संपूर्णता मिलन में है

0
347

संजय सिन्हा, संपादक, आजतक :

उस ‘येलेना’ से मैं दुबारा नहीं मिल पाया, जिसकी मैंने चर्चा की थी। हालाँकि जब मैंने येलेना की कहानी आपको दुबारा सुनानी शुरू की थी, तब मैंने यही कहा था कि ताशकंद से लौटते हुए एयरपोर्ट पर नीली आँखों वाली जो लड़की मुझे मिली थी और जिसने मेरी मदद की थी, उसमें भी मुझे येलेना ही दिखी थी। चार दिन पहले मैंने येलेना की कहानी शुरू की थी और यह शुरुआत उसी मुलाकात के साथ हुई थी। 

***

आज मैं ‘देवघर’ और ‘तारापीठ’ की यात्रा की कहानी आपको नहीं सुना रहा, तो इसकी वजह इतनी सी है कि कहीं से भी आपको ‘येलेना’ की कहानी अधूरी न लगे। येलेना से मुलाकात होगी, तभी कहानी संपूर्ण होगी। बात शुरू हुई थी एयरपोर्ट पर नीली आँखों वाली लड़की से, आज कहानी वहीं जाकर रुकनी चाहिए। 

***

कहानी शुरू करने से पहले आपको बता दूँ कि ‘बांका’ की जया पांडे और मयंक मिंकू ने नाराजगी जताई है कि मैं उनके इतने करीब से चुपचाप क्यों निकल गया? उधर रुड़की में बैठी ममता सैनी रोज धमकी दे रहीं हैं कि वो मुझसे बात ही नहीं करेंगी, अगर मैंने उन्हें नहीं बताया कि मैं दिल्ली कब लौटूंगा। 

मैं क्या कहूँ? 

खुद को संचालित करने वाला नियंता मैं तो नहीं। मैं भी समय के काल खंड पर उकेरी गयी एक कहानी ही तो हूँ। सिंधू न सही, पर गंगा की उदात्त तरंगों पर बैठा मैं, संजय सिन्हा क्या कभी ये दावा कर सकता हूँ कि मेरा सब कुछ मेरे हाथ में है। 

नहीं। 

सच यही है कि हम सभी नियंता के हाथों की कठपुतली मात्र हैं। 

***

येलेना की कहानी मैं आज चाहूँ तो खत्म भी कर सकता हूँ, हालाँकि समय ही गवाह है कि जिस लड़की ने न्यूजीलैंड में गाड़ी से टकरा कर मेरी बाहों में दम तोड़ा था, वो भी येलेना ही थी। अमेरिकी राष्ट्रपति निक्सन की अधिकृत फोटोग्राफर, जो अमेरिका प्रवास में मुझे मिली थी, वो भी येलेना ही थी। और मास्को में जिस रूसी नायिका ल्युदमिला से मैं मिला, वो भी वही थी।

येलेना मुझे बार-बार मिली। पर हर बार नाम बदल कर। 

पहली बार जब मैंने येलेना की तस्वीर आपको दिखलाई थी, तो कई लोगों ने सलाह दी कि लाल ड्रेस वाली उस लड़की को मुझे ढूँढना चाहिए। मुझे उस लड़की की तलाश करनी चाहिए, जो लेनिग्राद में मिली थी और जिसकी साँसों की खुशबू मैंने महसूस की थी।

वैसे आप सच मानिए, जिस दिन येलेना चली गयी थी, उसके बाद मैंने उसे कभी तलाशने की कोशिश ही नहीं की। उसके साथ बिताए चंद रोज, उसके साथ ली एक तस्वीर और उसकी नसीहत को मैंने अपनी धरोहर मान कर कभी किसी से इस बारे में बात भी नहीं की। सिर्फ शादी के बाद मेरी पत्नी ने मेरे एलबम में उसकी तस्वीर देख कर उसका नाम पूछा था और मैंने कहा था कि इसका नाम ‘येलेना’ है। उसके आगे पत्नी ने कुछ पूछा नहीं, और मैंने बताया नहीं। 

