कभी डाकू थे अब शान्ति का सन्देश देते हैं

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विद्युत प्रकाश मौर्य, वरिष्ठ पत्रकार :

उनका नाम नेत्रपाल सिंह। कभी चंबल के नामी डकैतों में शुमार थे। उनकी बड़ी बड़ी मूँछे आज भी इस बात की गवाही देती है कि जवानी के दिनों में कैसे खूँखार लगते होंगे।

गाँधीवादी एसएन सुब्बाराव की अगुवाई में सीतामढ़ी में आयोजित राष्ट्रीय एकता शिविर (10 से 15 जून 2015) के दौरान उनसे मेरी मुलाकात हो गई। कई पुरानी यादें ताजा हो गई। दरअसल 1995 से 1995 के मध्य चली सद्भावना रेल यात्रा में भी वे कुछ दिनों के लिए शामिल हुये थे। अब उम्र 77 पार हो गई है पर जोश उसी तरह कायम है।

नेत्रपाल सिंह गर्व से कहते हैं कि डाकूओं की मंडली में में उन्हें नेत्रा डाकू के नाम से जाना जाता था। कैसे डाकू बने, कितनों को मारा ऐसी बातों पर अब वे ज्यादा चर्चा नहीं करना चाहते। पर वे कहते हैं कि चंबल के बीहड़ में रहने वाले डाकूओं के भी अपने वसूल होते थे। वे हर किसी को नहीं मारते थे। किसी बहू-बेटियों की इज्जत नहीं लूटते थे। और हाँ फिल्मों जैसा डाकूओं को दिखाया जाता है, घोड़े पर दौड़ते हुए चंबल के बीहड़ के डाकू कभी घोड़े पर नहीं दौड़ते थे। नेत्रपाल सिंह जब किसी शिविर में आते हैं, देश के अलग-अलग राज्यों के युवाओं के परिचय कराने के दौरान सुब्बराव जी नेत्रपाल सिंह का भी परिचय कराते हैं। वे बोलते हैं–  हम चंबल से आये हैं… शान्ति का सन्देश लाये हैं। कभी चंबल में डाकुओं का आतंक था। अब शान्ति है। पर जैसे डाकू चंबल की घाटियों में थे उससे ज्यादा खतरनाक तो अब सभ्य समाज के बीच में चोला बदलकर बैठे हुये हैं। ऐसे डाकुओं से हमें खतरा ज्यादा है।

नेत्रपाल सिंह उन 654 डाकुओं की फेहरिस्त में शामिल हैं, जिन्होंने 1972 और 1976 में महात्मा गाँधी सेवा आश्रम जौरा (मुरैना) में सरेंडर किया था। वे सुब्बराव जी का बड़ा सम्मान करते हैं। डाकुओं के सरेंडर को लेकर किए गये उनके प्रयासों को याद करते हैं। सरेंडर के बाद वे उत्तर प्रदेश के शिकोहाबाद में रहते हैं। वह कहते हैं कि शिकोहाबाद रेलवे स्टेशन के बाहर मेरा नाम ले लेना, कोई भी मेरे पास पहुँचा देगा। रेल यात्रा के दौरान नेत्रपाल सिंह से मेरी लंबी-लंबी बातें होती थीं। कभी गोलियाँ चलाने वाले नेत्रपाल बातें फेंकने में भी माहिर हैं।

जौरा आश्रम के दौरा के क्रम में मेरी एक सरेंडर डकैत राम सनेही पन्डित से मुलाकात हुई थी। वे भी सरेंडर के बाद खेती किसानी में लग गये थे। वहाँ हमने माधो सिंह, मोहर सिंह की जोड़ी में से मोहर सिंह को भी देखा था। अब दोनों इस दुनिया में नहीं है। पर नेत्रपाल सिंह को राष्ट्रीय एकता शिविरों में आना और देश भर के नौजवानों से मिलना अच्छा लगता है। नई पीढ़ी के युवा भी उनसे मिलकर उनकी जुबाँ से शान्ति मैत्री का सन्देश सुनकर खुश होते हैं।

ऐसे बने थे डाकू

नेत्रपाल के सिर पर कभी 50 से ज्यादा हत्याओं के मुकदमे थे। वह एक समय लाखन गैंग का दायाँ हाथ थे। कभी चंबल के बीहड़ में उनकी दहशत थी। यूपी जनपद फिरोजाबाद के थाना मखनपुर क्षेत्र के गाँव हिम्मतपुर के रहने वाले नेत्रपाल के पिता का नाम अकबर सिंह था। 1954 में हाईस्कूल की परीक्षा पास कर 1955 में सेना में भर्ती हो गये, लेकिन सात माह कि बाद वह सेना की नौकरी छोड़कर आ गये। वे 1956 में पटवारी बन गए। सन 1958 में गाँव के ही एक परिवार ने रंजिशन उनके परदादा की हत्या कर दी। तब नेत्रपाल ने सरकारी नौकरी छोड़ दी और चंबल के मशहूर डाकू लाखन सिंह के गिरोह में शामिल हो गये।  पुलिस मुठभेड़ के दौरान 1960 में लाखन सिंह का पूरा गिरोह मारा गया था, केवल नेत्रपाल किसी तरह जिन्दा बच गये। फिर उन्होंने अपने नाम से एक नया गिरोह बनाया और 18 सालों तक अपने गिरोह कि साथ मिलकर 53 लोगों को मौत के घाट उतारा। गरीबों को सताने वाले 176 साहूकारों के यहाँ पर डकैती डाली और 87 अपहरण किये। 

और बदल गई जिन्दगी 

पर 1976 में  डॉ. एसएन सुब्बाराव की बातों ने उनके दिमाग को बदल कर रख दिया। इसी साल डॉ. सुब्बाराव के नेतृत्व में 413 डाकुओं का गिरोह प्रदेश के तत्कालीन मुख्य मन्त्री नारायण दत्त तिवारी से मिला। सरकार ने उनकी सरेंडर संबंधी सभी 20 शर्ते मान लीं। समर्पण के बाद नेत्रपाल को 10 साल की कैद हुई और वे 1986 में बरी होकर बाहर आ गये। तब से लोगों को शान्ति का सन्देश देने में जुटे हैं।

(देश मंथन 23 जून 2015)

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