संजय सिन्हा, संपादक, आजतक :
आज मुझे मिलना है जबलपुर के विराट हॉस्पिस में कैंसर के उन मरीजों से जिन्हें डॉक्टरों ने कह दिया है कि अब दवा नहीं सिर्फ दुआ का आसरा है।
मैंने शायद स्कूल के दिनों में ही अंग्रेजी लेखक ‘ओ हेनरी’ की छोटी कहानियों में से एक ‘द लास्ट लीफ’ पढ़ ली थी। उस कहानी की नायिका जो गंभीर बीमारी से जूझ रही थी, उसे लगने लगा था कि साँसों की डोर अब टूटने ही वाली है।
मैं जानता हूँ कि आपने ये कहानी कई बार पढ़ी होगी। मुझे याद है कि मैंने पहले भी इस कहानी की चर्चा की है।
फिर भी एक बार मैं दुबारा इसी कहानी की डोर को पकड़ता हुआ आपको ले चलता हूँ जबलपुर।
कहानी बहुत छोटी सी है कि एक लड़की जो बहुत बीमार है, उसे लगता है कि वो मर जाएगी। डॉक्टर जवाब दे चुके हैं। दवा काम नहीं करती। लड़की के कमरे की खिड़की से एक पेड़ नजर आता है, जिसके पत्ते धीरे-धीरे बर्फीली आँधी में गिर रहे हैं। लड़की रोज सुबह जागती है, खिड़की से उस ठूँठ हो रहे पेड़ की ओर देखती है और अपनी जिन्दगी के दिन गिनती है। उसे पूरा यकीन है कि जिस दिन इस पेड़ से आखिरी पत्ता गिरेगा, वो दिन उसकी भी जिन्दगी का आखिरी दिन होगा।
लड़की एक दिन पाती है कि पेड़ ठूँठ हो चला है, बस एक पत्ता रह गया है, जिसका उस रात गिर जाना पक्का है।
लड़की सोच लेती है कि आज की रात आखिरी रात है।
इसी बीच एक चित्रकार को पता चलता है कि लड़की के मन में ये बात बैठ गयी है कि उधर वो पत्ता गिरा, इधर उसके प्राण निकले। चित्रकार अपनी जिन्दगी में नाकाम था। उसने कभी ऐसा एक भी चित्र नहीं बनाया था, जिससे उसे कभी मान-सम्मान मिला हो। पर उसने तय किया कि वो पत्ते की एक ऐसी तस्वीर बनाएगा, जो देखने में एकदम असली लगे। और रात में जब तेज बर्फीली हवाओं के झोंके से वो पत्ता गिर जाएगा, तब उस तस्वीर को वो पेड़ पर लगा देगा।
चित्रकार ने सारी रात उन तेज बर्फीली हवाओं के बीच उस चित्र को आकार दिया और उसने उसे पत्ते की जगह ऐसी जगह लगा दिया, जहाँ से सुबह जब लड़की देखे तो उसे पत्ता दिखे। आखिरी पत्ता।
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लड़की सुबह जागी। उसने बहुत टूटे हुए मन से उस पेड़ की ओर देखा।
ये क्या पत्ता नही गिरा था। रात भर चली भयंकर आँधियों में भी पत्ता नहीं गिरा?
उसे यकीन ही नहीं हुआ कि वो पत्ता पेड़ से नहीं टूटा। उसने आँखें मल-मल कर दुबारा देखा, पर पत्ता अपनी जगह था।
पेड़ से सारे पत्ते झड़ गये और एक अदना सा पत्ता डटा हुआ है तेज आँधियों के बीच?
