ऐ राजा बनारस!

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रवीश कुमार, वरिष्ठ टेलीविजन एंकर :

रोज देखा जाने वाला, कहा जाने वाला, सुना जाने वाला लिखा जाने वाला और इन सबसे ऊपर जीया जाने वाला शहर है। इसकी इतनी परिभाषाएँ और व्यंजनाएँ हैं कि यह शहर हर लफ्ज के साथ कुछ और हो जाता है।

लिखने वाले की गिरफ्त से निकल जाता है। मैं बनारस के खिलाफ किसी बनारस को खोजने निकला था मगर हर जगह मिला उसी बनारस से जिसे मीडिया ने एक टूरिस्ट गाइड की तरह एकरेखीय वृतांत में बदल दिया था। वृतांतों का रस है बनारस। 

दरअसल बनारस कोई शहर ही नहीं है। यह कभी था न कभी है और कभी रहेगा। शहर होता तो किसी पेरिस जैसा होता किसी लुधियाना सा होता या किसी दिल्ली सा। सड़कों दीवारों से बनारस नहीं है। बनारस है बनारस के मानस से। आचरण, विचरण और धारण से। जो भी मिला बनारस को धारण किये मिला। बनारसीपन। इसके बिना तो कोई बाबा विश्वनाथ को देख सकता है न बनारस को। यह बनारस का होकर बनारस को जीने का शहर है। यह न मेरा है न तेरा है न उसका है जो बनारस का है।

बहुत कम हुआ जब लौट आने के बाद किसी शहर की याद आयी। किसी शहर में जागने सा अहसास हुआ। सोचता रहा कि क्या लिखूँ बनारस पर। क्या नहीं लिखा जा चुका है। इस शहर के लोग किसी दास्तान की तरह मिलते हैं। किस्सों से इतने भरे हैं कि सुनाते सुनाते खुद किसी किस्से में बदल जाते हैं। मिलने और बोलने का ऐसा रोमांच कहीं और महसूस नहीं हुआ। जो भी मिला उसे जितना मिलना चाहिए उससे ज्यादा मिला। कम तो कोई मिला ही नहीं। कम तो हम दिल्ली वाले मिले। सोचते रह गये कि कितना मिले और सामने वाला पूरा मिलकर चला गया। बनारस को खोजना नहीं पड़ता है। कहीं भी मिल जाता है।

हम बाबा ठंठई की दुकान पर थे। उनकी शान में कसीदे पढ़ते रहे कि हर साल आपकी ठंडई एक मित्र से बुजुर्ग के हवाले से दिल्ली पहुँच जाती है। पिछले कई सालों से आपकी ठंडई पी रहा हूँ। कोई चालीस पचास साल से ठंडई बना रहे जनाब ने ऊपर देखा तक नहीं कि कौन है क्या बोल रहा है। बस किसी साधना की तरह ठंडई बनाने में लगे रहे। साधना जरूरी है। चाहे आप देश चलायें या ठंडई बनाये। मगर वही खड़ा किसी शख्स ने किसी को भेजकर पान मँगवा दिया। लस्सी की दुकान का पता बता दिया। कार से गुजरते वक्त पान और चाय की दुकानों पर लोगों को जमा देखा। रूककर खाकर बतियाते देखा। लगा कि इस शहर में लोग दफ्तर दुकान जाने के अलावा भी घर से निकलते हैं। सुबह सुबह चाय पीने गया था। बस किसी ने किसी को कह दिया कि बाइक से इन्हें पार्क तक छोड़ आओ। बिना देखे बिना जाने उसने चाय छोड़ी और पार्क तक छोड़ आया। जिन्हें भी जीवन में बात करने की समस्या है। लगता है कि वो तर्क नहीं कर पाते। वो बनारस चले जायें। बोलने लग जायेंगे। खासकर टीवी के ये बौराये और झुँझलाये एंकरों को हर साल बनारस जाना चाहिए।

