संजय सिन्हा, संपादक, आजतक :
मेरी पत्नी की छोटी बहन का नाम है आभा। ईश्वर की ओर से मुझे बतौर साली वो मिली है। है तो पूरी अंग्रेजी वाली और मुझे नहीं लगता कि उसने अपनी जिन्दगी में हिंदी की कोई किताब पूरी पढ़ी होगी। प्रेमचंद का नाम सुना है, पर मेरा दावा है कि उनकी एक भी कहानी उसने किताब में आँखें गड़ा कर नहीं पढ़ी होगी। दो चार कहानियाँ मेरे मुँह से सुन कर ही हिंदी साहित्य का उसका भरा-पूरा ज्ञान हम सबके सामने है।
तो, मेरी जो साली हिंदी नहीं पढ़ती थी, उसने फेसबुक पर लिखे जाने वाले संजय सिन्हा के साहित्य को अपने मोबाइल पर पढ़ना शुरू किया और आज मैं कह सकता हूँ कि वो रोज मेरा लिखा न सिर्फ पढ़ती है, बल्कि मिलने पर टीका-टिप्पणी भी करती है।
इस तरह मैं कह सकता हूँ कि हिंदी पढ़ने के प्रति उसके मन में अलख जगाने वाले व्यक्ति का नाम संजय सिन्हा है।
मैंने चार-पाँच दिन पहले लिखा था कि चंद्रवती की कहानी आपको सुनानी है। फिर मैं अपनी आदत के मुताबिक रुक गया। तो, कल मेरी प्यारी साली ने मुझे संदेश भेजा कि चंद्रवती न हुई आपकी चंद्रमुखी हो गयी, जिसकी कहानी आप छिपाए बैठे हो। अरे, आपके परिजन आपकी चंद्रमुखी की कहानी सुनने को व्याकुल हुए जा रहे हैं और आप रोज-रोज जीवन-मृत्यु की कहानी सुनाये जा रहे हो।
पहली बार ऐसी शिकायत मेरे पास मेरी उस साली की आई है, जिसने खुद भी चंद्रवती की बातें मेरे मुँह से हजार बार सुनी हैं। जिसने न जाने कितनी बार ताना मारा है कि चंद्रवती के बिना संजय की कोई बात पूरी ही नहीं होती।
आज मुझे बात लग गयी है। आज मैं सब कुछ छोड़ कर आपको चंद्रवती की कहानी सुनाऊंगा। बस, मामला इतना है कि चंद्रवती की कहानी 25 वर्षों का लेखा-जोखा है, तो एक दिन में अगर पूरी न हो तो आप बुरा मत मानिएगा।
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“क्या नाम है तुम्हारा?”
“चंद्रवती।”
“क्या काम करती हो?”
“झाड़ू, पोंछा, बर्तन, सब काम आता है।”
“कितने पैसे?”
“दो सौ रुपये महीने।”
“ठीक है, आज से ही काम शुरू कर दो।”
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ये पूरी बातचीत जस की तस है, जो मेरी पत्नी और चंद्रवती के बीच हुई थी 25 साल पहले। मैं ड्राइंग रूम में बैठा था, दरवाजे पर एकदम गोल चेहरे वाली सांवली सी एक महिला खड़ी थी और मेरी पत्नी उसका इंटरव्यू ले रही थी।
हमारी शादी को डेढ़ साल हो चुका था। बेटा हो चुका था। मैं दाढ़ी बनाने लगा था और 23 साल की उम्र में 33 साल का दिखने की कोशिश करता था। लगता था कि मैं बहुत बड़ा हो चुका हूँ, संसार का सबसे जिम्मेदार पति और पिता मैं ही हूँ।
ऐसे में चंद्रवती दरवाजे पर खड़ी थी और मैं मन ही मन सोच रहा था कि क्या जरूरत है अपनी जिन्दगी में किसी और को शामिल करने की। हम देर रात दफ्तर से घर आते हैं, सुबह जब मन होता है, जागते हैं, और घर की साफ-सफाई करने में तो मेरा ही मन खूब लगता है, फिर इस झाड़ू-पोंछा वाली को रखने का क्या मतलब? वो रोज सुबह आएगी, दरवाजे की घंटी बजाएगी और न चाहते हुए भी हमें उसके लिए जागना पड़ेगा।
पर पत्नी उसे कह रही थी कि आज से ही काम शुरू कर दो।
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चंद्रवती ने दरवाजे पर चप्पल उतारी और दुपट्टा ड्राइंग रूम में पड़ी कुर्सी पर रख दिया। सीधे रसोई में घुस गयी।
