन पर सवाल उठेंगे ही। अगले साल बीजेपी के नये अध्यक्ष का चुनाव होना है। क्या अमित शाह को दूसरी बार यह कुर्सी मिलेगी या पार्टी को कोई नया अध्यक्ष मिलेगा, यह बड़ा सवाल है।

फिर अगले साल असम और पश्चिम बंगाल में चुनाव होने हैं। असम में तो काँग्रेस की लुँजपुँज हालत के कारण बीजेपी के लिए लड़ाई शायद उतनी कठिन न हो, लेकिन अब इसकी उम्मीद कम है कि पश्चिम बंगाल में बीजेपी कोई प्रभावी प्रदर्शन कर सकती है।

विकास का एजेंडा या संघ का एजेंडा?

दिक्कत यह है कि विकास की कोई रुपहली कहानी अभी है नहीं और शायद जल्दी हो भी न। विदेशी निवेशकों ने भी मोदी से जिस तेजी की उम्मीद लगायी थी, उसका कहीं अता-पता नहीं है। धार्मिक असहिष्णुता से लगातार कसैले हुए माहौल से बिदक कर कुछ निवेशक तो यहाँ से पैसा निकाल कर ही जा चुके हैं, जो आने को सोच रहे थे, वह फिलहाल हालात का जायजा ले रहे हैं। विपक्ष के असहयोग, खराब घरेलू हालात और दुनिया भर में डगमग अर्थव्यवस्था के कारण यहाँ विकास कैसे रफ्तार पकड़े, यह बड़ा सवाल है।

उधर संघ के अपने लक्ष्य हैं। उसकी अपनी टाइमलाइन है। अस्सी के दशक में उसने राम जन्मभूमि आन्दोलन के जरिये हिन्दुत्ववाद को देश की राजनीति के केन्द्र में पहुँचाया था। संघ के हिसाब से अब समय इसे और आगे ले जाने का है। संघ की रणनीति इस बार अलग है। कोई बड़ा आन्दोलन कर पूरी ताकत उसमें झोंकने और दुनिया का ध्यान उस ओर आकर्षित करने के बजाय संघ अब बहुत छोटे-छोटे मुद्दों से स्थानीय स्तरों पर हिन्दुत्व की चिनगारी धीरे-धीरे सुलगाये रखना चाहता है। पिछले अठारह महीनों में यही हुआ है। ‘लव जिहाद’ और घर-वापसी के बाद गोमांस का मुद्दा इसी रणनीति के तहत उछला है। सवाल यह है कि क्या संघ अब बिहार की हार से सबक लेकर अपने अभियान को रोक देगा? मुझे तो नहीं लगता!

(देश मंथन, 19 नवंबर 2015)

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