रेडियो मिर्ची के दफ्तर गया था। नौजवान जौकियों के संसार में। बात करने की ऐसी शैली कि मेरा बस चले तो हर जौकी बनारस की सड़कों से उठा लाऊँ। सबके पास कुछ न कुछ अतिरिक्त था मुझे देने के लिए। आज के इस दौर में उनके पास बहुत सी गर्मजोशियाँ बची हुई है। जल्दी समझ गया कि यह टीवी में दिखने के कारण नहीं है। जो प्यार बह रहा है वो बनारस के कारण है । मिर्ची के इन मिठ्ठुओं से मेरा भी दिल लग गया। तोते की तरह बोलता था वो मोटू! तो शांत सँभल कर अमान और रह रहकर सोनी। एक से एक किस्सागो। बात बात में मैं विशाल के साथ लाइव हो गया। उनके कुछ और दोस्तों से मुलाकात हुई। हर मुलाकात में मैं बस इस शहर के लोगों में मिलने की फितरत देख रहा था। कितना मिलते हैं भाई। भाइयों ने मेरी शान में दफ्तर के भीतर चाट का एक स्टाल ही लगा दिया। टमाटर की चाट। वाह। दिल्ली वालों को पता चल गया तो हर नुक्कड़ और बारात में बेचकर खटारा बना देंगे। 

मुझे पता है कि जितना मिल जाता है उतना लायक नहीं हूँ। वैसे भी क्या करना है हिसाब कर। टीवी के फरेब के नाम पर प्यार ही तो मिल रहा है। मैं माया में यकीन करता हूँ। सब माया है। माया मिलाती है, माया रूलाती है और माया हंसाती है। घड़ी की दुकान में स्ट्रैप बदलवाने गया था। जनाब ने कोई स्पेशल जूस मँगवा दी। कहा कि पीते जाइये। जोर देकर कहा कि मैं चाहता हूँ कि आप पीयें। ये बनारस का असली है। मैंने तो कहा भी नहीं था पर वो यह जूस पिलाकर काफी खुश दिखे। इतने खुश कि लाज के मारे शुक्रिया कहते न बना।

वो पता नहीं कौन लड़का था। लंका चौक पर जहाँ बीजेपी का धरना चल रहा था। भयानक गर्मी थी। वो पहले जूस लाया फिर पार्कर पेन खरीद लाया खुद ही पैकेट से निकाल कर जेब में रख गया। किसी चैनल के फ्रेम में देखकर वो महिला अपने पति और बेटी के साथ दौड़ी चली आयी। हांफ रही थी। वो घर ले जाकर खाना खिलाना चाहती थी। काश मैं चला गया होता। और वो कौन था जो मिर्ची दफ्तर के बाहर हम सबकी चाय के पैसे देकर चला गया। आठ दस लोगों की चाय के पैसे। मैं सोचता रह गया कि हमने कब किसी अजनबी के लिए ऐसा किया है। उफ्फ! 

अजीब शहर है कोई खाली हाथ मिलता ही नहीं है। ऐसा नहीं कि मैं टीवी वाला हूँ इसलिए लोग मिल रहे थे। मुझसे मिलने के बाद वहाँ मौजूद किसी से वैसे ही मिल रहे थे। हम दिल्ली वाले मिलना भूल गये हैं। काम से तो मिलते हैं मगर मिलने के लिए नहीं मिलते हैं। रोज दफ्तर से लौटते वक्त खाली सा लगता हूँ। अब तो मेरा एकांत ही मेरी भीड़ है। मैं भी तो कहीं नहीं जाता। जाने कब से अकेला रहना अच्छा लग गया। गनीमत है कि फेसबुक ट्वीटर है। जो भी अकेले में बड़बड़ाता हूँ लिख देता हूँ। अकेले बैठे बैठाए दुनिया से मिल आता हूँ। काम और शहर के अनुशासन की कीमत पर मुलाकात का बंद होना ठीक नहीं। हम मिलते तो यहीं बनारस बना देते। बनारस एक दूसरे से मिलता है इसलिए बनारस है। दिल्ली के नाम में तो दिल है मगर दिल है कहाँ। दिल्लगी है कहाँ और कहाँ है दीवानगी। बनारस में है। वहाँ के लोगों में है। आप सबने मुझे बेहतरीन यादें दी हैं। मैं बनारस को याद कर रहा हूँ।

(देश मंथन, 14 मई 2014)

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