चंद्रवती मत बनें

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संजय सिन्हा, संपादक, आजतक :

पटना में था तो घर में काम करने वाली महिला को हम ‘दाई’ बुलाते थे। भोपाल गया तो वहाँ घर पर काम करने वाली को ‘बाई’ बुलाने लगे। वैसे तो दिल्ली मुझ जैसे जहीन इंसान के लिए रत्ती भर मुफीद जगह नहीं है, जहाँ बात-बात पर माँ-बहन को घसीट लिया जाता है, पर यहाँ घर में काम करने वाली महिला को ‘माई’ बुलाने का रिवाज है और यह रिवाज मुझे बहुत अच्छा लगता है। 

मेरे पिताजी अपनी माँ को माई ही बुलाते थे। सोने जाने से पहले वो कुछ देर अपनी माई के साथ जरूर बैठते और मेरी दादी उनके सिर में कभी तेल लगातीं, कभी कहतीं कि तुम अपने खाने-पीने का ध्यान नहीं रखते। माई-बेटे का यह प्यार देख कर मैं विभोर हो उठता, वो भी तब जब कि मेरे पिता की माँ संसार में थीं, मेरी नहीं। 

मेरी माई की मौत के करीब आठ वर्षों बाद तक पिताजी की माई जिन्दा रहीं। 

ऐसे में चंद्रवती हमारे घर माई बन कर आयी थी। 

मुझे याद है मेरे फुफेरे भाई हमारे घर आये थे, और जैसे ही हमने उन्हें बताया कि ये नयी माई है, वो बिदक गयी थे। “माई? तुमने भी दाई को माई कहना शुरू कर दिया?”

“हाँ भैया, यहाँ दाई को माई ही कहते हैं।”

भैया किसी गहरी याद में खो गये थे। मैंने उनसे पूछा नहीं पर मैं कयास लगा पा रहा था कि मेरे फूफा के पिताजी की शादी में उनकी पत्नी के साथ स्थायी रूप से एक दाई उनके ससुराल भेजी गयी थी। सुना है, तब ये रिवाज था कि लड़की के साथ शादी में उसकी मुँहलगी दाई भी दहेज में भेजी जाती थी। यह मुँहलगी दाई अपनी मालकिन की निजी सेविका होती थी। मुझे नहीं पता कि बाकी जगह इसे क्या कहते हैं, पर हमारे घर इस तरह की काम वालियों को ‘लोकनी’ कहते थे। 

तो फूफाजी की माँ के साथ शादी में बतौर दहेज आई लोकनी देखने में ठीक रही होगी, इसीलिए शायद फूफाजी के पिताजी की कृपा दृष्टि बुआ की सास की लोकनी पर भी पड़ी। इस तरह फूफा जी जब पैदा हुए तो साथ में लोकनी चाची से उनके मुँहबोले भाई का भी जन्म हुआ। यानी मेरे फुफेरे भाई के मुँहबोले चाचा इस संसार में एक दाई की दुआ से आए। 

अब उन्हें नाम मिल गया था, दाई माई। 

यानी एक ऐसी दाई, जो फूफाजी की माई थी और मेरे फुफेरे भाई की दाई दादी। पर दाई दादी कहे जाने का रिवाज था नहीं, इसलिए उन्हें सब दाई माई ही बुलाते। 

मैं जब भी फूफाजी के घर गया, हमें सख्त निर्देश था कि दाई माई के पाँव छू कर उन्हें प्रणाम करना है। 

दाई माई वैसे तो किसी से ज्यादा बातचीत नहीं करती थीं, न किसी के लिए समस्या थीं, पर फूफाजी के पिताजी अपने बहुत बड़े घर का एक छोटा सा हिस्सा दाई माई के नाम करके इस संसार से रुखसत हो गये थे। 

बुआ तो कुछ नहीं कहती थीं, लेकिन मेरे फूफेरे भाई का खून खौलता था, संपत्ति में इस तरह बेवजह बंटवारा देख कर। 

और उन्होंने भड़क कर मुझसे कहा, “संजय, ये माई वाली बात ठीक नहीं। तुम दाई ही कह कर बुलाना।”

