संजय सिन्हा, संपादक, आजतक :
कल रात मुझे एक लड़की ने फोन किया और रोने लगी। मैं बहुत देर तक समझ नहीं पाया कि आखिर माजरा क्या है। मैं चुपचाप उस तरफ से रोने की आवाज सुनता रहा, फिर जब वो जरा शांत हुई, तो मैंने पूछा कि आप कौन हैं और क्यों रो रही हैं?
उसने पूछा, “आपने मुझे पहचाना नहीं?”
“नहीं।”
“ओह! कल ही तो आपसे बात हुई थी। आपने कहा था कि जब भी कोई मुश्किल हो, मुझे बताना।”
मैं बात करते हुए मन ही मन आवाज को पहचाने की कोशिश भी कर रहा था। मुझे आवाज़ थोड़ी पहचानी-पहचानी सी लग तो रही थी, पर एकदम से कुछ नहीं याद आ रहा था। पर जैसे ही उसने कहा कि कल ही तो आपने कहा था…
मुझे याद आ गया कि मैं पत्रकारिता के एक इंस्टीट्यूट में कुछ बच्चों के लिए एक विशेष क्लास लेने गया था। मुझे उन्हें पढ़ाना था कि स्क्रिप्ट कैसे लिखें।
स्क्रिप्ट लिखने की क्लास पढ़ाते-पढ़ाते मैं उन्हें ये पढ़ाने लगा था कि एक अच्छा पत्रकार बनने के लिए एक बेहतर इंसान बनना ज्यादा जरूरी है। मैं उन्हें ये पढ़ाने लगा कि पत्रकारिता सिर्फ नौकरी नहीं, कहीं न कहीं मन में एक मिशन भाव का होना भी जरूरी है। अगर आपको सिर्फ पैसे कमाने हों, एक सुरक्षित जिन्दगी चाहिए, तो फिर कोई और नौकरी करनी चाहिए। पर पत्रकारिता में आने के लिए बेहतर इंसान बनने की कोशिश जरूर करें, क्योंकि आप जो कहेंगे, आप जो लिखेंगे, उसका असर जाने-अनजाने दूर-दूर तक होगा। मैं उन्हें बता रहा था कि ये एक नोबल काम है। इस पेशे में आदमी को आधुनिक और वैज्ञानिक ढंग से चीजों को देखना और समझना चाहिए।
अपने पढ़ाने की इसी कड़ी में मैं उन विद्यार्थियों को अपना फोन नंबर दे आया था और बोल आया था कि अगर मैं कभी आपके काम आ सका तो मुझे बहुत खुशी होगी।
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“सर, अब तो आपने पहचान लिया न?”
“हाँ, बिल्कुल। बोलो क्या तकलीफ है? और मैं क्या मदद कर सकता हूँ?”
“सर, आपके चैनल पर फलाँ ज्योतिषि का शो आता है, मुझे उनका नंबर चाहिए।”
“ज्योतिषि का नंबर? उनसे तुम्हारा क्या काम?”
