प्रकाश झा की फिल्म चक्रव्यूह की ‘जूही’ और राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार (विशेष उल्लेख) हासिल कर चुकी अभिनेत्री अंजलि पाटिल हाल में एक फिल्म की शूटिंग के लिए दिल्ली में थीं।
सुमित ऑजमंड शॉ के निर्देशन में बन रही इस फिल्म के एक बड़े हिस्से की शूटिंग दिल्ली-एनसीआर में हो रही है। इस शूटिंग के दौरान ही देश मंथन ने अंजलि पाटिल से बातचीत की।
– यह फिल्म किस तरह की है, इसमें क्या कहा जा रहा है?
इस फिल्म में तीन अलग-अलग किरदारों की कहानियाँ समानांतर चलती हैं और मैं सूत्रधार की तरह इन तीनों कहानियों को जोड़ती हूँ। मेरे किरदार का नाम इति है और मैं इन सभी को जोड़ती हूँ। कुछ किरदार इन कहानियों में यात्रा करते हैं। जब सुमित ऑडमंड शॉ ने मुझे इस फिल्म के बारे में बताया कि इसकी रूपरेखा बिल्कुल अलग है, अंग्रेजी फिल्म बैबल की तरह जो मेरी पसंदीदा फिल्म है, इसलिए मैं इसकी कहानी सुनते ही इससे जुड़ गयी। इस फिल्म की सारी कहानी एक रात की है, जिसकी शुरुआत इति से होती है और इति से ही इसका अंत होता है।
– इस फिल्म का विषय क्या है?
यह हर व्यक्ति की अपनी तलाश पर है। हम सबकी एक खोज रहती है जिंदगी की। कुछ लोगों के लिए प्यार-मोहब्बत उनकी खोज होती है, कुछ लोगों के लिए कुछ दूसरी चीजें होती हैं। यह जीवन की यात्रा के बारे में है, जो तलाश के रूप में है। इसकी खासियत यह है कि इसमें प्रेम कहानी भी है, एक अधूरी रह गयी प्रेम कहानी भी है, ड्रामा भी है, ऐक्शन भी है। इस तरह मुख्यधारा के सिनेमा की तमाम बातें इसमें हैं। इसमें एक संपूर्ण मनोरंजक सिनेमा की सारी बातें हैं और उनके साथ एक सार-तत्व है।
– यह फिल्म किस तरह के दर्शकों को ज्यादा पसंद आयेगी?
मुझे लगता है कि यह सभी तरह के दर्शकों को पसंद आयेगी, क्योंकि इसमें जो तीन कहानियाँ चल रही हैं उनमें हरेक वर्ग और उम्र के लिए कुछ-न-कुछ है। कुछ दर्शकों को प्रेम कहानी पसंद आयेगी, मेट्रो के कुछ दर्शकों को दूसरी कहानी पसंद आयेगी, कुछ दर्शकों को ऐक्शन वाला हिस्सा पसंद आयेगा।
– आप प्रकाश झा जैसे नामी निर्देशकों के साथ काम कर चुकी हैं और सुमित ऑजमंड शॉ की यह पहली फिल्म है। आपको हिचक नहीं हुई?
