पुण्य प्रसून बाजपेयी, कार्यकारी संपादक, आजतक :
जैसे ही घुमावदार रिहाइश गलियों के बीच से निकलते हुये मुख्य सड़क पर निकलने को हुआ वैसे ही सामने टैगौर गार्डन केन्द्रीय विद्यालय का लोहे का दरवाजा इतने नजदीक आ गया कि वह सारे अहसास झटके में काफूर हो गये, जिन्हें सहेज कर घर से निकला था।
चालीस बरस पहले इमरजेन्सी लगी थी और मेरे बचपन का स्कूल मुझसे छूटा था। आपातकाल का मेरे जीवन से उस वक्त इतना ही जुड़ाव था कि 1975 में मुझसे मेरा स्कूल छूट गया था। इन चालीस बरस में मैं देश-दुनिया खूब घूमा लेकिन कभी अपने बचपन के स्कूल जाने की हिम्मत ना जुटा सका क्योंकि बचपन की उन अद्भुत यादों को जेहन में बसाये रखना चाहता था, लेकिन चालीस बरस बाद टैगौर गार्डन केन्द्रीय विद्यालय का स्कूल कभी जेहन में ना रहा हो ऐसा भी नहीं हुआ। अभी पिछले साल दिसंबर में ही पटना कंकरबाग केन्द्रीय विद्यालय में पुराने छात्रों का जमावड़ा हुआ। वहाँ 1977 से 1981 तक बिताये दौर को याद करते करते ना जाने कैसे टैगौर गार्डन का केन्द्रीय विद्यालय मेरे जहन में आ ही गया और वहाँ भी मैं बचपन की यादों को समेटने लगा और बताने कि कैसे टैंट में स्कूल चला करता था और कैसे टिफिन में खेलते वक्त अक्सर खोपड़िया फुटबॉल की शक्ल में मैदान में दिखायी देती और बच्चे उसी से ही खेलने लगते और टीचरों की याद में मुझे भी मेरे पांचवीं कक्षा की अंग्रेजी की टीचर नीना पांघी याद आ गयीं। जिन्होंने टैगौर गार्डन केन्द्रीय विद्यालय छोड़ने के बाद मुझे पत्र लिखा था और बताया कि रांची कितनी खूबसूरत जगह है। दरअसल, 1975 में इमरजेन्सी लगी तो इंडियन इनफारमेशन सर्विस में काम कर रहे पिताजी का तबादला रांची कर दिया गया। रांची उस वक्त बिहार का ही हिस्सा था। घर में कोई खुश नहीं था। माँ भी दुखी थीं, लेकिन पिताजी उस वक्त सभी को यही समझाते रहे कि हम उस जगह जा रहे है जहाँ जयप्रकाश नारायण ने सरकार के खिलाफ आंदोलन छेड़ रखा है। इसलिये बिहार जाकर काम करना एक बेहद महत्वपूर्ण जिम्मेदारी भी है और जेपी को करीब से देखने समझने का मौका भी मिलेगा। पिताजी को रांची से रेडियो का बुलेटिन शुरू करना था। इस वक्त इंदिरा गांधी की नजर जेपी आंदोलन के जरिये बिहार पर थी।
18 मार्च को जेपी ने संपूर्ण क्रांति का नारा क्या लगाया दिल्ली में सियासी हड़कंप मचा और उसी के बाद रांची को भी न्यूज बुलेटिन का सेंटर बनाना तय हुआ। पटना से शाम का बुलेटिन काफी पहले से होता था और रांची में कोई न्यूज बुलेटिन था नहीं और दिल्ली में इंदिरा सरकार को इस बात का एहसास था कि अगर जेपी को रोकने के लिए बिहार में सरकार ने ठोस पहल नहीं की तो आंदोलन बिहार से आगे बंगाल को भी अपनी गिरफ्त में ले सकता है और इंदिरा गांधी को नक्सलवाद की आहट भी इसमें दिखायी देने लगी। साठ के दशक में कैसे छात्र कालेजों से निकल कर नक्सलबाड़ी की तरफ बढ़े थे और तब सिद्दार्थ शंकर रे के सामने क्या मुश्किलें आई थीं। या फिर उस वक्त कैसे कांग्रेस की सत्ता डिग रही थी। सारे एहसास इंदिरा गांधी को थे। इसलिए सरकारी प्रोपेगेंडा के लिए न्यूज बुलेटिन होना चाहिए। यह सारी बाते गाहे-बगाहे पिताजी से बातचीत में अक्सर निकल कर आतीं और शायद