सिर्फ घाट नहीं है बनारस

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रवीश कुमार, वरिष्ठ टेलीविजन एंकर :

इस शहर को देखने के लिए लगता है एक ही चश्मा बना है। इस चश्मे से बनारस के घाट दिखते हैं, प्रदूषित और मरनासन्न गंगा जी दिखती है।

बुनकरों और जुलाहों के बीच फर्क करने वाले सवालों के साथ पावरलुम दिखते हैं और कुछ लोग जो पान खाते चाय पीते भी दिखते हैं जो खुद को जितना बनारसी होने का दावा करते हैं उससे कहीं ज्यादा उस एक चश्मे से देखने वाला पत्रकार उनके बनारसीपन को उभारता है । 

बनारस हमेशा से तीर्थयात्रियों और पर्यटकों की निगाह से देखा जाने वाला शहर रहा है। दुनिया के किसी भी धार्मिक या पर्यटन महत्व वाले शहर के साथ ऐसा होता है। देखने वाला उस शहर की अन्य वास्तविकताओं को छोड़ उन्हीं प्रतीकों की अराधना में डूब जाता है जिनका मिनियेचर गली-गली में बिक रहा होता है। पूरा पर्यटन तंत्र भी इन छवियों को एक कारोबार में बदल देता है। पोस्टकार्ड में छपी तस्वीरें सबके लिए प्रमाण बन जाती हैं। कोई इन तस्वीरों से पार जाकर उस शहर को नहीं देखता। साहित्य से लेकर रिपोर्टिंग तक में ये प्रतीक चेंपू टाइप के रूपक बन जाते हैं। आखिर किस शहर में समोसे कचौरी की फेमस दुकान नहीं होती। किस शहर में कोई प्रसिद्ध बर्फीवाला, लस्सीवाला और नान वाला नहीं होता। अमृतसर जाकर भी छवियों के इस बारंबार पुनरउत्पादन से ऊब पैदा हो गयी। नान और कुल्चे के अलावा भी तो कोई शहर होगा। 

किसी भी शहर में नदी या नहर के किनारे जाइये कुछ लोग डुबकी लगाते मिल जायेंगे। श्मशान घाट मिल जायेंगे। काशी इसलिए अलग है क्योंकि यह मोक्ष का मार्ग बताया गया है। इसका अपना सामाजिक धार्मिक इतिहास है। पर सारा काशी उन्हीं पोथी पतरों में बसता है ये तो नहीं हो सकता। जीवन के अंतिम समय में लोग मोक्ष प्राप्ति के लिए यहाँ आकर बसते रहे हैं। इस चाहत ने बनारस की कुछ कटु वास्तविकताओं को भी जन्म दिया है। विधवाओं की हालत और उनके किस्सों के बारे में आप जानते ही हैं।

चुनाव के संदर्भ में टीवी और अखबार ने इस शहर को श्रृंगार रस में बदल दिया है। पोस्टकार्ड पर छपने वाली उन्हीं चंद तस्वीरों को बार बार दिखाया जा रहा है। इनमें बनारस का नया विस्तार नहीं है। शहर और जीवन की विविधता नहीं है। ऐसा लगता है कि मीडिया वहाँ चुनाव कवर करने नहीं गया है। किसी धार्मिक उत्सव को कवर कर रहा है। मुद्दों और विचारधारा पर आस्था के प्रतीक हावी हैं। इस प्रक्रिया में आप उसी बनारस को जानते हैं जिसे पहले से जानते आये हैं। बनारस एक शहर के रूप में क्या चाहता है यह मुद्दा नहीं है। सारे कैमरे घाट पर चले जाते हैं। ऐसा नहीं है कि पूरा बनारस रोज़ घाट पर चला आता है। बनारस में ही कई लोग हैं जिन्हें घाट की तरफ गये महीनों हो गये होंगे। बनारसी सिर्फ घाट पर नहीं मिलते हैं। बनारस के उन गाँवों में रहने वाले बनारसी ही हैं जिनके पास कैमरे नहीं जाते। किसी को यह भी समझने का प्रयास करना चाहिए बनारस के गाँवों के लोग मीडिया और पर्यटन मंत्रालय की बनायी छवियों में अपनी छवि कैसे देखते हैं। बनारस  के जीवन में अतिरिक्त और विशिष्ठ मौज मस्ती देखने वाले पत्रकारों  को समझना चाहिए कि जीवन के प्रति मोह और त्याग, हताशा और आशा किसी और शहर में बनारस से कम नहीं है। बनारस है और रहेगा मगर बनारस का इतना रस मत निचोड़ों कि गन्ने की लुग्दी सूख जाये।

(देश मंथन, 25 अप्रैल 2014)

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