राकेश टिकैत का ढोल उनके घर में फट गया

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मुजफ्फरनगर किसान महापंचायत
(स्रोत : राकेश टिकैत का ट्वीट)

जिन राजनीतिक दलों ने इसमें बढ़-चढ़ कर पीछे से हिस्सा लिया, पैसा दिया, खाने-पीने और आने-जाने का इंतजाम कराया, उन्हें लग रहा है कि यह सारी मेहनत बेकार गयी। यह जो सारा इंतजाम किया गया था, इसका मकसद था उत्तर प्रदेश के चुनाव को प्रभावित करना।

राकेश टिकैत का ढोल पाँच सितंबर को मुजफ्फरनगर में फट गया। पाँच सितंबर की महापंचायत का ढोल महीने दो महीने से पीटा जा रहा था। उसकी देश भर से तैयारी हो रही थी। किसान संगठनों के अलावा भी जितने एनजीओ और राजनीतिक दलों के संगठन हैं, खास तौर से वामपंथी दलों के जो श्रम संगठन हैं, पंजाब में वाम दलों के किसान संगठन, उत्तर प्रदेश में राष्ट्रीय लोकदल, समाजवादी पार्टी और कांग्रेस के लोग – ये सभी इस महापंचायत में अपना योगदान कर रहे थे।
पर आये कितने लोग? अलग-अलग अनुमान और दावे हैं, जो 60 हजार से एक लाख तक के हैं। जिस मैदान में यह पंचायत हुई, उसकी कुल क्षमता 30-35 हजार की है। उससे बाहर भी लोग थे, सड़कों पर भी लोग थे, इसमें कोई शक नहीं है। पर वहाँ आये हुए लगभग आधे लोग पंजाब और हरियाणा के थे। चार सौ से छह सौ बसों के आने का अनुमान है। लक्जरी गाड़ियों की लंबी कतारें देखी गयीं। इटावा, मैनपुरी, आगरा, मथुरा जैसे आस-पास के जिलों से बसें आयीं। इटावा, मैनपुरी से बसें आने का मतलब है कि वे समाजवादी पार्टी की थीं। आगरा, मथुरा से जो बसें आयीं, उनमें ज्यादातर जयंत चौधरी (राष्ट्रीय लोकदल) के लोग आये। अनुमान यह है कि 12-15 हजार स्थानीय लोग थे।
यह बात लोगों को साफ समझ में आ रही थी कि इस महापंचायत में किसानों के लिए कुछ नहीं होना है, और कुछ नहीं हुआ। अपने पूरे भाषण में राकेश टिकैत एक बार भी केंद्र के तीन कृषि कानूनों के बारे में नहीं बोले, जिनके खिलाफ नौ महीने से यह आंदोलन कर रहे हैं। बीमा का निजीकरण क्यों हो रहा है, कश्मीर में 370 क्यों हटा, सफाई कर्मचारियों के मुद्दे – इन सब पर बोले। ज्यादातर उनके मुद्दे वही थे, जो राहुल गांधी समय-समय पर बोलते रहते हैं। यह पहली बार हुआ कि राकेश टिकैत भाषण लिख कर लाये थे।
जाहिर है कि इन मुद्दों से उनको कोई लेना-देना नहीं है और समझ भी नहीं है, इसलिए लिख कर लाये थे। लिख कर इसलिए लाये थे कि जो लोग निर्देशित कर रहे हैं, उनके इशारे पर बोलना था। पिछले चार-पांच महीनों से वे खास तौर पर मिशन यूपी बोलने लगे थे, पर वह इस पंचायत में हवा हो गया। अब मिशन देश हो गया, यूपी-उत्तराखंड की बात नहीं की! आप इससे भी अंदाजा लगा सकते हैं कि इस पंचायत का मकसद क्या था।
स्थानीय लोगों में, खास कर जाटों में इस बात पर भी बहुत प्रतिक्रिया हुई है कि उन्होंने मोहम्मद गुलाम जौला को मंच पर बुला लिया। पहले से घोषणा हो रही थी कि मंच पर केवल संयुक्त किसान मोर्चा के नेता और खाप पंचायतों के मुखिया होंगे। फिर अल्लाह-ओ-अकबर का नारा लगा। मुझे लगता है कि राकेश टिकैत का ढोल फोड़ने में इसकी सबसे बड़ी भूमिका होगी। 2013 के दंगों में जो लड़के जेल गये हैं, जिन पर झूठे मुकदमे हुए हैं, उन सबके खिलाफ अभियान चलाने वाला यही शख्स था। उसे मंच पर बुला कर राकेश टिकैत ने 2013 के दंगों के घाव को हरा कर दिया है।
