अपने-अपने रिश्तों का बोध होना चाहिए

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संजय सिन्हा, संपादक, आजतक : 

पत्नी धीरे से आकर कान में फुसफुसाई कि शायद वो माँ बनने वाली है। 

ट्रेन की रफ्तार बहुत तेज थी। मैं ऊपर बर्थ पर लेट कर किताब पढ़ रहा था।

वो अचानक अपनी सीट से उठी और मुझे हिला कर उसने मेरा ध्यान अपनी ओर खींचा और एकदम फिल्मी स्टाइल में अपनी बात कह गई। 

माँ बनने वाली हो? मतलब मैं पिता बनने वाला हूँ। 

मैंने अबतक यही सुना था कि माँ बनने की अनुभूति संसार में सबसे सुखद अनुभूति होती है, पर ये तो पिता बनने की अनुभूति भी गजब सुखदायक थी। मैंने अपने पेट पर हाथ फेरा, फिर खुद ही हंस पड़ा। बच्चा मेरी कोख में थोड़े ही है, पर पिता बनने का पहला अहसास वहीं से हुआ। 

हम पिताजी से मिलने पटना गए थे। पटना से दिल्ली आते हुए तिनसुकिया मेल का वो एसी कम्पार्टमेंट मेरे लिए खुशियों का ऐसा संसार बन गया कि लगा कि यहीं गोल-गोल घूम जाऊं। फिर हम दिल्ली पहुँचे। अगले दिन हमने खान मार्केट में एक परिचित डॉक्टर से समय लिया और पहुँच गए अपनी अनुभूति को कन्फर्म करवाने। डॉक्टर ने पत्नी के कुछ जांच किए और कह दिया, बधाई हो! आप पिता बनने वाले हैं। 

अब तक मैं न जाने कितने डॉक्टरों से मिल चुका हूँ लेकिन वो डॉक्टर मुझे नाम पता और चेहरे के साथ आज भी याद है। 

बस फिर क्या था। जैसे मातृत्व शरीर से अधिक मन की भावना है, वैसे ही पितृत्व भी मन की भावना होती है, पहली बार समझा। कल तक जो संजय सिन्हा जो खुद एक बच्चा था, अचानक बड़ा हो गया था। पत्नी में मुझे माँ नजर आने लगी थी, और मैं खुद को पिता की जगह देखने लगा था। कहीं बैठता तो अपने पिता की तरह जूते से जमीन पर टक-टक की आवाज निकालता और खुद को पिता के सांचे में ढलता हुआ पाता।

कहानी तो नौ महीने की ही है, लेकिन लिखने को नौ सौ पन्ने हैं। कैसे मैं रोज बंगाली मार्केट जाकर तरह-तरह की खाने की चीजें ले आया करता और उस बच्चे के मुँह में वो स्वाद लगाने की कोशिश करता, जो अभी कोख में था। मेरा मन करता कि कबाब खाऊँ तो तब अपनी शाकाहारी पत्नी को उकसाता कि उसे भी कबाब खिलाओ। मैं कहता कि तुम थोड़े ही खा रही हो, ये तो वो उसका हिस्सा है और इस तरह धीरे-धीरे शाकाहारी पत्नी सबकुछ खाने लगी। 

बीच में पत्नी की तबीयत खराब हुई तो फिर डॉक्टर ने कह दिया कि अब दफ्तर जाने की जरूरत नहीं। बस आराम कीजिए। 

वो आराम करने लगी, मैं काम करने लगा। 

मैं कोई डॉक्टर तो हूँ नहीं लेकिन जब कभी मेरे पेट में दर्द होता था पिताजी पुदीन हरा दे दिया करते थे। पुदीन हरा पीते ही, दर्द छूमंतर। 

पत्नी ने एक रात बताया कि उसके पेट में दर्द हो रहा है। मैंने कहा, “पुदीन हरा जिंदाबाद।” 

पुदीन हरा पिलाया। फिर थोड़ी देर में उसने कहा, दर्द बढ़ रहा है। मैंने फिर पुदीन हरा पिला दिया। इस तरह सारी रात पुदीन हरा का हरा हरा इलाज चलता रहा। 

हमारे देश की शिक्षा व्यवस्था में पता नहीं क्यों डॉक्टर, इंजीनियर, प्रोफेसर, पत्रकार और ढेरों चीज बनने की पढ़ाई कराई जाती है लेकिन आदमी बनने, पिता बनने, माँ बनने की शिक्षा नहीं दी जाती। हमें बताया ही नहीं जाता कि हमारा शरीर है क्या? नर और मादा के जो दो शरीर जब आपस में मिलते हैं, तो वो कैसे तन से अधिक मन का मिलन होना चाहिये। कैसे मन का एकाकार होना ही तन का एकाकार होना होता है। नर और मादा के शरीर के मिलन की गोपनीय विद्या का आलम ये हुआ कि हम जैसे दो पढ़े-लिखे लोग सिर्फ इसलिए उस दर्द को ‘लेबर पेन’ नहीं समझ पाए, क्योंकि सुबह पत्नी ने डॉक्टर को दिखाया था, डॉक्टर ने कह दिया था कि सबकुछ नॉर्मल है, आप चिंता मत कीजिए। 

