अभिरंजन कुमार, पत्रकार :
ईद के दिन हुए हमले के बाद बांग्लादेश की प्रधानमंत्री शेख हसीना ने एक बार फिर कहा है कि “जो लोग ईद के दौरान भी हमले कर रहे हैं, वे इस्लाम और मानवता के दुश्मन हैं।” ईद और रमजान का हवाला देते हुए जब वे आतंकी हमलों की निंदा करती हैं, तो उनका यह मतलब कतई नहीं होता कि बाकी दिनों में हमले जायज हैं, जैसा कि सोशल मीडिया पर मजाक चल रहा है।
प्रधानमंत्री हसीना का आशय निश्चित रूप से यही होगा कि अगर कोई इन पाक दिनों और महीनों में भी मासूमों की जानें लेने की सोच सकता है, तो यह तो नृशंसता, पशुता और कट्टरता का क्लाइमैक्स है। शेख हसीना ने पूछा है कि ‘‘नमाज के समय नमाज अता करने के बजाय आतंकवादियों ने लोगों को मार डाला। इस्लाम की रक्षा करने का यह कौन सा तरीका है?’’
इसका मतलब यह भी हुआ कि शेख हसीना ने बड़ी साफगोई से मान लिया है कि आज जिस आतंकवाद से समूची दुनिया सहमी हुई है, इस्लामिक कट्टरता से उसके संबंध को नकारा नहीं जा सकता। लेकिन ऐसा कबूल करने का साहस वे इसीलिए दिखा पा रही हैं, क्योंकि वे एक मुस्लिम-बहुल देश की प्रधानमंत्री और स्वयं मुस्लिम हैं, इसलिए उनपर कोई मुस्लिम-विरोधी होने का आरोप नहीं लगा सकता। लेकिन भारत जैसे धर्मनिरपेक्ष देश में आए दिन आतंकी हमलों एवं आतंकियों के समर्थन में कार्यक्रमों के बावजूद किसी प्रधानमंत्री की इतनी हिम्मत नहीं कि वे ऐसे दो टूक बयान दे लें।
यहाँ सत्ता-पक्ष और विपक्ष में बैठे हर जिम्मेदार नेता की यह मजबूरी है कि वह ऊपरी मन से ही सही, पर बार-बार दुहराए कि आतंकवाद का कोई धर्म नहीं होता। एक तो वोटों की मजबूरी। दूसरा, हर समझदार आदमी सांप्रदायिक सौहार्द्र और भाईचारे का आकांक्षी तो होता ही है। नागरिकों को यह न लगे कि उसे निशाना बनाया जा रहा है, इसलिए कई बार तुष्टीकरण ज़रूरी भी हो जाता है। लेकिन यह तुष्टीकरण, यह ढंकना-छिपाना, यह परदेदारी तभी तक जायज है, जब तक चीजें नियंत्रण में रहें। जब हालात गंभीर होने लगें, तब सच का सामना नहीं करने से समस्या और बढ़ सकती है।
आज आईसिस नाम का खतरा देश के सामने दस्तक दे रहा है। दिल दहला देने वाली कई आतंकी घटनाओं के इतिहास के आइने में इस नए खतरे से हमें निश्चित रूप से चिंतित होना चाहिए। आए दिन भारतीय नौजवानों के इससे जुड़ने की खबरें आ रही हैं। अभी केरल से भी 16 नौजवान लापता हैं, जिनके परिवार वालों ने ही उनके आइसिस से जुड़ने की आशंका जताई है। भारत के लिए यह अधिक परेशानी की बात इसलिए है, क्योंकि इसके पूरब और पश्चिम दोनों तरफ पड़ोसी मुल्क कट्टरपंथी ताकतों और आतंकवादियों के घोषित पनाहगाह हैं और उत्तर में बैठा चीन भी हमें इन हालात के बीच बुरी तरह जकड़ा हुआ देखना चाहता है।