ऐसा नहीं था कि पहले हमारे घर काम वाली नहीं रखी गयी थी। शादी के फौरन बाद ही हमारे घर काम वाली रख ली गयी थी। खाना बनाने की जिम्मेदारी हमारी थी, पर झाड़ू-पोंछा और बर्तन के लिए काम वाली कई बार रखी जा चुकी थी। साल भर में कोई चार काम वालियाँ रखी जा चुकी थीं। काम वालियाँ आतीं, कभी बिना बताए छुट्टी लेतीं और फिर उनकी छुट्टी हो जाती। कभी-कभी तो ऐसा भी होता कि वो एक दो बार घंटी बजाती, हमारे दरवाजा खोलने से पहले ही वो चली जाती।
इस तरह मैं काम वालियों से बहुत चिढ़ा हुआ था, और मेरा कोई इरादा नहीं था कि घर में काम वाली रखी जाए।
पर संसार पर शासन करने वाले पुरुष भी घर के मामले में कुछ नहीं बोल सकते। तो मेरे प्यारे परिजनों, चंद्रवती हमारे घर में रख ली गयी।
पर मैं आश्वस्त था कि चंद्रवती दो महीने से अधिक हमारे यहाँ नहीं टिकेगी।
अरे, सुबह छह बजे वो घंटी बजाएगी, हम दरवाजा ही नहीं खोलेंगे। एक-दो दिनों में वो खुद ही खिसक जाएगी।
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चंद्रवती ने काम शुरू कर दिया था।
पहले बर्तन, फिर झाड़ू पोंछा, फिर हमारे कपड़े धोना।
एक महीना, दो महीने, तीन महीने, चार महीने, पाँच महीने।
मेरी पत्नी को गॉल ब्लाडर में पथरी की शिकायत हुई। वो बीमार पड़ गयी। उसे अस्पताल में भर्ती कराया गया। अब चंद्रवती का क्या हो? घर की साफ-सफाई तो होनी थी। मैंने उसे घर की डुपलिकेट चाबी दे दी कि तुम सफाई करके रखना, हम अस्पताल से आएंगे तो घर साफ मिलना चाहिए।
चंद्रवती ने घर की सफाई की और चली गयी।
पत्नी अस्पताल से घर आई, पूरा घर चकाचक।
उसने आते ही पूछा कि घर किसने साफ किया? मैंने कहा कि चंद्रवती को घर की चाबी दे गया था।
“कोई काम वाली को चाबी देता है क्या?”
“हमारे घर में ऐसा क्या है जो कोई चुरा कर ले जाएगा? और अब तो इतने दिन बीत गये हैं, मुझे उस पर भरोसा हो गया है।”
“तुम तो किसी पर भरोसा कर बैठते हो। जब धोखा मिलेगा, तब अफसोस करोगे।”
“किसी को धोखा देने से धोखा खाना बेहतर होता है।”
“बस, तुमसे तो कोई फिलॉसिफी बतिया ले।”
“पर देखो तो सही, उसने घर और बिस्तर सब एकदम दुरुस्त कर दिया है।”
और उस दिन से चंद्रवती के जिम्मे एक और काम आ गया, हमारा बिस्तर भी ठीक करना।
मेरा बेटा साल भर का हो गया था। वो भी चंद्रवती से काफी घुल मिल गया था। अब वो हमारे घर में परिवार की तरह हो चुकी थी।
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साल भर बाद उसकी सैलरी बढ़ा कर हमने ढाई सौ रुपये महीना कर दी।
साल और बीता उसकी सैलरी तीन सौ रुपये कर दी गई। चंद्रवती रोज आती। एकदम समय पर आती। अब हम चंद्रवती के होने के अभ्यस्त हो चुके थे। समझ लीजिए कि हम दस दिनों के लिए बाहर गये, तो चंद्रवती को चाबी दे कर चले जाते कि तुम हमारे पीछे घर की सफाई करती रहना।
चंद्रवती लिखना-पढ़ना नहीं जानती थी और आम काम काम वालियों के पति की तरह उसका पति भी दारू पीता था, दारू पीकर उसे मारता-पीटता था। मुझे लगता है कि इसी सब में चंद्रवती के सात बच्चे हो चुके थे। सबसे बड़ी बेटी बीस साल की थी और सबसे छोटा बेटा साल भर का।
जिस दिन उसके चेहरे पर चोट के निशान होते, वो पत्नी को सारी कहानी सुनाया करती, “कल पति ने सारे पैसे छीन लिए। दारू ले आया। मना करने पर पिटाई की।”
मामला मुझ तक पहुँचता। मैं कहता कि पुलिस में केस कर दो। पर पति के खिलाफ कौन पुलिस में जाता है?