लड़की को यकीन नहीं हुआ। उसे लगा कि आज यह पत्ता बच गया है, पर कल कैसे बचेगा? पर वो पत्ता कल भी नहीं गिरा।
उस पेंटर की पेंटिंग इतनी सजीव थी कि लड़की यह समझ ही नहीं पायी कि वो पत्ता सिर्फ एक चित्र है।
और चित्रकार? उस तेज बर्फीली आँधी में पेंटर की तबियत बहुत खराब हो गयी थी। वो उस रात ही मर गया था, उस आखिरी पत्ते को जीवन देकर।
लड़की ने जब देखा कि उस दिन पत्ता नहीं टूटा, दूसरे दिन भी नहीं टूटा, तीसरे दिन भी नहीं टूटा तो उसके भीतर जिन्दगी की उम्मीद जगने लगी।
जब एक अदना सा पत्ता इन आँधियों को सह सकता है, तब मैं क्यों नहीं?
फिर लड़की नहीं मरी। उस आखिरी पत्ते ने उसकी जिन्दगी में वो आत्मबल लौटा दिया, जिसकी जरूरत होती है, जीने के लिए।
आप मेरा यकीन कीजिएगा, मैंने ऐसे लोग देखे हैं, जो आत्मबल की बदौलत जिन्दगी में वो पा लेते हैं, जिसकी उनको दरकार होती है।
आज जब मैं जबलपुर में उन मरीजों से मिलूँगा तो मैं उनसे ‘द लास्ट लीफ’ कहानी को साझा करूँगा। मैं कहूँगा कोई बात नहीं, आप अपनी उम्मीद मत छोड़िएगा। मैं कहूँगा कि कैंसर ठीक होता है। मैंने अपनी आँखों से इसे ठीक होते हुए देखा है।
मैं उन्हें ढेरों कहानियाँ सुनाऊँगा, इतनी कि उनकी जिन्दगी में उम्मीद का पूरा पेड़ खिल उठे।
मैं उन लोगों को नमन करूँगा, जिन्होंने विराट हॉस्पिस जैसी सोच को अंजाम दिया है।
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मृत्यु के मूल में है निराशा और जिन्दगी के मूल में आशा। मृत्यु बेशक संपूर्ण सत्य है, लेकिन जीवन में मृत्यु का कोई स्थान नहीं। जिस तरह किसी के लिखी किसी पंक्ति का अंत एक पूर्ण विराम पर आकर रुकता है, उसी तरह उस पूर्ण विराम के बाद नई पंक्ति का सृजन भी होता है।
मैं इसी सृजन को जीता हूँ।
मैं इसी सृजन को जीता हूँ, इसीलिए दस साल की उम्र में जब इसी कैंसर से मर जाने वाली अपनी माँ को मैं गंगा के तट पर मुखाग्नि दे रहा था, तब भी मैंने मन ही मन सोच लिया था कि मेरी माँ मरी नहीं है। वो जीवित है, मेरी उम्मीद की हजार किरणें बन कर। वो जीवित रहेगी कैंसर के लाखों मरीजों की आशा बन कर। मैंने अपनी माँ की मृत्यु के बाद अगर कैंसर से दस मरीजों को मरते देखा है, तो पचास मरीजों को जीते भी देखा है। मैंने पाँच सौ कैंसर के मरीजों को ठीक होते देखा है। मैं पाँच हजार मरीजों को इस बीमारी से ठीक होते हुए देखूँगा।
मेरा यकीन कीजिए, विराट हॉस्पिस जैसी सोच रखने वाला एक भी व्यक्ति जहाँ कहीं भी होगा, वहाँ कैंसर को हार जाना होगा।
किसी शहर में अगर एक भी चित्रकार उम्मीद के आखिरी पत्ते को आकार देने के लिए आगे आ जाएगा, तो ईश्वर को भी एक बार सोचना होगा।
हम सब जीते हैं। पर हम क्यों जीते हैं, हमें नहीं पता होता।
जिन्हें पता होता है, उनकी जिन्दगी विराट हो जाती है। साध्वी ज्ञानेश्वरी दीदी की तरह। डॉक्टर अशोक गुमाश्ता की तरह और डॉक्टर ज्ञान चतुर्वेदी की तरह।
(देश मंथन, 04 अप्रैल 2016)