चाहत का असर

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संजय सिन्हा, संपादक, आज तक :

आज अजय देवगन और तब्बू से मुलाकात होगी। आज हम साथ लंच करेंगे। 

अजय देवगन से मेरा पुराना रिश्ता है। कई सालों से हम एक दूसरे से मिलते रहे हैं, एक दूसरे को जानते हैं। उन्हें तो इस बात का भी मलाल था कि पिछले साल जब हमने फेसबुक मिलन समारोह किया था, तो उन्हें उसमें क्यों नहीं बुलाया था। बाद में ‘रिश्ते’ किताब का विमोचन करने अजय खास तौर पर दिल्ली आये और कई घंटे हमारे साथ रहे। 

तब्बू से ये मेरी पहली मुलाकात है। 

आज से कई साल पहले अगर मुझे पता चलता कि तब्बू से मुझे मिलना है तो मेरा यकीन कीजिए, मैं सारी रात सोता नहीं। हालाँकि मेरी शादी हो चुकी थी, बेटा भी हो चुका था लेकिन एक ऐसा वक्त आया जब तब्बू मुझे बहुत अच्छी लगने लगी थीं। मैंने गुलजार की फिल्म ‘माचिस’ देखी और तब्बू मुझे भा गयीं। 

अब किसी लड़की के भा जाने का मतलब यह नहीं होता कि आदमी उससे शादी की ही योजना बना बैठे, लेकिन यह सच है कि जो भा जाता है, उससे आदमी मिलना चाहता है, बातें करना चाहता है। उसकी तस्वीर देखने का मन कर सकता है। 

मैं जानता हूँ कि यह सब लिख कर मैं कुल्हाड़ी पर अपना पाँव मारने जा रहा हूँ, क्योंकि मेरी पत्नी भी तो मेरी पोस्ट पढ़ेगी ही और संसार की कोई पत्नी यह नहीं सह सकती कि उसका पति किसी और लड़की के लिए ऐसा कह दे कि वो उसे ‘भा’ गयी थी। हालाँकि मेरी पत्नी यह भी जानती है कि तब्बू की मैं तारीफ करता रहा हूँ, लेकिन उससे मैं आजतक नहीं मिला, और यह भी कि अगर मैं उससे मिलना चाह ही लेता तो भला मेरे लिए कौन सी बड़ी बात थी। 

किसी का अच्छा लगना, किसी का बुरा लगना, किसी को देख कर दिल धड़कना, ये सब मनोविज्ञान की भाषा में आदमी के सामान्य गुण होते हैं। प्यार, नफरत, क्रोध, हंसना, रोना, जलन – ये सारे गुण जिनमें होते हैं, सामान्य लोग होते हैं। इस लिहाज से तब्बू का मुझे अच्छा लगना मेरे सामान्य गुण का हिस्सा है। 

तो, मैंने ‘माचिस’ देखी और तब्बू मुझे पसन्द आ गयी। 

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मुझे कई मौके मिले जब मैं तब्बू से मिल सकता था, लेकिन मैंने जानबूझ कर उन मौकों को गँवा दिया। 

हालाँकि यह पहला मौका नहीं था जब किसी फिल्मी सितारे से मुझे प्यार हुआ हो। डिंपल कपाडिया और जया भादुड़ी की कहानी तो मैं लिख ही चुका हूँ, असल में मुझे एक समय पर नरगिस भी बहुत भा गयी थीं। सोच कर हँसी आ सकती है, लेकिन जब मैंने मदर इंडिया देखी थी, तब मेरी उम्र दस साल रही होगी और उनके कंधे पर लटका वो हल वाला सीन मेरे सपने में न जाने कितनी बार आया होगा। पर नरगिस वाली कहानी ज्यादा नहीं चली। हालाँकि उनकी मौत की खबर पर मैंने अपने आँसू पोछे थे। नरगिस से प्यार तो हुआ था, लेकिन बहुत जल्दी मुझे उनमें अपनी माँ नजर आने लगी थी। 

माँ को भी कैंसर हुआ था, नरगिस को भी। 

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मुझे लगता है कि लड़के ठीक से अपने प्यार को परिभाषित नहीं कर पाते। जिस अधेड़ महिला से प्यार की बात कह रहा हूँ, उसी को माँ भी कह रहा हूँ। उम्र में डिंपल भी मुझसे बहुत बड़ी थीं, जया भादुड़ी भी बहुत बड़ी थीं। पर सिनेमा का असर इतना गहरा होता है कि आदमी को लगता है कि उस व्यक्ति से उसे प्यार हो गया है, दरअसल यह प्यार उसकी तस्वीर से होता है। तो अब मैं स्पष्ट कह सकता हूँ कि मुझे ‘विजयपथ’ की तब्बू से नहीं, ‘माचिस’ की तब्बू से प्यार हो गया था। इतना कि बाद में मैंने उनकी सारी फिल्में देखीं। 

