मान-सम्मान की जंग से चुनावी जीत की ललक

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राजेश रपरिया :

भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह के चहेते उत्तर प्रदेश भाजपा के हाल तक रहे उपाध्यक्ष दयाशंकर सिंह की बसपा सुप्रीमो मायावती पर की गयी एक अभद्र टिप्पणी से विधानसभा चुनावों के तकरीबन 9 महीने पहले अनायास या सायास भूचाल आ गया है।

मायावती ने अपने ऊपर की गयी अभद्र टिप्पणी को दलितों के अपमान और अस्मिता से जोड़ दिया है। तो अब भाजपा ने मायावती के राज्यसभा में दिये गये वक्तव्य और फिर बसपा नेताओं के बयानों को सम्मान से जोड़ दिया है। दयाशंकर सिंह की अभद्र टिप्पणी से हुए राजनीतिक नुकसान की भरपायी करने के लिए भाजपा अब पूरी कोशिश कर रही है। मगर मान-सम्मान में बदल गयी इस जंग ने आगामी चुनावों पर राजनीतिक दलों की मौजूदा चुनावी रणनीति पर नये सिरे से सोचने को मजबूर कर दिया है।

20 जुलाई को तत्कालीन भाजपा के उपाध्यक्ष दयाशंकर सिंह ने मऊ में एक संवाददाता सम्मेलन में मायावती पर ऐसी अभद्र टिप्पणी कर दी जिससे भाजपा का शीर्ष नेतृत्व सकते में आ गया। दयाशंकर सिंह ने कह दिया कि “मायावती जी एक वेश्या से बदतर हो गयी हैं”। उन्होंने आरोप लगाया कि मायावती जी टिकटों की बिक्री कर रही हैं। मायावती जी किसी को 1 करोड़ रुपये में टिकट देती हैं, मगर 2 घंटे में कोई 2 करोड़ रुपये देने वाला मिलता है, तो वो उसको टिकट दे देती हैं। शाम को कोई 3 करोड़ रुपये देने वाला मिलता है तो वो टिकट काट कर उसे दे देती हैं।

मायावती को इस अभद्र टिप्पणी की भनक तृणमूल कांग्रेस के सांसद डेरेक-ओ-ब्रायन से मिली, जो गुजरात के ऊना में हुए दलित उत्पीड़न के खिलाफ विपक्षी दलों को एकजुट करने में लगे थे। बार-बार व्यवधान के कारण 20 जुलाई को राज्यसभा की कार्यवाही स्थगित हो रही थी। तकरीबन 2-2.30 बजे के दरमियान डेरेक की रिसर्च टीम ने दयाशंकर सिंह के इस बयान की वीडियोक्लिप उन्हें व्हाट्सअप पर भेजी। उन्होंने इस अभद्र टिप्पणी की जानकारी मायावती और उनके प्रमुख सलाहकार सतीश मिश्रा को दे दी। मायावती ने इसको भुनाने में कोई समय नहीं लगाया और बेहद आक्रामक अंदाज में राज्य सभा में उन्होंने कहा कि ऐसे लोगों के खिलाफ लगाम लगायी जानी चाहिए। मैंने आज तक अपने भाषण में किसी को अपशब्द नहीं कहे। उन्होंने मुझे नहीं, अपनी बहन और बेटी के बारे में बोला है। माफी माँगने से कुछ नहीं होगा। भाजपा का शीर्ष नेतृत्व उन्हें पार्टी से निकाले। बीजेपी नेता संज्ञान लें और कार्रवाई करें, वर्ना अगर लोग सड़कों पर उतरे तो मेरी जिम्मेदारी नहीं होगी। गौरतलब है मायावती के इस वक्तव्य से पहले ही वित्त मंत्री अरुण जेटली इस अभद्र बयान की निंदा कर चुके थे।

क्यों हुए आनन-फानन में दयाशंकर बर्खास्त?

भाजपा के शीर्ष नेतृत्व ने दयाशंकर सिंह को पार्टी से निष्कासित करने में जो तत्परता दिखायी वह अभूतपूर्व है। यद्यपि अभद्र भड़काऊ बयान या अपशब्दों का प्रयोग भाजपा के अनेक नेता, सांसद और मंत्री कर चुके हैं, मगर उन पर कभी कोई कार्रवाई नहीं हुई। बल्कि ऐसे लोगों की अहमियत पार्टी ने बढ़ायी ही है। इसकी फेहरिस्त लंबी है। संसद का सत्र शुरू होने के तुरंत बाद ही गुजरात के ऊना में हुए दलित उत्पीड़न का हृदयविदारक वीडियो सामने आ गया था। 21 जुलाई को इस मुद्दे पर लंबी बहस तय हो चुकी थी। ऊना के इस वीडियो से बरबस ही मीडिया और संसद का ध्यान इस पर केंद्रित हो गया। पर 20 जुलाई को ही दयाशंकर सिंह के दलित विरोधी अभद्र बयान से सरकार को ही नहीं, बल्कि भाजपा और आरएसएस को यह अहसास हो गया था कि इससे दलितों को रिझाने और ललचाने के प्रयासों पर पानी फिर सकता है।

