रवीश कुमार, वरिष्ठ टेलीविजन एंकर :
लोटा। हमारे यहाँ कहावत तो है लोटा लेकर मैदान की तरफ़ भागने का मगर आज हम मैदान छोड़कर लोटा की तरफ़ भागे। सात बजे सुबह तैयार होकर ऐसे निकला जैसे दफ्तर जाना हो।
रेस्त्रां या कैफे की तरफ़ सुबह सुबह जाने का कम ही रिवाज रहा है। रहा भी होगा तो मेरी जानकारी में नहीं है। अव्वल तो खुद भी बाहर खाने को लेकर उत्साहित नहीं रहता। मगर किसी वजह से लोटा अच्छा लगने लगा है।
कैफ़े लोटा। राष्ट्रीय शिल्प संग्रहालय। हमारे मुल्क में म्यूज़ियम कैफ़े का चलन कम रहा है। शुरू हो रहा है। पुराना क़िला के ठीक सामने यानी आप सुप्रीम कोर्ट की तरफ़ से निजामुद्दीन ब्रिज के लिए आ रहे हों तो बायें मुँड़ते ही प्रगति मैदान की तरफ़ लोटा पड़ता है। शिल्प ग्राम में प्रवेश का रास्ता ही लोटा का प्रवेश मार्ग है। ठीक सामने यानी दायीं ओर भैरों मंदिर और पुराना क़िला है।
दिल्ली में खाने पीने की जगहों की तलाश कम की है। कैफ़े लोटा अपनी सीमित सीटों के साथ आपको एकांत और फ़ुर्सत देता है। माहौल देहाती मगर खाना देसी होते हुए भी एक्जोटिक। भारतीय व्यंजन ही है जिसे ज़हीन अंदाज़ में परोसा जाता है। मेरी जानकारी में ऐसे कैफ़े कम हैं जो नाश्ता देते हों। रवा मिनी इडली तो शानदार और काफी हल्का लगा। बनाना रेगी बिस्किट की बात कैसे बताऊँ। पता नहीं फूडी राइटर कैसे बयान करते मगर मेरे लिहाज से तो लल्लन टाप। बांबे अंडा भुर्जी के साथ पालक पाव। पहली बार हरे रंग का पाव देखा और खाया। लद्दाखी पाव ने तो अदरकी स्वाद वाले ब्रेड को भी मात दे दी। पोहा भी खाया । मैं यहाँ दो बार लंच भी कर चुका हूँ। थोड़ा महँगा है पर दिल्ली के रेस्त्रां जैसा ही है।
लोटा दिल्ली में होते हुए भी दिल्ली जैसा नहीं है। दीवार की सजावट गुजरात ले जाती है। यहाँ आने वाले लोग फ़ुर्सत के चँद लम्हों के लिए आते हैं। न कि लेट्स हैव लंच टुगेदर की आक्रामक शोशेबाजियाँ बिखेरने के लिए। खुले आसमान के नीचे है। पेड़ों के नीचे छत के नाम पर बाँस की छतरी है। बारात वाला स्टैंड फ़ैन है तो थोड़ा प्राकृतिक सामाजिक माहौल में खाने का मजा मिलता है। स्टाफ शालीन और उपभोक्ता शांत। स्वाद और माहौल प्रमुख है। हैसियत और हवाबाजी गौण है।
आर्डर देकर आप म्यूजियम की दुकान भी घूम सकते हैं। कला व शिल्प पर कई किताबें भी दिखती हैं। पार्किंग की समस्या है पर वैले पार्किंग है। जाने से पहले बुक करके जाइयेगा और तभी जाइयेगा जब आप खाते खाते किसी को देखना भी चाहते हों और प्लेट से अपना-उसका खाते हुए बतियाने का मन हो। यानी लोटा धर के खाइयेगा। भागने के लिए नहीं। ये वो जगह है जहाँ बगल की सड़क पर दौड़ती कारों से भी दिल बेचैन नहीं पाता। ये दिल्ली का ऐसा ठीकाना है जहाँ दिल्ली ठहरी रहती है।
(देश मंथन, 21 जून 2014)