‘माचिस’ में एक्टिंग के लिए उन्हें कोई अवार्ड भी मिला था और मुझे उसे कवर करने के लिए मुंबई जाने का प्रस्ताव मिला था। लेकिन पता नहीं क्यों मुझे लगा कि मैं तब्बू से कोई सवाल पूछ ही नहीं पाऊँगा। मैंने अपने एक साथी से अनुरोध किया कि तुम चले जाओ। 

मेरा साथी खुशी-खुशी चला गया। लौट कर मैंने उससे पूछा कि तब्बू कैसी लगी, तो उसने बताया कि बहुत पतली और बहुत लंबी है। 

मैंने उससे कहा कि मैं इंटरव्यू के बारे में पूछ रहा हूँ, तुम उसके शारीरिक गुणों को बता रहे हो। 

“लेकिन तुमने तो पूछा है कि तब्बू कैसी लगी? तुमने यह कहाँ पूछा कि इंटरव्यू कैसा रहा?”

मैं खुद ही अपने सवाल पर शर्मा गया। असल में मैं पूछना तो यही चाह रहा था कि तब्बू कैसी दिखती है। 

मेरा साथी बता रहा था कि तब्बू के बारे में उसने पढ़ा था कि वो ‘दब्बू’ है। लेकिन तब्बू दब्बू नहीं है, पर कम बोलती है। कुल मिला कर बाकी सिनेमा वालियों की तरह वो उछल-कूद करने वाली और अपनी ओर लोगों का ध्यान खींचने वाली हीरोइन नहीं है। मुझे तो लगता है कि वो काम से काम रखने वाली लड़की है।”

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फिर मैं तब्बू से कभी नहीं मिला। 

मुझे हमेशा लगता था कि मैं मिलूँगा तो क्या बातें करूँगा। वो बोलती ही नहीं। अपने बारे में बहुत कम बात करती है। यह सब सुन कर मेरा मन बैठ गया था। 

मैं हमेशा चाहता था कि तब्बू से जब मिलूँ तो साथ में कोई ऐसा व्यक्ति हो, जिससे मेरी दोस्ती हो। जो मेरे और तब्बू के बीच की खामोशी को तोड़ सके। 

पर अजय के साथ तब्बू से मिलना एक दूर की कौड़ी थी। ‘विजयपथ’ के समय तो मेरी दोस्ती अजय से ही नहीं थी। जब अजय से दोस्ती हुई, तो तब्बू के साथ उनकी कोई फिल्म आने की दूर-दूर तक गुंजाइश नहीं नजर आती थी। मतलब तब्बू से मिलना संभव नहीं था।

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कृष्ण के एक भक्त ने उनसे मिलने की अरजी लगायी थी। कहा था कि प्रभु मुझसे जब मिलने आना, तो राधा को साथ लाना। ये ऐसी मुराद थी, जो कभी पूरी हो ही नहीं सकती थी। कृष्ण जब वृंदावन छोड़ गये थे, तभी राधा को भी भौतिक रूप में छोड़ गये थे। तभी तय हो चुका था कि कृष्ण न कभी वृंदावन जाएँगे और न राधा से दुबारा मिलेंगे। पर भक्त की गुहार थी। उसकी चाहत में कितना दम था, ये तो मुझे नहीं पता। लेकिन मेरी चाहत में दम था।

कोई वजह नहीं थी कि अजय देवगन की फिल्म में तब्बू को साथ लिया जाए। 1994 में अजय देवगन और तब्बू की फिल्म ‘विजयपथ’ आयी थी, लेकिन दूर-दूर तक ऐसी गुंजाइश नहीं थी कि दोनों दुबारा साथ आएँगे। 

इस फिल्म में भी अजय के साथ उनकी पत्नी की भूमिका श्रिया सरन ने निभाई है। लेकिन निर्माता निर्देशक ने साथ में तब्बू को भी रखा है। वो एक पुलिस अफसर की भूमिका में नजर आएँगी। 

अब आज जब दोनों मुझसे मिलने आ रहे हैं तो मैं तो यही मानता हूँ कि इतने सालों बाद दोनों का साथ सिर्फ इसलिए हुआ है, क्योंकि मैंने चाहा था कि अजय देवगन के साथ ‘वो’ मुझे मिलें, जिनसे मिलने की तमन्ना मैंने अपने मन में 19 साल से संजो रखी है। 

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यही होता है चाहतों का असर। अगर शिद्दत से आदमी कुछ चाह ही ले, तो उसकी चाहत पूरी होकर रहती है, जैसे मेरी आज होगी।

(देश मंथन 27 जुलाई 2015)

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