कब जीना शुरू करेंगे

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संजय सिन्हा, संपादक, आज तक :

मेरे एक दोस्त के पिताजी ने मुझे बताया था कि उनके किसी मित्र ने रिटायरमेंट के बाद बिहार में पेंशन पाने के लिए न सिर्फ अपने कई जोड़े जूते घिस दिये, बल्कि उन्हें अपना हुलिया तक बदलवाना पड़ा। पूरी कहानी लिखूँगा लेकिन पहले आपको अपने साथ आज इटली की सैर कराऊँगा। 

यूरोपीय महाद्वीप के दक्षिणी हिस्से में बसा यह छोटा सा देश एक बहुत पुराना राष्ट्र है। जैसे हमारे पड़ोस में एक तरफ पाकिस्तान है, दूसरी तरफ बांग्लादेश है, जैसे हमारी सीमा चीन से सटी है वैसे ही इटली की सीमा फ्रांस, ऑस्ट्रिया और स्लोवेनिया से जुड़ी है। इटली के उत्तर में आल्प्स पहाड़ है, वही आल्प्स पहाड़ जिसे हम सबने बहुत बार यश चोपड़ा की तमाम फिल्मों में देखा है। 

मैं आज जो आपको बता रहा हूँ उसमें जानने के लिए नया कुछ भी नहीं है। बस इसलिए बता रहा हूँ क्योंकि आज ही मुझे अपने दोस्त के पिताजी के दोस्त की कहानी आपको सुनानी है, जिन्हें बिहार में कुल 35 साल की नौकरी के बाद पेंशन पाने के लिए अपना हुलिया बदलवाना पड़ा। उसी कहानी को सुनाने से पहले मैं आपके लिए भूमिका बाँध रहा हूँ। 

भूमिका की उसी कड़ी में आपको बता रहा हूँ कि फ्रांस, स्विट्ज़रलैंड, ऑस्ट्रिया और स्लोवेनिया की सीमाओं से सटा यह छोटा सा देश बेहद शांत और सौम्य देश है। दिलचस्प तो यह है कि इस देश के भीतर भी दो देश हैं, जो पूरी तरह आजाद हैं। वेटिकन सिटी और सैन मरीनो ये दोनों इटली में समाहित हैं, लेकिन आजाद हैं। 

ऐसा नहीं कि यहाँ भ्रष्टाचार की खबरें नहीं छपतीं। ऐसा भी नहीं कि यहाँ चोरी चकारी की घटनाएँ नहीं घटतीं। पर यहाँ के लोग मूल रूप में शांति प्रिय हैं। 

किसी भी देश को समझने के लिए उसके इतिहास में जरूर जाना चाहिए। ऐसे में आपको मैं इटली के विषय में वो बताते हुए आगे बढ़ना चाहता हूँ, जिसे भोपाल के हमिदिया कॉलेज में मुझे मित्तल मैडम बताया करती थीं। वो आधुनिक यूरोप का इतिहास पढ़ाते हुए हमेशा बताती थीं कि रोम की सभ्यता दुनिया की सबसे पुरानी सभ्यताओं में से एक है। इटली पहले बहुत से गणराज्यों को मिला कर टूटा-फूटा देश हुआ करता था और यहाँ एक समय में नेपोलियन का शासन भी रहा। लेकिन भारत के आजाद होने से ठीक साल भर पहले यानी 1946 में इटली एक जनतांत्रिक गणराज्य बन गया। 

अगर उम्र के हिसाब से बातें करें तो भारत और इटली दोनों पुरानी सभ्यताओं वाले देश हैं। अगर आधुनिक समाज की बात करें तो इटली भारत से कुल जमा साल भर बड़ा है। 

अब सुनिए आगे की दास्ताँ। 

इटली ने नहीं पूरे यूरोप ने इस बात को भुला दिया है कि अतीत में उनके साथ क्या हुआ। किसने किसके साथ क्या किया। कब नेपोलियन ने फ्रांस से आकर उनपर शासन किया। कब हिटलर ने कहर बरसाए। कब जर्मनी के सीने को काट कर उसे दो हिस्सों में बदल दिया। यहाँ के लोग सब भूल कर आपस में मिल गये। सब आजाद होकर अलग-अलग हुए और एक बन गये। ऐसे जैसे एक पिता की कई संतानें आपस में लड़ने की जगह एक ही अपार्टमेंट के कई फ्लैटों में अपनी-अपनी रसोई के साथ रह रहे हैं पर सब एक दूसरे के साथ खुशियाँ साझा करते हैं। 