मैं मुस्कुराता रहा। 

तय नहीं हुआ कि चंद्रवती को हम दाई कहेंगे या माई। समय के साथ यह अघोषित फैसला हो गया कि चंद्रवती हमारे घर सिर्फ चंद्रवती रहेगी। न दाई, न माई।

***

चंद्रवती हमारे घर काम करती रही। 

एक बार पत्नी से किसी बात पर चंद्रवती उलझ गयी। उलझ क्या गयी, काम छोड़ कर चली गयी। एक दो माइयों को पत्नी पकड़ कर लाई भी, लेकिन चंद्रवती वाली बात किसी में नहीं थी। 

चंद्रवती की अनुपस्थिति में तारा, रेखा, खुशी और न जाने कितनी माइयाँ हमारे घर आईं, पर मेरा मन अटका था चंद्रवती पर। मैं किसी और की मौजूदगी में उतना सहज नहीं था। मैं सोया रहता, चंद्रवती घर साफ कर देती। मैं नहा रहा होता, चंद्रवती बिस्तर ठीक कर देती। उसे घर में काम करते हुए कई साल बीत चुके थे और अब वो हमारे परिवार का हिस्सा बन चुकी थी। ऐसे में चंद्रवती का एक दिन रूठ कर चले जाना मुझे बहुत भीतर तक आहत कर गया। 

बाकी काम वालियाँ घर आईं तो सही, पर अब मैं ही उनके काम में कमियाँ निकालने लगा। मैं किसी काम वाली से बात नहीं करता था, पर पत्नी को रोज उलाहने देता कि ये काम ठीक नहीं हुआ है, वो ठीक नहीं हुआ। 

एक दिन खीझ कर पत्नी ने कहा कि जा कर अपनी चंद्रवती को मना कर ले आओ। मैं उसके आगे जा कर गिड़गिड़ाऊँगी नहीं। 

इतना सुनना था कि मैं पहुँच गया चंद्रवती के पास। मुझे देख कर वो खुश हो गई। मैंने कहा कि तुम आजकल काम पर नहीं आ रही। उसने ज्यादा कुछ नहीं कहा, बस इतना कहा कि कल से आऊँगी। 

और वो चली आयी। 

आज मैं सोच रहा हूँ कि जब वो रूठ कर हमारे घर से चली गयी थी, तब काश मैं उसे मनाने नहीं गया होता! काश वो नहीं आयी होती!

आप सोच रहे होंगे कि मैं ऐसा क्यों कह रहा हूँ? मैं ऐसा क्यों कह रहा हूँ, वो बताऊँगा, पर अभी तो यही बताता चलूँ कि चंद्रवती किसी एक महिला का नाम नहीं है। चंद्रवती मैं हूँ, चंद्रवती आप है। चंद्रवती हम सब हैं। 

हम चंद्रवती हैं, इसका अहसास मुझे उसके साथ जीवन के 25 साल गुजारने के बाद हो रहा है। मुझे अफसोस है अपने फैसले पर, मुझे अफसोस है चंद्रवती के फैसले पर। एक गलत फैसला कैसे हम सब की जिन्दगी खराब कर सकता है, चंद्रवती इसका सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है। अगर मैं वैज्ञानिक होता तो मैं उन सबकी जिन्दगी पर शोध करता, जिनकी जिन्दगी चंद्रवती जैसी होती है। मैं इसे नाम देता चंद्रवती सिंड्रोम। 

***

उम्र के साठवें पड़ाव पर पहुँच कर चंद्रवती को दिखना कम हो चुका था। 

चंद्रवती कहीं से डॉक्टर को दिखला कर एक पावर वाला चश्मा ले आयी थी। और अब वो जब भी हमारे घर आती, मुझे लगता कि कोई मास्टरनी हमारे घर लोगों को पढ़ाने आयी है। हालाँकि चंद्रवती रत्ती भर लिखना-पढ़ना नहीं जानती थी। 

अब वो हमारे घर का काम अंदाज पर करने लगी थी। उसे चीजें नजर नहीं आतीं पर इतने साल से एक ही घर में काम करते-करते वो अंदाज से साफ-सफाई करने लगी। ऐसे में कभी फूलदान टूटता, कभी कोई शो पीस। 

झाँय-झाँय चलता, पर चंद्रवती हमारा घर छोड़ कर नहीं गयी। हालाँकि पहले वो मेरे घर के अलावा कई और घरों में काम करती थी, पर उसके बाकी के घर छूटते चले गये। एक दिन मेरी पत्नी ने कहा कि इससे अब काम नहीं होता। 

लेकिन मैं किसी कीमत पर तैयार ही नहीं था कि वो घर छोड़ कर जाये। न मैं तैयार था, न चंद्रवती। 

आज मैं सोच रहा था कि चंद्रवती की कहानी थोड़ी छोटी करके खत्म कर दूँ,पर 25 साल का साथ ऐसे छूटता है क्या? 