***

उस दिन यासनाया पोल्याना से मॉस्को लौटने के बाद मेरे पास बहुत कम पैसे बचे थे। फिर भी पता नहीं क्यों मेरे दिल में ये बात साफ थी कि चाहे जैसे हो, मैं ताशकंद में लाल बहादुर शास्त्री की प्रतिमा पर जाकर फूल जरूर चढ़ाउंगा। मेरे दिमाग में ये बात बैठी थी कि बीस साल की एक लड़की अकेली पत्थर हो चुके अपने परिजनों को श्रद्धांजलि देने पोलैंड से मिंस्क पहुँच सकती है, तो मैं ताशकंद पहुँच कर उसके कहे मुताबिक शास्त्री जी की प्रतिमा पर फूल क्यों नहीं चढ़ा सकता।

माँ ने बचपन में ही समझा दिया था कि बहुत सी बातों में तर्क ढूँढने की जरूरत नहीं होती। जो काम बिना किसी को नुकसान पहुँचाए हो रहा हो, कर देना चाहिए। ‘येलेना’ भारत की नहीं थी। मैं दावे से कह सकता हूँ कि तमाम भारतीयों को ठीक से लाल बहादुर शास्त्री के बारे में पता भी नहीं होगा। कई लोगों को नहीं पता होगा कि ताशकंद में लाल बहादुर शास्त्री की मौत हुई थी, और वहाँ उनकी याद में एक मूर्ति लगी हुई है, जहाँ दूर-दूर से लोग आकर फूल चढ़ाते हैं। 

पृथ्वी के उत्तरी ध्रुव पर बैठी बीस साल की एक लड़की ने अगर मुझसे कहा कि तुम टॉलस्टाय की समाधि पर जाना, तुम शास्त्री जी की प्रतिमा पर फूल चढ़ाना, तो उसके कुछ और मायने होंगे। वर्ना लेनिनग्राद में तो उसकी उम्र की लड़कियाँ उसी ‘बीच’ पर, जहाँ वो मुझे मिली थी, सारे कपड़े उतार कर रेत पर लेटी पड़ी थीं और जिन्दगी के मजे लूट रही थीं। लेकिन येलेना वहाँ भी अपने पूरे बदन को ढक कर लाल रंग सैंडिल में मेरी तलाश में आयी थी। मेरी तलाश भी मिंस्क की तबाही से मिलवाने के लिए और मुझे ये बताने के लिए सोवियत संघ आए हो तो टॉलस्टाय से जरूर मिलना, शास्त्री जी को नमन जरूर करना। 

मैं चाहता तो उससे ये सवाल पूछ सकता था कि क्या तुम मेरी माँ हो जो मुझे ये सब करने की नसीहत दे रही हो। लेकिन माँ का ही कहा याद था कि बहुत सी बातें तर्क के परे होती हैं। 

माँ कहती थी कि संत जहाँ विश्वास के सहारे पहुँचते हैं, विद्वान वहीं तर्क के सहारे जाते हैं। दोनों की मंजिल एक है, रास्ते जुदा हैं।

मुझे मॉस्को लौटना ही था, तो फिर पोल्याना जाने में क्या परेशानी? कुल दो सौ किलोमीटर की अतिरिक्त यात्रा और येलेना की बात रह जानी थी। ताशकंद भी मुझे जाना ही था, तो फिर येलेना की बात मानते हुए दो रुबल के फूल अगर मैं शास्त्री जी को चढ़ा ही आता तो मेरा क्या नुकसान हो जाता?

इसलिए मैंने उससे तर्क नहीं कर पाया। पोल्याना जा कर मैं टॉलस्टाय का घर और वहीं पास बनी उनकी समाधि देख ही आया था। टॉलस्टाय की दिवंगत पत्नी सोफिया से मिल ही आया था। दोनों की बरबाद शादी और नाकाम मुहब्बत देख ही आया था। सोफिया टॉलस्टाय की सारी बातें सुन आया था कि कैसे टॉलस्टाय ‘उसके’ साथ न निभा पाने के चलते अधूरे संत बन कर रह गये। कैसे टॉलस्टाय बहुत छोटी-छोटी बातों पर खीझ उठते थे। 

सबकुछ सुन आया था, देख आया था। 

और जब मैं सोवियत संघ से भारत लौटा था तो शायद यासनाया पोल्याना जाना मेरी सबसे बड़ी उपलब्धि थी।