डॉक्टर ने सारा कुछ मशीन से जांचा था। उसे मशीन पर भरोसा था। पत्नी को डॉक्टर पर भरोसा था। 

मैं तो पटना और भोपाल में पढ़ा हुआ छोटे शहर का बालक था, पर पत्नी दिल्ली की थी। मैं हिंदी वाला, वो अंग्रेजी वाली। मुझे अंग्रेजी वाली पर भरोसा था। भरोसे के इस खेल में उसे उस रात बच्चा होने वाला दर्द हुआ, जिसे अंग्रेजी में लेबर पेन क्यों कहते हैं, ये सवाल पहली बार मेरे जेहन में आज ही आया है, पत्नी अभी सोकर उठेगी तो उससे पूछूंगा। फिलहाल सच ये है कि उस लेबर पेन में सारी रात वो हिंदी वाले की पेशकश ‘पुदीन हरा’ को पीती रही। सुबह मैं भाग कर मकान मालकिन के पास गया ये कहने कि पत्नी को डॉक्टर के पास ले जाना पड़ेगा, वो सारी रात दर्द में रही है। मकान मालकिन की छोटी बहन वही थीं, जो नर्स थी। वो भाग कर पत्नी के पास आई और सिर पीटने लगी। अरे ये तो लेबर पेन है। अभी भागो अस्पताल। बच्चा होने वाला है। 

लो जी सारे भरोसे की ऐसी तैसी हो गई। मशीन की, डॉक्टर की, अंग्रेजी की और…

जिस दिन अस्पताल गए उसी दिन मैं पिता बन गया। 

कुछ दिनों के बाद हम अस्पताल से घर लौट रहे थे, तो डॉक्टर ने पत्नी के हाथ में बच्चे को पकड़ाया। मैंने पत्नी के हाथ से बच्चे को ले लिया। उसने मेरी ओर देखा तो मैंने कहा कि तुम गिरा दोगी। तुम अभी खुद छोटी हो। तुम्हें बच्चा उठाना नहीं आता। वो झेंप गई। घर के सारे रास्ते बच्चा मेरी गोद में रहा। फिर उसके बाद दो साल का होने तक बेटा दूध पीने तक माँ के पास रहता, बाकी मेरे पेट पर सोता। उसे पेट पर सोने की आदत पड़ गई। हम बैंगलोर, ऊटी, काठमांडू पता नहीं कहाँ-कहाँ घूमने गए। वो मेरी छाती से चिपक कर अंगूठा चूसता। 

बच्चा उठाने का मेरा कॉनफिडेंस गजब का था। इतने गजब का कि जब मेरी साली का बेटा हुआ और हम एक बार मुंबई घूमने गए तो पत्नी और साली को शॉपिंग पर भेज कर मैं खुद उसके बेटे को गोद में उठाए मैं सड़कों पर घूमता रहा। दो घंटे में उसने न जाने कितनी बार सुसु किया। मेरी पूरी शर्ट गीली हो गई। किसी तरह उसे गोद में लिए हुए ही मैं एक दुकान से शर्ट खरीद कर लाया, और उसे वहीं चेंज किया। 

दो दिन पहले मैं अपने फेसबुक परिजन Harikishan Sharma की पोतियों की शादी में गया। वहाँ उनके किसी रिश्तेदार ने अपने छोटे से बच्चे को मेरी गोद में रख दिया कि आशीर्वाद दूँ। मेरी तो मेरी बांछें खिल गईं। अहा, फिर मेरी गोद में बच्चा। मेरा रोम-रोम खिल उठा। एक मिनट बच्चा गोद में रहा, Nitin Kajla ने उस मिनट को मोबाइल में कैद कर लिया।

तस्वीर देखिए तो सही। ये सही है कि समय के साथ बच्चा उठाने की प्रैक्टिस खत्म हो गई है और बच्चा रो भी रहा है, पर रो इसलिए थोड़े ही रहा है कि मैंने उसे ठीक से उठाया नहीं है। वो तो इसलिए रो रहा है, क्योंकि पैदा होते ही बच्चे गोद को पहचानने लगते हैं। 

इस तस्वीर को कल से सौ बार देख चुका हूँ। अपने होठों की मुस्कुराहट पर मर-मर जा रहा हूँ। पिता होने का बोध, माँ होने के बोध से रत्ती भर कम नहीं होता।

ये सारा खेल बोध होने का ही है। सबको अपने-अपने रिश्तों का बोध होना चाहिए। 

यही एकमात्र अंतर है, मनुष्य होने और मनुष्य नहीं होने में।

(देश मंथन, 10 मार्च 2015)

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