पिताजी को लगता रहा कि सारी बाते हमें जाननी चाहिये तो बचपन में इन बातों को लेकर हमें कोई रूचि हो या ना हो, हम ना भी जानना चाहे तो भी हर घटना से पिताजी हमें जोड़े रखते। तो रांची तबादले की खबर भी उन्होंने सामान्य तरीके से घर में सभी को नहीं दी। बल्कि देश के भीतर होने वाले बदलाव को लेकर चल रहे संघर्ष की जमीन बिहार के बारे में बताते हुये रांची जाने का जिक्र किया और बताया कि इनके लिये कितना महत्वपूर्ण असाइनमेंट है। क्योंकि रांची में न्यूज बुलेटिन शुरू करना है। हमेशा दिल्ली से जुड़े रहना है क्योंकि पटना और रांची के न्यूज बुलेटिन को लेकर दिल्ली की खास नजर है और तब पांचवीं में पढ़ रहा था और मैंने भी अपनी क्लास टीचर और अंग्रेजी पढ़ाने वाली नीना पांधी को यह जानकारी दी।
उस वक्त गर्मियों की छुट्टी से पहले अक्सर क्लास में बच्चो से पूछती कि किन किन के पिताजी का तबादला हो रहा है। यानी जिनका स्कूल छूट रहा है। जो अगली क्लास में साथ नहीं होंगे, उन्हे टीचर टॉफी देती और 1970 से 1975 तक के दौरान टैगोर गार्डन में पढ़ते हुये हर बरस गर्मियों की छुट्टियों के वक्त मुझे लगता रहा कि मुझे कब टॉफी मिलेगी और 1975 में जब मैडम ने मुझे यह कहकर टॉफी दी कि अब आगे की पढ़ायी मुझे रांची के डोरन्डा-हिनू के केन्द्रीय विद्यालय में करनी है तो मैं उदास हो गया। घर आकर पिताजी को जानकारी दी कि मैडम ने बताया है कि रांची में केन्द्रीय विघालय डोरन्डा हिनू में है। बोले वाह। आपकी मैडम ने केन्द्रीय विद्यालय की डायरेक्ट्री से खोज कर जानकारी दी है। मुझे तो पता ही नहीं है कि रांची में कहा होगा केन्द्रीय विद्यालय स्कूल। मैंने तो किराये के मकान के लिये इतना ही अपने साथियों को कहा है कि रेडियो स्टेशन के आसपास कही घर देख लिजियेगा। बहुतेरी यादों को समेटे 4 अप्रैल 2015 को घर से टैगौर गार्डन केंद्रीय विद्यालय जाने निकला। बेटे के जीईई की परीक्षा का सेंटर टैगौर गार्डन था। तो तय किया कि आज साथ ही जाउँगा। नौ बजे पहुँचना था। बारिश रात से ही हो रही थी। तो वक्त रहते पहुँचने के लिये सुबह सात बजे ही घर से निकला। बीच में बरसात इतनी तेज होनी लगी कि सड़क पर कुछ दिखायी नहीं दे रहा था। बेटा पीछे से पूछ रहा था वक्त पर टैगोर गार्डन पहुँच तो जायेंगे। मैंने भी ड्राइवर को कहा देख लो, नौ बजे पहुँचना है और खुद की यादों में बचपन फिर कुलाचें मारने लगा। कैसे एक दिन जबरदस्त बरसात में स्कूल बस का पहिया ही गड्डे में चला गया और उसके बाद क्या कुछ नहीं हुआ स्कूल में। कच्ची मिट्टी की सड़क। गड्डों में पानी और स्कूल छूटने के बाद गड्डों के पानी में ही खेलना। बिलकुल खुली जगह में स्कूल था। स्कूल के मैदान में अक्सर खेलते वक्त नरमुंड मिल जाया करते थे। कभी-कभी हड्डियाँ भी। पाँव से मार कर खेलते थे। जो याद है वह यही है कि सभी बताते थे कि स्कूल के पीछे श्मशान घाट है। कुछ ने बताया कि श्मशान घाट को सरकार ने बंद कर दिया कि तो स्कूल के प्ले ग्राउंड की जमीन तले श्मशान ही है। तो गाहे-बगाहे नरमुंड का मिलना स्कूल में आम बात थी। क्लास टेंट में चला करती थी। बरसात होती तो टेंट की क्लास में बैठे बैठे भी भीग जाया करते थे। तो बारिश में