बात वहीं रुक जाती।
एक दिन मैंने चंद्रवती से कहा कि तुम अपना अकाउंट खुलवा लो। मैं तुम्हारे पैसे बैंक में जमा करा दूँगा और फिर तुम पैसे लेकर घर मत जाना। जितने पैसों की जरूरत होगी, तुम निकालती रहना।
चंद्रवती ने कहा कि उसे लिखना-पढ़ना नहीं आता। और इतने से पैसों में कितना बैंक में डालेगी, कितना निकालेगी?
मैंने उसे लालच दिया कि अगर बैंक में खाता खुलवा लोगी तो मैं हर महीने तुम्हे सौ रुपये अधिक दूँगा। इस तरह तुम्हारे पास पैसे बचने लगेंगे।
इस पर वो राजी हो गयी। मैंने उसे दस्तखत करना सिखाया। उसे गाड़ी में बिठा कर पास के बैंक ले गया। प्रधान मंत्री योजना के तहत तो अब खाता खुलवाना आसान और जरूरी हुआ है, पर 24 साल पहले बैंक मैनेजर से बहुत सिफारिश करके मैंने उसका अकाउंट खुलवाया।
मेरी जिम्मेदारी थी कि उसके अकाउंट में हर महीने पैसे जमा होते रहें। पैसे जमा होते रहे। धीरे-धीरे चंद्रवती बैंक के सिस्टम को समझने लगी। अब वो खुद बैंक जाने लगी थी, पैसे जमा करना और निकालना उसने सीख लिया था।
अब वो कहीं और अगर काम करती तो उस पैसे को घर में खर्च करती, हम जो पैसे देते वो बैंक में रहने देती।
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अब समय आ गया था जब हमें अमेरिका जाना था।
मेरी पत्नी जो उस दिन मुझसे कह रही थी कि काम वालियों को चाबी नहीं देते, वो अमेरिका जाते हुए चंद्रवती को चाबी देकर जा रही थी कि हम कई साल बाद आएँगे, तुम हमारी गैर मौजूदगी में जब मन हो, घर की साफ-सफाई करती रहना।
हम कई साल अमेरिका में रहे, पीछे से हमारा घर साफ होता रहा, बिस्तर के चादर बदलते रहे। उसके पैसे बैंक में जमा होते रहे।
चंद्रवती जब मेरे घर पहली बार आयी थी, तब उसने बताया था कि उसकी उम्र 40 साल है।
40 साल की चंद्रवती पिछले 25 वर्षों से हमारी जिन्दगी में समाहित है। यानी अब वो 65 की हो गयी है।
उम्र के इस पड़ाव पर मैं आज उसकी कहानी रोक कर आपको ये बताना चाहता हूँ कि जिस चंद्रवती की कहानी आज मैं आपको सुना रहा हूँ, उसे सुन कर आपको अपने में झांकना पड़ेगा और सोचना पड़ेगा कि क्या सचमुच चंद्रवती किसी महिला का नाम है? या फिर हम सब ही चंद्रवती हैं?
चंद्रवती को जिन्दगी से शिकायत नहीं, पर मुझे है। आपको पूरी कहानी सुनाऊँगा तो आपको भी शिकायत होगी। होनी चाहिए।
मैं चाहता हूँ कि आज आप इस बात पर मंथन करें कि क्यों शिकायत होनी चाहिए? आज आप मंथन कीजिए, कल मैं ये बताऊँगा कि हम सब में कैसे एक चंद्रवती समाहित है। ऐसी चंद्रवती जिसके बिना हमारी जिन्दगी अधूरी है, पर मुझे शिकायत है चंद्रवती के मुझमें, आपमें और हम सब में समाहित होने पर।
काश चंद्रवती न होती! काश चंद्रवती हमें छोड़ कर चली गयी होती!
बहुत से काश हैं जिनके जवाब का इंतजार आपको मिलेगा। कल मिलेगा।
(देश मंथन, 06 मई 2016)