अभिरंजन कुमार, पत्रकार :
समाजवादी+कांग्रेस गठबंधन से यह तय हो गया है कि उत्तर प्रदेश में इस बार मतदाताओं के पास जाति और धर्म से अलग जा कर मतदान करने का विकल्प सीमित या समाप्त हो गया है। विकास का नारा सिर्फ नारा रहेगा, लेकिन मतदान करने के लिये जाति और धर्म ही सबसे बड़ा इशारा रहेगा।
अब वहाँ मुख्य रूप से राजनीति के तीन ध्रुव बन गये हैं-
1. समाजवादी+कांग्रेस ,
2. भारतीय जनता पार्टी
3. बहुजन समाज पार्टी
इसी तरह मतदाताओं के छह वर्ग बन गये हैं, जो अपनी-अपनी जातीय और धार्मिक प्रतिबद्धताओं के हिसाब से अपना पाला तय करेंगे।
1. यादव – 10%
2. गैर यादव पिछड़े – 30%
3. मुस्लिम – 20%
4. जाटव (मायावती की जाति) दलित – 10%
5. गैर-जाटव दलित – 10%
6. सवर्ण – 20%
राज्य में जब चतुष्कोणीय मुकाबला होता है, तो जिसे 30% वोट मिलते हैं, उसकी सरकार बन जाती है। लेकिन त्रिकोणीय मुकाबले की स्थिति में जिसे 35% वोट मिलेंगे, उसकी सरकार बनेगी।
सतही तौर पर मुस्लिम-यादव समीकरण में करीब 30% वोट हैं। ये दोनों ही वर्ग उत्तर प्रदेश में सबसे प्रतिबद्ध और प्रभावशाली वर्ग हैं। जैसे, यादवों की प्रतिबद्धता समाजवादी पार्टी के साथ अक्षुण्ण है, उसी तरह मुसलमानों की प्रतिबद्धता बीजेपी के खिलाफ अटूट है। अगर समाजवादी-कांग्रेस गठबंधन नहीं होता, तो बीजेपी के खिलाफ उनके वोट तीन जगह जाते, लेकिन अब उनके वोट दो ही जगह जाएंगे। यह स्पष्ट है कि जिन सीटों पर समाजवादी-कांग्रेस गठबंधन बीजेपी को हराने की हैसियत में होगा, वहाँ वे इस गठबंधन के साथ खड़े होंगे। और जिन सीटों पर बीएसपी में बीजेपी को हराने का माद्दा अधिक होगा, वहाँ वे बीएसपी के साथ जाएंगे। यानी यह तय है कि मुसलमानों के सारे वोट समाजवादी-कांग्रेस गठबंधन को नहीं जा रहे और बहुजन समाज पार्टी भी इसमें सेंध लगाने वाली है। इस प्रकार मुस्लिम-यादव समीकरण से समाजवादी-कांग्रेस गठबंधन को 30 में से 20% वोट ही मिलेंगे। बाकी के 15% वोटों का जुगाड़ वह कैसे करेगा? क्या गैर-यादव पिछड़े, गैर-जाटव दलित और सवर्ण वोटर मिलकर उसकी 15% की इस जरूरत को पूरा करेंगे?
मतदाताओं के सामने दूसरा विकल्प है भारतीय जनता पार्टी का। जैसे यादव समाजवादी पार्टी के साथ फेविकॉल की तरह चिपके हैं, उस तरह से तो नहीं, लेकिन बदली हुई राजनीतिक परिस्थितियों में सवर्णों के लिये भी बीजेपी के साथ जाना मजबूरी है। कांग्रेस समाजवादी के साथ चली गई, इसलिये उसके साथ वे जा नहीं सकते। मायावती ने बड़ी संख्या में ब्राह्मणों को टिकट दे कर उन्हें ललचाने का प्रयास किया है, लेकिन आरक्षण के इर्द-गिर्द राजनीति जब ध्रुवीकृत होगी, तो बीएसपी के साथ वे उन्हीं सीटों पर जाएंगे, जहाँ बीजेपी सीधी फाइट में नहीं होगी। यानी सवर्णों के 75-80% वोट बीजेपी को मिल सकते हैं। यानी बीजेपी के पास यूपी में 15% प्रतिबद्ध वोट हैं। बाकी के 20% वोट वह कहाँ से लायेगी? मुस्लिम उसे वोट देंगे नहीं और क्या आरक्षण विवाद के बाद गैर-यादव पिछड़ों और गैर-जाटव दलितों से इतने वोटों का इंतजाम हो पायेगा? वैसे इन जातियों में अब तक उसकी अच्छी पैठ रही है। लोकसभा चुनाव में भी इन मतदाताओं ने उसका भरपूर साथ दिया था।
बहुजन समाज पार्टी भी उत्तर प्रदेश की राजनीति की एक महत्वपूर्ण धुरी है। मायावती की जाति के दलित यानी जाटव पूरी तरह से बीएसपी के साथ हैं। गैर-जाटव दलितों से भी कम से कम 50% वोट उसे जरूर मिलेंगे। इसके अलावा मुसलमान वोटर उन सीटों पर उसका साथ देने से पीछे नहीं हटेंगे, जिन सीटों पर वह बीजेपी से सीधी फाइट में होगी। इनके अलावा ब्राह्मण वोटरों को भी उसने ललचाने का दाँव चला है, और ये वोटर भी उसे उन सीटों पर वोट दे सकते हैं, जहाँ बीजेपी सीधी फाइट में नहीं होगी। कुल मिलाकर, बहुजन समाज पार्टी के पास भी 25% तक प्रतिबद्ध/स्पष्ट वोट दिखायी दे रहे हैं। बाकी के 10% वोटों का जुगाड़ वह कैसे करेगी? क्या मुसलमानों, सवर्णों, गैर-जाटव दलितों और गैर-यादव पिछड़ों में वह थोड़ी-थोड़ी सेंधमारी और कर पायेगी?