उत्तर प्रदेश में अति-पिछड़े और दलित बसपा के मजबूत वोट बैंक हैं। इस आधार में सेंध लगाने की जुगत अमित शाह एक अरसे से कर रहे हैं, जो उनकी चुनी रणनीति का प्रमुख हिस्सा है। भाजपा को लगता है कि 2002 के बाद उत्तर प्रदेश में विधानसभा जीतने का यह सबसे माफिक वक्त है। 2014 के लोकसभा के चुनावों में 80 में से 73 लोकसभा सीटों पर भाजपा को ऐतिहासिक जीत मिली थी, जिसकी कल्पना खुद भाजपा को नहीं थी। इस चुनाव में भाजपा को अपने परंपरागत वोटों के अलावा पिछड़े, अति-पिछड़े और दलित वोट भी भारी मात्रा में मिले। नि:संदेह इस चुनाव से उत्तर प्रदेश में भाजपा का आधार वोट बैंक बढ़ा है, जिसे वह किसी कीमत पर खोना नहीं चाहती है। मोदी सरकार ने दलित कल्याण के लिए अनेक योजनाएँ चलायी हैं। इनमें जन-धन योजना, स्टैंड-अप इंडिया और मुद्रा योजना प्रमुख हैं। भाजपा के शीर्ष नेतृत्व को लगा कि दयाशंकर के इस बयान से राजनीतिक नुकसान के साथ ही दलित विकास से मिली उपलब्धियाँ भी धराशायी हो सकती हैं। इसलिए दयाशंकर सिंह को बर्खास्त करने में भाजपा नेतृत्व ने कोई देरी नहीं की। पर उससे पहले ही मायावती अपना तीर छोड़ चुकी थीं। दयाशंकर सिंह भाजपा नेतृत्व के कितने चहेते हैं, इसका अंदाजा लगाया जा सकता है। 1 मई को प्रधानमंत्री मोदी ने उज्ज्वला योजना की शुरुआत दयाशंकर के क्षेत्र से ही की थी। कोई भी चुनाव न जीतने के बाद भी अमित शाह ने उन्हें उत्तर प्रदेश भाजपा का उपाध्यक्ष बनाया, साथ ही प्रदेश कार्यकारिणी का सदस्य भी। दयाशंकर को आगे बढ़ाने के पीछे भाजपा की अंदरूनी राजनीति भी है। दयाशंकर सिंह भी ठाकुर हैं और गृहमंत्री राजनाथ सिंह के विरोधी खेमे के हैं। 2012 में उन्होंने राजनाथ के पुत्र पंकज सिंह को वहाँ सचिव बनाने के विरोध में सचिव पद छोड़ दिया था। दयाशंकर सिंह के इस अभद्र बयान से चाहे-अनचाहे मायावती को खोयी मजबूती वापस मिल गयी है। बसपा के बागी नेता स्वामी प्रसाद मौर्य और आरके चौधरी के बसपा छोड़ने से मायावती के वोट आधार में दरार आनी शुरू हो गयी थी। पर अब इस कांड ने इन नेताओं को दलित राजनीति में अप्रसांगिक बना दिया है।

संघ की मुहिम रंग क्यों नहीं लाती

आरएसएस ने 1990 से ही दलितों को अपने से जोड़ने की मुहिम तेज कर रखी है। अंबेडकर और मर्यादा पुरुष राम की फोटो को एक साथ विराजमान करने में संघ ने कोई संकोच नहीं किया। अभी भी यूपी में सामाजिक समरसता अभियान पर संघ ने पूरा जोर लगा रखा है। इस मुहिम में बजरंग दल भी बढ़-चढ़ कर हिस्सा ले रहा है। प्रसिद्ध समाजशास्त्री बद्री नारायण ने हाल ही में एक लेख में लिखा है कि सामाजिक समरसता अभियान दलित बस्तियों में जाकर उनके साथ भोजन भर करना ही नहीं है, बल्कि हिंदुस्तान की पवित्र नदियों और तीर्थस्थलों में दलितों के साथ नदी में स्नान और मंदिरों में उनको प्रवेश दिलाना शुरू कर दिया है। इस अभियान के साथ एक नया कार्यक्रम विचार-कुंभ भी जोड़ा गया है। इसके तहत गाँव-गाँव में दलितों और प्रतिष्ठित हिंदूवादी लोगों के बीच कार्यक्रम आयोजित किये जाते हैं। पिछले 3 महीनों से उत्तर प्रदेश की विभिन्न दलित बस्तियों, झुग्गियों और नगरों में “धम्म यात्रा” का आयोजन भी संघ परिवार के ऐसे ही प्रयासों का हिस्सा है। पर ताज्जुब की बात यह है कि संघ परिवार के भगीरथ प्रयासों के बाद भी न जाने क्यों दलित उस तरीके से संघ से नहीं जुड़ पा रहे है, जैसे पिछड़ों को जोड़ने में सफलता मिली है। जाहिर है कि संघ की बनावट और बुनावट में रची-बसी सवर्ण मानसिकता इन प्रयासों में आड़े आती है। दलित समाज में बढ़ती अंबेडकरवादी चेतना भी दलितों को सवर्णों के खिलाफ खड़ा कर देती है। 

दयाशंकर सिंह के अभद्र बयान के विरोध में लखनऊ में हुई बसपा समर्थकों की रैली में दयाशंकर की पत्नी और बेटी को लेकर जो अभद्र नारे लगे, उसने भाजपा को एक नया मुद्दा दे दिया है। अब भाजपा प्रदेश भर में बेटी के सम्मान की मुहिम के तले विरोध प्रदर्शन करेगी। अब मान-सम्मान की इस जंग को कौन कितना आगे ले जाता है, उत्तर प्रदेश के आगामी चुनावों में जीत का सेहरा उसी के हाथ लगेगा। अब यह तय है कि मायावती चुनाव के अंत तक इस मुद्दे को गरमाये रखेंगी।

(देश मंथन, 26 जुलाई 2016)

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