इस पंचायत में जो संख्या स्थानीय लोगों की थी, उनमें भी ज्यादातर मुसलमान आये। उनसे कहा गया कि वे जाली वाली गोल टोपी लगाने के बजाय किसान यूनियन की टोपी लगा लें। ऐसे लोगों से जब पूछा गया कि वे पंचायत में क्यों आये हैं, तो उन्होंने कहा कि सीएए और एनआरसी के कानूनों का विरोध करने आये हैं। इससे आप अंदाजा लगा सकते हैं कि वहाँ किसानों की बात करने वाला कोई नहीं था।
इस पंचायत में बस एक फैसला हुआ कि 27 सितंबर को भारत बंद का आयोजन किया जायेगा। इस पूरे घटनाक्रम से सबसे ज्यादा नाराज पंजाब और हरियाणा से आये किसान संगठनों के नेता थे। उन्होंने कहा कि हमें एक तरह से धोखा दिया गया, हमें यह कह कर बुलाया गया था कि यहाँ किसानों के बारे में कई बड़े फैसले होंगे। लेकिन उनमें से एक भी फैसला नहीं हुआ।
दरअसल इस समय पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जयंत चौधरी (अजीत सिंह के बेटे) को अपने परिवार की खोयी प्रतिष्ठा स्थापित करनी है। टिकैत परिवार को लग रहा है कि यही समय है जब चौधरी चरण सिंह का परिवार सबसे कमजोर है और इस समय टिकैत परिवार का वर्चस्व राजनीतिक और सामाजिक रूप से स्थापित किया जाये। उन्हें लग रहा है कि अभी जयंत चौधरी पर दबाव डाला तो आरएलडी और सपा के संभावित गठबंधन में हमें भी सीटें मिल सकती हैं। हालाँकि राकेश टिकैत दो बार चुनावों में कोशिश कर चुके हैं। आखिरी कोशिश लोकसभा चुनाव में की थी, जिसमें साढ़े नौ हजार वोट मिले थे।
अब यह बात जयंत चौधरी के लोगों को भी समझ में आ रही है कि इस पूरी महापंचायत से उन्हें कुछ मिला नहीं। सपा और कांग्रेस को भी नहीं मिला। जिन राजनीतिक दलों ने इसमें बढ़-चढ़ कर पीछे से हिस्सा लिया, पैसा दिया, खाने-पीने और आने-जाने का इंतजाम कराया, उन्हें लग रहा है कि यह सारी मेहनत बेकार गयी। यह जो सारा इंतजाम किया गया था, इसका मकसद था उत्तर प्रदेश के चुनाव को प्रभावित करना।
उन्हें उम्मीद थी कि इसमें टिकैत राज्य सरकार को चुनौती देंगे। इन राजनीतिक दलों और पंजाब के संगठनों को भी यह उम्मीद थी कि जिस तरह से हमने दिल्ली को घेरा, उसी तरह राकेश टिकैत अब लखनऊ घेरने का ऐलान करेंगे। लेकिन टिकैत की यह हिम्मत नहीं हुई। चार महीने बाद होने वाले चुनाव के माहौल में सरकार के खिलाफ इतनी बड़ी गोलबंदी के बाद भी टिकैत को राज्य सरकार के खिलाफ कुछ बोलने की हिम्मत नहीं हुई। इस बात ने राकेश टिकैत का अभी तक बना हुआ आभामंडल ध्वस्त कर दिया है।
उन्होंने किसान संगठनों के अपने साथियों को निराश किया और सबको समझ में आ गया कि उनका खेल क्या है। किसान संगठनों ने मीडिया को ध्यान में रख कर टिकैत के चेहरे को आगे किया था। इससे टिकैत को लगने लगा कि मैं अब बड़ा नेता हो गया हूँ। उस बड़े नेता का ढोल पाँच सितंबर को मुजफ्फरनगर और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के लोगों ने फोड़ दिया।
(देश मंथन, 7 सितंबर 2021)

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