अगर आप यूरोप आने के लिए वीजा लेंगे तो आपको किसी देश का अलग से वीजा नहीं मिलेगा। आपको पूरे यूरोप के लिए बस एक ही वीजा लेने की जरूरत होती है। यूरोप घूमने के लिए आपको ट्रेन के भी अलग टिकट की दरकार नहीं। यूरो रेल के लिए एक ही पास खरीदिये और पूरा यूरोप ऐसे घूमिये जैसे दिल्ली, गुड़गाँव, नोएडा, ग्रेटर नोएडा, गाजियाबाद घूम रहे हों। हालाँकि यहाँ तो आपको फिर भी पुलिस नाका, टोल नाका आदि झेलना पड़े, लेकिन यहाँ तो सब आपस में ऐसे मिले हैं मानों एक हों। सबकी भाषाएँ अलग हैं, खान-पान अलग है, आंतरिक मुद्रा तक अलग है। पर सबने मिल कर अपनी एक कॉमन मुद्रा बना ली है, जिसे हम यूरो कहते हैं। यह यूरो पूरे यूरोप में चलता है। 

सब आपस में मिलजुल कर रहते हैं। 1947 में किसने किसको उसके शहर से निकाल दिया था, किसने किसके परिवार की हत्या कर दी थी इन बातों में अब इनकी दिलचस्पी नहीं। यहाँ जमीन कब्जाने की लड़ाई नहीं चलती। ठीक है कि यहाँ से राजकीय भ्रष्टाचार की खबरें आपके सामने आती हैं, लेकिन आम आदमी को उससे क्या? 

आम आदमी रोजमर्रा की जिन्दगी में खुश है। उसे रोज जीने के लिए मारा-मारी नहीं करनी पड़ती। 

और हम?

हम जब शांति से जीने की बात करते हैं तो हमें बाबर की बर्बरता की याद दिलायी जाती है। हमें यह भूलने ही नहीं दिया जाता कि मेरी पत्नी के पिता जो कराची के रहने वाले थे, उन्हें कैसे वहाँ से बेदखल करके निकाला गया था। कैसे उनकी सारी जमीन वहाँ के लोगों ने उनसे छीन ली थी। कैसे वो किसी ट्रक में अपने छोटे भाई बहनों के साथ दिल्ली आकर शर्णार्थी बन गये थे। कैसे उन्हें बताया गया कि आपका कराची, आपका लाहौर आपका नहीं रहा। मेरी पत्नी के पिता ने कई बार चाहा कि जो हुआ सो हुआ कह कर सब भुला दिया जाये। उसे एक बुरा सपना मान कर फिर से जिन्दगी शुरू की जाये। पर हमारे हुक्मरानों ने ऐसा नहीं होने दिया। उनकी मौज ही इस बात में थी कि उनके मन में करण-अर्जुन की तरह पूर्व जनम का बदला लेने लिए उन्हें तैयार रखा जाये। 

पर यूरोप इस बात को भूल कर अब एक हो चुका है। जर्मनी की दीवार वहाँ के हुक्मरानों ने नहीं गिराई, बल्कि वहाँ के लोगों ने गिराई। जैसे ही उनकी समझ में ये आ गया कि लोगों के गुस्के की दीवारों से निकलने वाली गर्मी पर किसी और की रोटियाँ सिकतीं हैं, उन्हें तो सिर्फ उसका ताप सहना पड़ रहा है, उन्होंने नफरत की वो दीवार गिरा दी। 

हम? 

