बदलता भोपाल

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संजय सिन्हा, संपादक, आज तक :

आधी रात को चार शराबियों की निगाह ताजमहल पर पड़ गयी। चारों को ताजमहल बहुत पसन्द आया। उन्होंने तय कर लिया इतनी सुन्दर इमारत तो उनके शहर में होनी चाहिए थी। पर कमबख्त सरकार कुछ करती ही नहीं। क्यों न हम चारों रात के अंधेरे में सफेद संगमरमर की इस इमारत को चुरा कर अपने शहर ले चलें! 

चारों ने एक दूसरे की आँखों में झाँका और तय हो गया कि अब इस इमारत को धक्का देते हुए यहाँ से खिसका लेना है। अब यह इमारत जहाँ है, वहाँ नहीं रहेगी। अब यह हमारे शहर की रौनक होगी। और रात के सन्नाटे में चारों लगे धक्का लगाने। धक्का लगाते-लगाते चारों थक कर पसीने-पसीने हो गये। चारों ने तय कर लिया था कि आज इसे यहाँ से लेकर ही जाना है। पसीने से तरबतर होने के बाद उन सबने अपने कपड़े उतार कर वहीं पास में रख दिए और फिर लगे लगाने धक्का।

थोड़ी देर में कुछ उधर से गुजरते कुछ चोरों की निगाह इन चारों पर पड़ी। चोरों ने दाएँ-बाएँ देखा और उन चारों के कपड़े लेकर चलते बने।

इधर चारों शराबियों को धक्का लगाते हुए काफी देर हो चुकी थी। अचानक एक शराबी ने कहा कि लगता है, हम काफी दूर तक चले आये हैं। दूसरे ने पीछे मुड़ कर देखा और कहा कि सच कह रहे हो दोस्त, हम बहुत दूर तक चले आये हैं। पीछे देखो, हमारे कपड़े भी अब नजर नहीं आ रहे। 

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मैं भोपाल में रहा हूँ। एक-एक सड़क से परिचित हूँ। लेकिन इस बार मुझे लगा कि भोपाल सचमुच काफी बदल गया है। सच कहूँ तो और सुन्दर हो गया है। पिछले दिनों मैंने जितनी यात्राएँ की हैं, उनमें भोपाल इकलौता शहर मुझे ऐसा नजर आया जहाँ सचमुच विकास हुआ है। मैं जिन दिनों भोपाल में रहता था, वहाँ अरेरा कॉलोनी सबसे अच्छी मानी जाती थी। सरकारी अफसरों के लिए चार इमली का इलाका सर्वश्रेष्ठ हुआ करता था। शाहपुरा और चूना भट्टी का इलाका तब बसा ही नहीं था। वीआईपी रोड का नामोनिशान नहीं था। बड़ा तालाब, जिसे अब झील कहने लगे हैं, उधर से गुजरते हुए ट्रैफिक की चिल्ल-पौं, धुएँ से मन खट्टा हो जाता था। हमारे लिए भोपाल का मतलब शिवाजी नगर, महाराणा प्रताप नगर और अरेरा कॉलोनी था। मैंने इतने साल वहाँ गुजारे, लेकिन मुझे यही पता था कि भोपाल में सिर्फ दो झीलें हैं- बड़ा तालाब और छोटा तालाब। 

पर इस बार की यात्रा में पहली बार मालूम हुआ कि भोपाल तो झीलों का शहर है। पूरा शहर झीलों से भरा पड़ा है। और अब उन्हें कुछ इस तरह सजा और बसा दिया गया है कि आपको पहली नजर में यकीन ही नहीं होगा कि हिन्दुस्तान में ऐसी कोई जगह भी हो सकती है। एकदम साफ चकाचक झीलें। सड़कें सुन्दर। और शाम को निकल जाए तो लगेगा कि आप मुंबई की मेरिन ड्राइव पर घूम रहे हैं। 

कहने का अर्थ यह कि सचमुच भोपाल बदल गया है।

मेरा बहुत मन किया कि थोड़ा-सा भोपाल मैं भी दिल्ली ले चलूँ। अब मैं शराब तो पीता नहीं, इसलिए नशे में उसे धक्का देते हुए दिल्ली लाने की मूर्खता मैं तो नहीं ही करता। तो मैं कपड़े चुराने वाले चोरों की तरह वहाँ से दिल चुरा लाया हूँ। वहाँ से रिश्ते चुरा लाया हूँ। 

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मैं वहाँ पहुँचा और कई लोगों से मेरी मुलाकात हुई। सबसे पहले तो मुझे मेरे सहपाठी आलोक संजर मिले। उनकी कहानी मैं अलग से लिखूँगा। इतना बता दूँ कि आलोक इस बार भोपाल से सांसद चुने गये हैं। हम दोनों हमीदिया कॉलेज में साथ पढ़ते थे। फिर मेरी मुलाकात अपने फेसबुक परिजन Sanjay Sharma से हुई। उनके साथ उनके एक मित्र और संजय शर्मा जी के बहनोई साथ आये थे मिलने के लिए। संजय जी से मैं फेसबुक के जरिए जुड़ा। पर मेरा दावा है कि उनसे आप एक बार मिल लेंगे, तो फिर आप समझ जाएँगे कि रिश्ते निभाना किसे कहते हैं। मेरे शहर को संजय शर्मा ने अपनी आँखों से दिखाया।

मेरी भोपाल यात्रा में मेरे साथ मेरे दो और मित्र थे। दोनों भोपाल में रहे हैं। पर मेरा यकीन कीजिए, संजय शर्मा ने हमें जिस भोपाल को दिखलाया और वहाँ जो दाल बाफले उन्होंने हमें खिलाए, हम हैरान रह गये। 

इतना ही नहीं। वो हमें झीलों का इतिहास बताते-बताते राजा भोज की नगरी यानी भोजपुर ले गये। वो भोजपुर पहुँचे ही थे कि उनके एक भैया और भाभी वहाँ पहुँच गए। संजय शर्मा ने हमारी मुलाकात भैया और चेतना भाभी से कराई। हमारा पेट दाल बाफले खाकर एकदम टाइट था। पर भाभी अड़ ही गईं कि ये पकौड़ा और ये लड्डू आपने नहीं खाये, तो क्या खाया? 

लो जी प्यार पर प्यार बरस रहा था। 

अब अगर मैंने अपने फेसबुक परिजन S M Altamash Jalal का नाम नहीं लिखा, तो भारी गड़बड़ी हो जाएगी। अल्तमश भाई अपने एक दोस्त के साथ उसी वक्त हमारे पास पहुँचे जब संजय शर्मा मिलने आये थे। संजय शर्मा के साथ तीन लोग, अल्तमश और उनके एक साथी और फिर हम तीन। यानी कुल आठ लोग दो गाड़ियों में भोपाल से भोजपुर निकले।

मुझे तो अपना दिल्ली आना शुरू से ही खटकता है। लेकिन उस दिन बहुत अफसोस हुआ कि भोपाल छोड़ा ही क्यों। दो वक्त की रोटी के लिए? 

कमबख्त ये रोटी जो न करा दे!

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अब उन झीलों को चुरा कर तो ला नहीं सकता था। पर वहाँ से रिश्ते चुरा कर ले आया हूँ। वहाँ से उन सबका प्यार छुपा कर ले आया हूँ, जिसकी मुझे हमेशा बहुत जरूरत रहती है। 

आप भी कहीं जाएँ, तो ऐसे रिश्तों को चुरा कर लेते आइएगा। महानगरों में इनकी बड़ी किल्लत है।  

(देश मंथन, 15 सितंबर 2015)

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