“सर, मुझे उनके कुछ पूछना है। अपने परिवार के बारे में पूछना है। मैं बहुत मुश्किल दौर से गुजर रही हूँ। मेरी भाभी मेरी माँ को बहुत परेशान करती है। मुझे लगता है कि वो उन पर कुछ जादू-टोना भी करती है। सर, मेरे पिता इस संसार में नहीं हैं। भैया पूरी तरह भाभी की गिरफ्त में हैं। सर, मुझे चिंता है कि मेरी माँ का क्या होगा? अगर आप फलाँ ज्योतिष का नंबर मुझे दे दें, तो मैं उनसे अपने परिवार के इस संकट का कुछ उपाय पूछूँगी।”
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वो बोलती जा रही थी, मैं चुप था।
मुझे याद आ रहा था कि बहुत साल पहले टीवी पर अजब-गजब खबरों का दौर आया था। हम लोगों ने भी ऐसी बहुत सी खबरें दिखलायी थीं। कभी कोई जादूगर आता, कभी कोई नाक से गाने वाला आता और कभी कोई नाक से खाने वाला। कोई बालों से ट्रक खींचता, तो कोई ट्यूब लाइट ही खा जाता। मेरे एक साथी को ऐसी खबरों में बहुत आनंद आता था। वो इन खबरों को इंटरनेट पर ढूँढता और फिर उन्हें अजब-गजब के नाम से दिखलाता।
एक दिन वो दफ्तर नहीं आया। मैंने उसे फोन किया तो वो रोने लगा। रोते-रोते उसने बतलाया था कि कल जब वो दफ्तर में बल्ब खाने वाला शो दिखला रहा था, उसी समय उसके सात साल के बेटे ने एक पुराने बल्ब को तोड़ कर उसकी तीन साल की बेटी को खाने के लिए दिया। उसने कहा कि देखो टीवी पर आ रहा है।
वो तो समय रहते उन बच्चों पर निगाह पड़ गयी और वो नहीं हुआ, जिसके बारे में सोच कर रूह काँप जाती है।
पर उसके बाद उसे लगने लगा कि हम टीवी पर जो दिखलाते हैं, उसका असर दूर-दूर तक होता है। उसके बाद ऐसी खबरों से उसने तौबा कर ली।
मैं उसे अक्सर मना करता था ऐसी खबरें दिखलाने से। पर जब तक अपने पर नहीं आती है, आदमी समझता नहीं।
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कल वो छोटी-सी लड़की, जिसे अभी अपनी पढ़ाई पूरी करनी है, अपना करियर शुरू करना है, वो मुझसे पूछ रही थी कि क्या फलाँ ज्योतिषि का नंबर मिल जाएगा?
इसका मतलब ये हुआ कि जिन भविष्वाणियों को हम टीवी पर यूँ ही टीआरपी के चक्कर में और मनोरंजन के चक्कर में दिखलाते हैं, उनका असर इस नयी पीढ़ी पर भी पड़ रहा है।
तो क्या ऐसा भी होता होगा कि घरेलू समस्याओं को सुलझाने के लिए लोग इन चक्करों में फँसते होंगे?
जरूर होता होगा।
अब तक तो मैं दूसरों को नसीहत ही देता आया हूँ कि ऐसा करना चाहिए, वैसा नहीं करना चाहिए। पर कल के फोन के बाद मुझे लगने लगा है कि पहले मुझे सीखने की जरूरत है कि हमें टीवी पर क्या दिखलाना चाहिए, क्या नहीं दिखलाना चाहिए। पहले मैं सोचता था कि पुरानी पीढ़ी ही इन ज्योतिषियों की बातें सुनती होगी, और उसका समय कटता होगा।
नयी पीढ़ी को तो मुझे इतना ही बतलाना है कि रिश्ते मन के भाव से सुधरते हैं। प्रेम से सुधरते हैं।
फिलहाल उस एक फोन ने मुझे बहुत कुछ सोचने पर मजबूर कर दिया है। मैं कल रात से बहुत बार कुछ-कुछ सोचता रहा हूँ। मैं जो फैसला लूँगा, वो तो लूँगा ही, लेकिन फिलहाल मेरा दुख ये भी है कि आखिर सास-बहू में क्यों नहीं बन पाती है? क्यों उनके बीच अहँ की इतनी लड़ाई है? कुल जमा चार लोग घर में हैं, क्यों खुशी-खुशी साथ नहीं रह पा रहे।
जब-जब मैं इस तरह के दुख से गुजरता हूँ, मेरे हाथ थम जाते हैं। जब हाथ थम जाते हैं, तो लिखने में देर तो होगी ही।
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मेरी हैसियत इतनी नहीं है, लेकिन मेरे मन में अक्सर ये ख्याल आता है कि जो बहुएँ अपनी माँ को तंग करती हैं, उन माँओं को मैं अपने घर बुला लूँ।
मैं तो सुबह-सुबह ‘माँ’ बोल कर ही खुश हो लूँगा।
आप भी सुबह माँ को याद करके देखिए, किसी ज्योतिषि की जरूरत नहीं पड़ेगी। जिन्दगी सचमुच हसीन हो जाएगी।
(देश मंथन, 16 जनवरी 2016)