तो, येलेना की बात को मान कर मैं पहुँच गया था ताशकंद में शास्त्री जी की प्रतिमा के सामने। मैंने उनकी प्रतिमा को नमन किया। और बचपन में उनके बारे में पढ़ी कहानियों को याद किया। शास्त्री जी भारत के इकलौते ऐसे नेता रहे होंगे जिनके बारे में उनके कट्टर दुश्मन भी शायद कुछ नाकारात्मक नहीं कहते। 

मैं बहुत देर तक उनकी प्रतिमा को देखता रहा, पता नहीं क्यों मुझे लग रहा था कि वहीं आसपास येलेना भी खड़ी थी। वो मेरी ओर देख रही थी और कह रही थी कि तुम एक दिन शास्त्री जी के परिवार से मिलोगे। तुम्हारे देश को जिन्हें नमन करना चाहिए था, देश ने उन्हें भुला दिया। पता नहीं क्यों? 

मुझे बहुत हैरानी हो रही थी। मैं पोलैंड के बारे में कुछ नहीं जानता था। और वो पाँच फीट सात इंच की लड़की हमारे देश के बारे में सबकुछ जानती थी। 

मैंने सिर घूमा कर आसपास देखा, कहीं कोई नहीं था। 

टैक्सी वाला मेरा इंतजार कर रहा था। मुझे एयरपोर्ट पहुँचना था। मेरे पास कुल दस रुबल बचे थे, जिसे टैक्सी वाले को देना तय कर चुका था। टिकट ताशकंद से दिल्ली के लिए था, लेकिन ओपन टिकट था। मुझे नहीं पता था कि एयरपोर्ट जाकर कैसे क्या करुंगा, लेकिन इतना तय था कि अगली फ्लाइट से भारत लौट जाना है।

एयरपोर्ट गया, लाइन में खड़ा रहा। कई लोगों को सीट कनफर्म नहीं होने के कारण वापस लौटना पड़ा। लेकिन जब मैं काउंटर पर पहुँचा, तो काउंटर पर बैठी नीली आँखों वाली लड़की ने कह दिया कि दो दिन के बाद का टिकट कनफर्म होगा, और मैं कह रहा था कि मेरे पास पाँच फूटी कौड़ियाँ नहीं हैं, मैं पाँच लाख का सौदा करने आया हूँ। मुझे आज ही जाना है, अगली फ्लाइट से ही जाना है। अन्यथा तुम मेरे रहने का इंतजाम अपने घर में करो, या एयरपोर्ट पर।

और मैंने गौर से नीली आँखों वाली लड़की को देखा था, वो बदल गयी थी लाल कपड़ों और लाल सैंडिल वाली ‘येलेना’ के रूप में। उसके चमचमाते कपड़े, दमकते चेहरे और खुशबूदार साँसों को मैं साफ-साफ महसूस कर रहा था। 

येलेना ने मेरी आँखों में झाँका, कहा, “मैं जानती हूँ, तुम दिल से कह रहे हो, तुम जानते हो कि तुमने ठान लिया है तो तुम आज ही जाओगे। तो ये लो प्रथम श्रेणी का टिकट और अपनी मुराद पूरी करो।” 

मैं येलेना से दुबारा सचमुच कभी नहीं मिला। ना येलेना कभी मेरे सपनों में आई। लेकिन न जाने कितनी बार येलेना से मेरा पाला पड़ता रहा। मेरे अमेरिका प्रवास में वो मेरी दोस्त बनी, एक फ्रेंच लड़की बन कर। मॉस्को से वापसी के दस साल बाद एक बार फिर मेरे किरगिस्तान प्रवास में वो मेरी दोस्त बनी ‘ओल्गा’ बन कर। और चार साल पहले न्यूजीलैंड प्रवास में वो मिली सचमुच ‘येलेना’ बन कर। लेकिन न्यूजीलैंड में जो येलेना मिली उसकी याद बहुत उदास करने वाली है। 

उसके बारे में फिर कभी लिखूँगा, क्योंकि आज मैं कतई अपनी लेनिनग्राद वाली सुंदर सी येलेना को याद करके उदास नहीं होना चाहता। आज तो मैं बस उसकी खुशबूदार साँसों में उतरना चाहता हूँ। उसके बहुत करीब जा कर।

(देश मंथन 02 अगस्त 2016)

कोई जवाब दें

कृपया अपनी टिप्पणी दर्ज करें!
कृपया अपना नाम यहाँ दर्ज करें