जाहिर है कि मौजूदा समीकरणों के हिसाब से प्रतिबद्ध/स्पष्ट वोटों के मामले में बीएसपी 25% पर, सपा-कांग्रेस गठबंधन 20% पर और बीजेपी 15% पर खड़ी दिखायी दे रही है। ऐसे में बड़ा खेल बाकी बचे वे 40% मतदाता करेंगे, जो किसी की कठपुतली नही हैं, लेकिन इस गणित के कारण मुमकिन है कि त्रिशंकु विधानसभा की भी स्थिति बने और सरकार बनाने के लिये चुनाव बाद नये गठबंधनों की जरूरत पड़े। पर चुनाव बाद गठबंधन की उस जरूरत में भी बीजेपी और बीएसपी तो समाजवादी-कांग्रेस गठबंधन में जुड़ नहीं सकती। इसलिये इस गठबंधन के विस्तार की संभावना अब राष्ट्रीय लोक दल, अन्य छोटी पार्टियों और निर्दलीय तक ही सीमित हैं।
दूसरी तरफ, अगर बहुजन समाज पार्टी पूर्ण बहुमत से कुछ दूर रह जाये, तो उसे सरकार बनाने के लिये जरूरत अनुसार बीजेपी या कांग्रेस- दोनों पार्टियों का साथ मिल सकता है, लेकिन दोनों पार्टियों का साथ एक साथ नहीं मिल सकता। या तो उसे बीजेपी का समर्थन लेना होगा या कांग्रेस का। ऐसे में स्पष्ट है कि चुनाव बाद कांग्रेस का समर्थन लेना बहुजन समाज पार्टी के लिये तभी फलदायी होगी, जब वह बहुत थोड़े सीट से बहुमत से दूर रह जाएंगी। अगर अधिक सीटों से बहुमत से पीछे रहती हैं, तो उसे बीजेपी के साथ की जरूरत पड़ेगी। इसलिये बहुजन समाज पार्टी के लिये सही रणनीति यह हो सकती है कि चूंकि कांग्रेस समाजवादी पार्टी के साथ चुनाव-पूर्व गठबंधन बना चुकी है, इसलिये वह भी बीजेपी के साथ एक चुनाव-पूर्व स्ट्रैटेजिक हिडेन एलायंस कायम करे।
वैसे भी, बीएसपी और बीजेपी के मतदाता जानते हैं कि इन दोनों पार्टियों को कभी भी एक-दूसरे के साथ की जरूरत पड़ सकती है और ना-ना करते इन दोनों के बीच इकरार और प्यार भी हो ही जाता है। इसलिये इन दोनों के बीच चुनाव-पूर्व गठबंधन न होते हुये भी एक ऑटोमेटिक हिडेन एलायंस तो काम करेगा ही। यानी जिन सीटों पर बीएसपी कमजोर होगी, उन सीटों पर उसके गैर-मुसलिम मतदाता भारतीय जनता पार्टी को वोट करेंगे और जिन सीटों पर भारतीय जनता पार्टी कमजोर होगी, उन सीटों पर उसके मतदाता बहुजन समाज पार्टी को वोट करेंगे। पर इस बात को दोहराना जरूरी है कि अगर इस ऑटोमेटिक हिडेन एलायंस को दोनों पार्टियां स्ट्रैटेजिक हिडेन एलायंस की शक्ल दे सकें, तो समाजवादी पार्टी-कांग्रेस गठबंधन की पराजय सुनिश्चित हो सकती है।
लेकिन क्या, नोटबंदी के बाद की परिस्थितियों में मायावती बीजेपी के साथ स्ट्रैटेजिक हिडेन एलायंस बनाएंगी? इसकी संभावना सतही तौर पर तो कम लगती है, क्योंकि माना जा रहा है कि नोटबंदी से सबसे ज़्यादा नुकसान उन्हें ही हुआ है, लेकिन और नुकसान न हो और सत्ता वापस हाथ में आ जाये, इसके लिये सब कुछ होने के बावजूद बीजेपी के साथ रणनीतिक छिपा गठबंधन कायम करने में उन्हे अधिक हिचक नहीं होनी चाहिये। ऐसा करने से उन्हें अपने दुश्मन नंबर वन समाजवादी पार्टी को धूल चटाने में मदद मिलेगी और त्रिशंकु विधानसभा की स्थिति में सत्ता में लौटने की संभावना भी प्रबल हो जायेगी। पर अगर वह ऐसा नहीं करती हैं, तो यह समाजवादी-कांग्रेस गठबंधन को मजबूत करने जैसा ही होगा, जो शायद वे न चाहें।
नोट- प्रतिशत में दिये गये सारे आंकड़े अनुमानित और करीबी हैं।
(देश मंथन, 23 जनवरी 2017)