जितना मैं चंद्रवती के साथ रहा हूँ, उतना समय तो मैं अपनी माँ और किसी बहन के साथ भी नहीं गुजार पाया हूँ। ऐसे में चंद्रवती टिकी रही। टिकी क्या रही, मुझ पर अपना पूरे हक के साथ टिकी रही। हक का एक उदाहरण नहीं, सौ हैं। सुबह मेरी पत्नी मुझे ग्रीन लीफ की कम दूध और कम चीनी वाली चाय देती है। चंद्रवती उसे ऐसा करते हुए देख कर मन ही मन खीझती है। ये भी कोई चाय हुई भला? 

और घर जाने से पहले खूब दूध और चीनी वाली चाय बना कर मेरे हाथों में पकड़ा जाती है कि ये पीओ।

पत्नी चाय की प्याली हाथ में आते समय तो कुछ नहीं बोलती, पर जैसे ही चंद्रवती रसोई में घुसती, पत्नी का इशारा होता कि इतनी चीनी वाली चाय गटक मत जाना। 

धर्म संकट में संजय सिन्हा। न पत्नी को नाराज करना है, न चंद्रवती को। एकाध घूँट चंद्रवती का मन रखने के लिए पीता हूँ, दो चार घूँट पत्नी का मन रखने के छोड़ देता हूँ। 

खैर, ये शीत युद्ध है जो जारी है पिछले 25 वर्षों से। 

याद करने बैठूंगा तो ऐसी हजार घटनाएँ याद आती चली आएंगी। जैसे हर राखी पर चंद्रवती का अपनी बेटी को साथ लाना और दोनों का मुझे राखी बांधना। बड़ा अजीब लगता, माँक-बेटी दोनों राखी बांधतीं। एक बेटी की शादी हुई, दूसरी आने लगी। दूसरी की शादी हुई तीसरी आने लगी। 

ऐसे ही जीवन चलता रहा। चंद्रवती के छह बच्चों की शादियाँ हो गईं। हर शादी में मेरा कमिटमेंट अपना था। उसकी चर्चा यहाँ नहीं, पर यह मैं लिख सकता हूँ कि उसकी सैलरी बैंक में डालने का नतीजा ये रहा कि हर शादी उसने धूमधाम से की। 

पर मैं चंद्रवती की कहानी आपको ये बताने के लिए नहीं लिख रहा कि दिल्ली की एक माई से संजय सिन्हा के रिश्ते कैसे थे। मैं असल में कुछ बताना ही नहीं चाह रहा। मैं तो पूछना चाह रहा हूँ कि क्या हम सब चंद्रवती हैं? 

अगर हाँ, तो आज से संभल जाइए। चंद्रवती होना एक भूल है। एक चूक है। मेरे लिए भी, आपके लिए भी और खुद चंद्रवती के लिए भी। इसीलिए कल जब मैंने चंद्रवती की कहानी लिखनी शुरू की तो मेरा पहला सवाल यही था कि चंद्रवती हमारे घर को छोड़ कर चली क्यों नहीं गयी थी? मैंने उसे इतने दिनों तक रोक कर ही क्यों रखा?

क्योंकि वो गयी नहीं और मैंने निकाला नहीं इसलिए आज मैं अफसोस में डूबा हूं। आज मैं जिन्दगी से सवाल पूछ रहा हूँ। आज मैं आप सबसे अनुरोध कर रहा हूँ कि आप चंद्रवती मत बनें। 

क्यों नहीं बनें, यह मैं बताऊंगा। पर कल। 

बस जरा सा इंतजार।  

(देश मंथन, 07 मई 2016)

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