दुनिया के दूसरे मुल्कों में फैले आतंकवाद की अन्य वजहें हो सकती हैं, पर भारत में आतंकवाद वस्तुतः मजहबी कट्टरता का ही एक बाय-प्रोडक्ट है। इसकी वजह से, पिछले 68-69 साल में भारतीय उपमहाद्वीप में व्यापक विनाश हुआ है। अफगानिस्तान, पाकिस्तान और बांग्लादेश के अल्पसंख्यकों ने इस कट्टरता की बड़ी कीमत चुकाई है। इसमें उनकी सभ्यता, संस्कृति और आबादी का विनाश शामिल है। भारत के कश्मीर में भी पंडितों की कई पीढ़ियाँ इसकी भेंट चढ़ गईं। कट्टरता का वायरस और भी खतरनाक इसलिए हो जाता है, क्योंकि यह एक समुदाय तक सीमित रह ही नहीं सकता। यह दूसरे समुदायों को भी चपेट में लेता है।
इसलिए जब आतंकवाद और कट्टरता के बारे में शेख हसीना की राय को मुस्लिम-विरोधी नहीं माना जाता, तो भारत में भी सच को स्वीकार किया जाना चाहिए, बस इतनी सावधानी और अनुरोध के साथ, कि यह मुस्लिम-विरोध की शक्ल न ले ले। आतंकवाद एक समस्या है, जो ज्यादातर मामलों में मुस्लिम नौजवानों को ही अपनी जद में ले रहा है। उन्हें इससे बचाना है, न कि किसी बेगुनाह मुस्लिम को फंसाना है।
अभी क्या हो रहा है कि जब आप कट्टरता के कारोबारियों के खिलाफ खुल कर बोलने से बचते हैं, तो उन्हें लगता है कि या तो उनका खेल समझा नहीं जा रहा या फिर उनके खिलाफ बोलने की किसी में हिम्मत नहीं है। इससे उनका मनोबल बढ़ता है। लेकिन जब आप उनके खिलाफ खुल कर बोलेंगे, तो उन्हें यह समझ आ जाएगा कि उनकी पोल खुल चुकी है और अब वे अधिक बर्दाश्त नहीं किये जाएंगे।
इसलिए बेहतर होगा कि इस कट्टरता के खिलाफ हमारे मुस्लिम भाई-बहन ही सामने आएं, उसी तरह जैसे बांग्लादेश में शेख हसीना आईं हैं। बाहर से उठने वाली आवाजों के सहारे वह लक्ष्य कभी हासिल नहीं हो सकता, जो अपेक्षित है। इस आवाज को उठाने का सबसे ज्यादा फायदा भी खुद हमारे मुस्लिम भाइयों-बहनों को ही होगा। इससे मुस्लिम नौजवान गलत राह पर जाने से बचेंगे और आम मुसलमान देश की मुख्यधारा में शामिल हो सकेंगे। फिर उन्हें संदेह की निगाह से नहीं देखा जाएगा। कोई उनपर कट्टरपंथी और आतंकवादी होने का तमगा नहीं लगा सकेगा। आधुनिक शिक्षा से जु़ड़ कर वे तरक्की की राह पर बढ़ चलेंगे।
धर्म के नाम पर मरना-मारना जंगलीपना है। इंसान ने धर्म को बनाया है, न कि धर्म ने इंसान को बनाया है। कोई एक किताब मुकम्मल नहीं हो सकती। कोई एक ईश्वरीय कल्पना संपूर्ण नहीं हो सकती। कोई एक धर्म त्रुटि-रहित नहीं हो सकता। कोई एक विचार दोष-मुक्त नहीं हो सकता। जन्नत और जहन्नुम इसी दुनिया में हैं। परियाँ और हूरें इसी दुनिया में हैं। सुख और समृद्धि इसी दुनिया में है। इसलिए कच्ची उम्र में किसी को मरने-मारने का विचार वाहियात है। लोग भरपूर जिएं और दूसरों को भी जीने दें।
अगर ईश्वर और अल्लाह को हम क्रिएटर मानते हैं, तो वह किसी को मारने से खुश हो ही नहीं सकता। हम एक खिलौना भी बनाते हैं, तो उसके टूटने से दिल टूट जाता है। फिर वह कौन-सा क्रिएटर है, जो अपनी ही संतानों का खून देख कर खुश हो जाता है? और अगर हो जाता है, तो वह राक्षस होगा, ईश्वर या अल्लाह तो हो ही नहीं सकता। इसलिए न हम स्वयं हैवान बनें, न अपने ईश्वर और अल्लाह का नाम बदनाम करें।
(देश मंथन 11 जुलाई 2016)