क्या क्लास और क्या मैदान। क्या स्कूल का दरवाजा और क्या सड़क पर खडी स्कूल बस। सबकुछ सरीखा। स्कूल गेट भी तब लकड़ी का ही था। जो बरसात में अक्सर बह जाता था और जिस दिन जबरदस्त बारिश होती उस दिन तो बसो तक पहुँचना भी में किसी रोमांच से ज्यादा होता। बैग बचाना है या खुद को। बैग से खुद को बचाना है या खुद से बैग को। कुछ ऐसी यादो में यह भी याद आया कि अक्सर खेल टीचर एक साथ दो तीन बच्चों को उठाकर भागते-दौड़ते हुये बसों तक यूँ पहुँचाते जैसे हम उनके लिये फुटबाल से ज्यादा कुछ भी नहीं। वह खुद भिगते लेकिन बच्चों को भीगने से बचाते। क्लास टीचरों की जिम्मेदारी होती कि बच्चों को स्कूल बस तक पहुँचाये तो कई अपनी ओढनी से छुपा कर छोटे-छोटे बच्चों को बसों तक पहुँचाते। साइकिल से ले जाते माँ-बाप। सिर्फ एक दो स्कूटर। लैंबरेटा और वेस्पा। स्कूटर वाले रईस माने जाते। चौथी में पढ़ रहा था तो इन्द्रजीत सिंह को दोस्त इसीलिए कई साथ पढ़ने वालो ने दोस्त बनाया कि उसके पिताजी के पास लैबंरेटा स्कूटर था। सोचते-सोचते झटके में सड़क की बांयीं तरफ लिखे दिखा। टैगौर गार्डन में आपका स्वागत है। बस गाड़ी दर मोड़ कर आगे बढ़ा तो याद करने लगा कि क्या कुछ बदला है । लेकिन जैसे-जैसे आगे बढ़ा वैसे-वैसे लगा क्या कुछ बचा है, चालीस बरस पहले का। कुछ भी नहीं। 1975 तक तो कोई रिहाइश इस इलाके में थी ही नहीं। तंदूरी रोटी बनाने की झोपड़िया। ढाबा। गुरुद्वारा और दूर से दिखायी देता टेंट का स्कूल और झटके में जैसे ही सामने सड़क पर निकला तो सामने लोहे के गेट के ऊपर लिखा पाया केन्द्रीय विद्यालय। अरे सबकुछ तो बदल गया और स्कूल के सामने पन्द्रह फीट की सड़क के अलावे तो कही कुछ भी जगह है ही नहीं। जो खुलापन था वह सब लोगों से पट गया। मकानों ने कोई जगह छोड़ी नहीं। दस फुट से बड़ी
गलियाँ कही नजर नहीं आयी। उसी में हर घर के बाहर कार। पहले न गलियों में खटिया बिछी रहती थी। लोग उसी पर बैठते कोई ट्रक या बस आ जाती तो सभी उठ कर खटिया किनारे करते, लेकिन अब तो हार्न का शोर। स्कूल के भीतर जा नहीं सकता था तो बाहर की चारदीवारी से ही झां-झांक कर उस मैदान का दाज लगाने लगा। जहाँ बचपन खेलते हुये बीता। हरी घास नजर आयी, लेकिन चालीस बरस पहले तो सिर्फ मिट्टी थी और डिफिन में अक्सर आसमान में चील मंडराते, जिनकी तरफ हम अपने टिफिन से रोटी या ब्रेड निकाल कर हवा में उछालते तो जमीन पर गिरने से पहले ही चील या बाज रोटी मुंह/पंजे में दबाकर उड़ जाते और इस खेल में अक्सर कई बार हम कुछ नहीं खाते। हाँ घर पहुंचकर बताने पर डांट जरूर खाते, लेकिन अब तो आसमान में कोई चिड़िया भी नजर नहीं आती। सिर्फ ऊंचे मकान और जमीन पर गाड़ियों की कतार। चारदीवारी के सहारे स्कूल के पीछे गया तो वहाँ भी सिर्फ मकान। सामने छोटी सी सड़क। कोई श्मशान कभी यहाँ हुआ करता था। चाय की दुकान में बारिश की बूंदों से बचते हुये चाय की चुस्की के बीच एक बुजुर्ग ने बताया, लेकिन वह भी टैगौर गार्डन में रहने 1980 में आया था। उससे पहले का कौन हो सकता है यह सोच कर इलाके के बुजुर्ग के किसी महा बुजुर्ग चेहरे को खोजने लगा। जो मेरे अंदर के बचपन के अहसास को पंख दे सके।
(देश मंथन, 08 अप्रैल 2015)