कर्मों की कमाई

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संजय सिन्हा, संपादक, आज तक :

जब हम छोटे बच्चे थे, तब दशहरा के मौके पर मोहल्ले में छोटा सा स्टेज बना कर नाटक किया करते थे। मोहल्ले के सारे लोग वहाँ जुट जाते और हम ‘रसगुल्ला-गुलाब जामुन’ वाला नाटक करते। करने को तो हम ‘कलुआ की माई वाला नाटक’ भी करते, पर मेरा पसंदीदा नाटक ‘रसगुल्ला-गुलाब जामुन’ हुआ करता था। 

इस नाटक में बस दो पात्र होते थे। उन दोनों के बीच के संवाद को हम दर्शकों की पसंद से बढ़ा-घटा देते। पर दो ही पात्रों के बीच किया जाने वाला ड्रामा बाकियों के लिए मनोरंजन के कुछ मिनट के रूप में होता, मेरे लिए जिन्दगी का फलसफा होता। 

मुझे पूरी उम्मीद है कि आपने भी ऐसे नाटक खेले होंगे। 

आज मुझे बचपन का वो नाटक बहुत याद आ रहा है। 

***

दो दोस्त आपस में तय करते हैं कि वो इस बार मेले में मिठाई का बिजनेस करेंगे। एक ने कहा कि वो रसगुल्ले मेले में बेचेगा, दूसरे ने कहा कि गुलाब जामुन बेचेगा। दोनों दोस्तों ने तय किया कि सौ रसगुल्ले और सौ गुलाब जामुन लेकर वो मेले में जाएँगे और एक-एक रुपये में एक रसगुल्ला और एक गुलाब जामुन बेचेंगे, तो दोनों के पास सौ-सौ रुपये हो जाएंगे। 

दोनों सौ रसगुल्ले, सौ गुलाब जामुन लेकर मेले में पहुँच गये। 

दोनों बहुत देर तक इंतजार करते रहे। जब बहुत देर तक कोई ग्राहक नहीं आया, तो गुलाब जामुन वाले ने रसगुल्ले वाले से कहा कि यार भूख लग रही है। ऐसा करो कि तुम अपना एक रसगुल्ला मुझे खाने को दे दो, पर क्योंकि हम बिजनेस कर रहे हैं, इसलिए मैं तुमसे मुफ्त में रसगुल्ला नहीं लूँगा। मेरे पास एक रुपये का एक सिक्का है, तुम उसे ले लो, इस तरह मैं तुमसे रसगुल्ला ख़रीद कर खा रहा हूँ। 

रसगुल्ले वाले ने उससे एक रुपये का सिक्का लिया और उसे एक रसगुल्ला दे दिया। इस तरह रसगुल्ले वाले का रसगुल्ला बिक गया। थोड़ी देर में सफेद रसगुल्ले वाले को भी भूख लगी। उसने गुलाब जामुन वाले को एक रुपये का सिक्का दिया और उससे एक गुलाब जामुन खरीद कर खा लिया। इस तरह उसने भी बिजनेस की लाज रखी और मुफ्त में गुलाब जामुन नहीं लिया। मतलब अब दोनों की एक-एक मिठाई बिक चुकी थी। दोनों दोस्त खुश थे। चलो कोई ग्राहक भले नहीं आया, पर उन्होंने कुछ तो बिजनेस किया ही। 

थोड़ी देर बाद गुलाब जामुन वाले ने रसगुल्ले वाले से एक और रसगुल्ला माँगा और उसे एक रुपये का सिक्का दे दिया। कुछ ही देर में फिर रसगुल्ले वाले ने भी उसी एक रुपये को गुलाब जामुन वाले को वापस करते हुए उससे एक और गुलाब जामुन खरीद कर खा लिया।

अब हमारी कहानी आगे बढ़ती। 

गुलाब जामुन वाला उसी एक रुपये से रसगुल्ला खरीदता और खा लेता। रसगुल्ले वाला उसी रुपये से गुलाब जामुन खरीदता और खा लेता। इस तरह शाम तक दोनों ने एक दूसरे सारी मिठाइयाँ खरीद कर खुद खा लीं। दोनों में से किसी ने भी उधार नहीं खाया, पूरे पैसे दिए पर दोनों ने देखा कि शाम को घर जाते हुए उनके सारे रसगुल्ले बिकने के बावजूद सिर्फ एक रुपये का कारोबार हुआ था। 

मैं छोटा था, तो सोचता था कि सचमुच बिके तो सौ-सौ रसगुल्ले। फिर बाकी के पैसे कहाँ गये? 

***

मैं बहुत हिसाब लगाता। सोचता कि दोनों में से किसी ने बेइमानी नहीं की, दोनों ने भरपूर मेहनत भी की। दोनों में से किसी ने उधार नहीं लिया-दिया। पर किसी के हाथ कुछ नहीं आया। कैसे? 

इस तरह हमारा नाटक खत्म हो जाता। लोग तालियाँ बजाते, पर मैं मन में बहुत सोचता कि इस नाटक में मजा चाहे जितना आया हो, बेचारे मिठाई बेचने वाले के पल्ले कुछ नहीं पड़ा। मतलब शाम को जब वो लौट कर घर गये, तो खाली हाथ। 

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आज ज्यादा नहीं लिखूँगा। आज सोचूँगा कि अगर जिन्दगी भी एक नाटक है, और हम नाटक में काम कर रहे हैं, तो क्या जब नाटक खत्म होगा, तो हम खाली हाथ घर लौट जाएँगे? क्या हम अपने साथ ऐसी कोई कमाई लेकर नहीं जाएँगे, जिस पर हमें फख्र हो? क्या बचपन में उस नाटक को देख कर हमारे मोहल्ले वाले जिस तरह हमारी एक्टिंग और नाटक के पात्रों की मूर्खता पर हँसते थे, उसी तरह हम सिर्फ हँसी के पात्र बन कर यहाँ से अपने-अपने घर लौट जाएँगे? 

वैसे कहने को तो मेरी कहानी के दोनों पात्र सारा दिन मेले में व्यस्त रहे। दोनों ने खूब बिजनेस भी किया। पर हाथ कुछ नहीं आया। 

सोचना है मुझे भी कि पूरी जिन्दगी मैं व्यस्त रहा। खूब काम भी किया। पर क्या कुछ मैंने ऐसा हासिल किया, जिसे अपनी कमाई कह कर साथ ले जा पाऊँगा अपने उस घर? या फिर यूँ ही रसगुल्ले और गुलाब जामुन खा कर खाली हाथ लौटना होगा?

मैं तो सोचूँगा ही। आप भी सोचिए। 

सोचिए कि वापसी पर हमारे पास क्या होगा? अगर कुछ नहीं होगा, तो हमारा पूरा बिजनेस व्यर्थ रहा। हम जो कर रहे थे, वो निरर्थक था। वो टाइम पास था। 

***

जिन्दगी रूपी मेले से घर वापसी के बाद अच्छा बिजनेस मैन वही होता है, जो अपने साथ कर्मों की कमाई लेकर लौटता है। मैंने सुना है कि वहाँ कर्मों की कमाई ही लेकर जा सकते है। बाकी कमाई यहीं मेले में छूट जाती है। 

हर मेले की मियाद होती है। मेला खत्म हो, उससे पहले अपने मन के कैलकुलेटर में जोड़-घटाव-गुणा-भाग कर लीजिएगा कि आपने इतने दिनों तक क्या-क्या कमाई की है? काम वही आएगा, और कुछ नहीं।       

(देश मंथन, 06 अक्तूबर 2015)

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