हमें रोज उकसाया जाता है कि माँ के सच्चे पूत हो तो उस दीवार पर और नफरत की सीमेंट और लगाओ। मत भूलना कि बाबर के समय से उन्होंने तुम्हारी इज्जत उतारी है। तुम लड़ो। तुम जलो। तुम बम बनाओ। तुम बनो। तुम मरो। तुम वह सब करो, क्योंकि मैं कह रहा हूँ। क्योंकि मैं हुक्म देने के लिए पैदा हुआ हूँ। क्योंकि हुक्मरान को जिन्दगी की ज्यादा दरकार होती है इसलिए मैं सात सुरक्षा में जीता रहूँगा। पर तुम मर जाना। क्योंकि तुम देश के महान सपूत हो।

यूरोप में अब ऐसे सपूत नहीं रहे। दरअसल यूरोप को ऐसे सपूतों की जरूरत नहीं रही। वो आपस में मिल गये हैं। 

वो एक दूसरे को नहीं नोचते।

अब आप मुझसे पूछेंगे कि हम कौन सा एक दूसरे को नोच रहे हैं? 

तो सुनिए मेरे दोस्त के पिता के दोस्त की कहानीः

मेरे एक दोस्त के पिताजी के दोस्त जो माप तौल विभाग में काम करते थे, एक दिन रिटायर हो गए। कुल जमा 35 सालों तक जिन्दगी को नापते-तौलते रहे और जैसे कि सबको एक दिन रिटायर होना ही होता है, तो वो भी रिटायर हो गये। 

रिटायरमेंट के बाद उन्हें पेंशन मिलती ही। पर कैसे मिलती? उन्होंने खूब चक्कर लगाए। जहाँ गये, सबने यही कहा कि साहब जी नाप तौल विभाग में दुकानदारों से आपने खूब पैसे कमाये। अब थोड़ी हमारी भी आवभगत कर दीजिए, तो हम आपकी सारी जिन्दगी जीने की व्यवस्था कर दें। 

दो जोड़ी जूते घिस गये। बाबू साहब ठीक से आवभगत नहीं कर पाये। ऐसे में अपने ही भाई-बंधु उनके पेंशन को रोके रहे। 

अब किसी की मदद से वो बड़ा साहब तक पहुँच गये। बड़ा साहब ने उनके पेंशन वाले पेपर पर दस्तखत कर दिये। 

बड़े साहब से ओके लिखवा कर बाबू साहब छोटे क्लर्क के पास पहुँचे। क्लर्क ने उनकी ओर देखा, मुस्कुराया और कहा कि अब आपका काम हो चुका है। आप इकलौते ऐसे पेंशनर हैं जिन्हें किसी को कुछ खिलाए-पिलाए बिना पेंशन मिलेगी। 

पूरे फार्म को ठीक से भर क्लर्क ने उन्हें बता दिया कि अगले महीने से आप एक तारीख को आ जाइएगा, वहाँ खिड़की है, वहीं आपको पेंशन मिल जाएगी। 

मेरे दोस्त के पिताजी के दोस्त बहुत खुश हो कर घर चले गये। 

महीना बाद जब वो पेंशन खिड़की पर पहुँचे, वहाँ खड़े क्लर्क ने मुस्कुराते हुए कहा कि आप अपना पहचान तो दिखाइए कि वो आप ही हैं, जिसे पेंशन मिलनी है। 

बाबू साहब ने कहा कि मैं सामने खड़ा हूँ, यही पहचान है। क्लर्क ने कहा, “इसमें तो शारीरिक पहचान में लिखा है कि पेंशन पाने वाले के सामने के दो दाँत टूटे हुए हैं। आप अपने दाँत दिखाएँ।”

“हाँय! सामने के दो दाँत टूटे हुए हैं? लेकिन मेरे तो दोनों दाँत सही सलामत हैं।”

“तो फिर वो आप नहीं।”

***

मरता क्या न करता। मेरे दोस्त के पिता के दोस्त को दाँत वाले डॉक्टर के पास जाना पड़ा। सामने से दो दाँत उखड़वाने पड़े। फिर अपने दाँतों की खिड़की खोल कर वो पेंशन खिड़की पर पहुँचे और अपनी पहचान मुँह खोल कर उन्होंने दिखायी। खिड़की पर बैठा बाबू फिर मुस्कुराया और उसने कहा कि हाँ, अब ये आप ही हो। ये लो पेंशन।

***

जागिए। सोचिए। कितन जनमों तक हम करण-अर्जुन बनते रहेंगे पुराने हिसाबों को चुकता करने के लिए? 

दुनिया के छोटे-छोटे देश जीने लगे हैं, हम कब जीना शुरू करेंगे? 

(देश मंथन, 11 अगस्त 2015)

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