हिचक तो होती है, पर मैं सोचती हूँ कि आपकी यह हिचक काफी सारी चीजें दूर करती है। जैसे अभी सितंबर में मेरी एक और फिल्म आ रही है – मिसेज स्कूटर जो हमने अलीगढ़ में शूट की है। इसके अलावा होमी अदजानिया की फाइंडिंग फैनी में मेरी विशेष भूमिका भी है। मिसेज स्कूटर के वक्त भी मैं किसी को नहीं जानती थी। यहाँ भी मैं किसी को नहीं जानती थी। मगर जिस तरह से परिचय हुआ और मुझे जो स्क्रिप्ट भेजी गयी, वह काफी खूबसूरत और दमदार थी। इसलिए मैंने इस फिल्म से जुड़ने का फैसला किया। मैंने यही सोचा कि ज्यादा-से-ज्यादा क्या होगा, मुझे थोड़ी परेशानी होगी। पहली बार करने के चलते शायद बातें समझने में थोड़ी दिक्कत होगी। पर स्क्रिप्ट अच्छी थी, किरदार अच्छा था, इसलिए मैंने यह चुनौती स्वीकार की।
मेरी पहली फिल्म डेल्ही इन ए डे उस निर्देशक की भी पहली फिल्म थी। इस तरह अभी तक पहली बार निर्देशन कर रहे निर्देशकों के साथ मेरा अनुभव काफी अच्छा है। वहीं बड़े निर्देशकों के साथ काम करने का तो एक अलग ही मजा होता है। सभी चीजें तय रहती हैं। आप बस आते हैं, काम करते हैं और चले जाते हैं। उसमें एक शाहीपना भी है और उसके साथ एक अलग बंधन भी आता है, क्योंकि आप अपने ढंग से ज्यादा चीजें नहीं कर पाते हैं। बड़े प्रोडक्शन हाउस के जितने फायदे हैं, उतने नुकसान भी हैं। नये लोगों के साथ काम करते हुए पिछले काम का बोझ नहीं होता।
मेरे लिए सुमित का सेट इतना भाग्यशाली था कि मैं पहली बार 16 अप्रैल की रात को शूट करने वाली थी और उसी दिन दोपहर में राष्ट्रीय पुरस्कार के लिए मेरे नाम का ऐलान हुआ। यह कितना अच्छा भाग्यशाली संयोग था! मगर रात में शूट करते समय मैं पुरस्कार के बारे में भूल गयी थी और मजे-मजे में, एक बच्चे की तरह मैंने पूरी रात शूट किया। बड़े सेट पर आप बच्चा बन कर नहीं रह सकते हैं। यहाँ आप कहीं भी घूम लें, कुछ भी कर लें। इसमें अलग मजा है!
– अगर किरदार निभाने के संदर्भ में बात की जाये तो प्रकाश झा जैसे बड़े निर्देशक और एक नये निर्देशक के साथ काम करने में मूल रूप से क्या फर्क लगता है?
प्रकाश जी जैसे ज्यादा अनुभवी निर्देशक के साथ जब मैं शूटिंग करती थी तो वे या तो कह देते थे कि ठीक है, या अगर मैं पात्र की उनकी कल्पना से थोड़ी अलग हट जाती थी तो वे तुरंत बोलते थे कि ऐसे नहीं करेंगे, वापस आ जाओ। तो ठीक है, हम आ गये वापस (उनकी कल्पना के पास)। नये निर्देशकों के साथ आप कहीं भी दौड़ लगा सकते हैं। वहाँ ज्यादा आजादी मिलती है, जिसके बहुत फायदे भी हैं। आप चीजों का ज्यादा बोझ नहीं लेते हैं।
– लेकिन दोनों में से किस तरह के निर्देशक के साथ यह लगता है कि निर्देशक को कुछ और ज्यादा चाहिए?
मैं थोड़ा विस्तार से सोचने की कोशिश कर रही हूँ। अपने काम से निर्देशक को संतुष्ट करने का तनाव दोनों तरह के निर्देशकों के साथ एक जैसा ही होता है। मेरे लिए तो ऐसा ही होता है। लेकिन प्रकाश जी या उनके जैसे बड़े निर्देशकों के साथ में अलग-अलग संकेतों का, अलग-अलग चीजों का ध्यान रखना पड़ता है। आपको खुद समझना पड़ता है कि अगर उनकी प्रतिक्रिया ऐसी है तो शायद वे खुश हैं। प्रकाश जी कभी नहीं बोलते कि तुमने ये शॉट अच्छा किया है। हाँ चलो, आगे चलो। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि बस चलो, ठीक है। हमें लगता है कि ठीक है, पर वे खुश हैं। उन्हें जब अच्छा लगता है तो वे उसे जताते नहीं हैं। फिर जब आप एडिटिंग या डबिंग के समय सहायकों के साथ बैठें तो वे कहानियाँ बतायेंगे। आपसे एडिटर बोलेगा कि कितना अच्छा शॉट है!
(देश मंथन, 23 अगस्त 2014)