संजय सिन्हा, संपादक, आज तक :
मेरी आज की कहानी बड़ों से ज्यादा बच्चों के लिए है। अब बच्चे तो मेरे दोस्त हैं नहीं, तो बच्चों के पापाओं और बच्चों की मम्मियों से मैं अनुरोध करूँगा कि मेरी आज की पोस्ट वो अपने बच्चों को जरूर सुनाएँ।
कल मैं दिल्ली के एक बड़े शॉपिंग मॉल में गया। वहाँ मुझे एक दुकान में स्टोर मैनेजर से मिलना था। मैंने दुकान में खड़े सिक्योरिटी गार्ड से पूछा कि स्टोर मैनेजर कहाँ मिलेंगे। गार्ड मुझे अपने साथ मैनेजर के केबिन तक लेकर गया। वहाँ मुझे कमरे में एक दुबला-पतला युवक बैठा दिखा। उसने मोटा सा चश्मा लगा रखा था। गार्ड ने मुझे दूर से दिखाया कि यही मैनेजर हैं।
मैं मैनेजर के पास गया। मुझे उससे उसके स्टोर से खरीदे किसी सामान की शिकायत करनी थी। मैनेजर ने ध्यान से मेरी बात सुनी और उसने मुझसे बैठने का इशारा किया और कहा कि वो इस सामान के विषय में किसी से फोन पर बात करके अभी लौट कर आ रहा है।
मैं मैनेजर का इंतजार करने लगा। संजय सिन्हा मैनेजर का इंतजार करने लगें, ये कितनी देर तक मुमकिन रहता?
मिनट भर बाद ही मुझे लगने लगा कि बहुत देर हो गयी है।
कुछ पत्रकारों को छोटे लोगों पर रौब दिखाने की बुरी बीमारी हो जाती है। मुझे कल पता चला कि मैं भी इससे अछूता नहीं। एक मिनट बाद ही मुझे लगने लगा कि एक घंटा बीत गया है। मुझ जैसे पत्रकार को तो बड़े-बड़े नेता और अभिनेता भी इंतजार करने के लिए नहीं कहते, फिर ये अदना सा स्टोर मैनेजर मुझसे कह गया कि आप यहाँ बैठ कर इंतजार कीजिए!
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मैं मैनेजर के कमरे से बाहर निकल आया, तो मैंने देखा कि वो छह फीट का गार्ड वहीं बाहर खड़ा है। अपनी आदत के मुताबिक मैं गार्ड से बात करने लगा।
“ये तुम्हारा मैनेजर कहाँ गया?”
“साहब, वो उस डिपार्टमेंट में गये हैं, जहाँ से आपने सामान लिया था।”
“ये मरियल सा चश्माधारी जानता नहीं कि मैं किसी का इंतजार नहीं करता। मैं सामान वापस करने आया था, फटाफट वापस करना चाहिए था।”
“पर साहब, सामान वापसी का नियम यही है। उस डिपार्टमेंट में उसके विषय में रिपोर्ट लिखानी पड़ती है। मैनेजर उनसे जवाब-तलब करते हैं कि गड़बड़ी क्यों हुई। फिर वो वाउचर पर साइन करके आपको दे देंगे।”
पत्रकारों को एक बीमारी बेवजह बात खींचने की भी होती है। मैं भी लगा रहा उस गार्ड से।
“तुम तो इतने हैंडसम हो। छह फीट के हो। तुम मैनेजर से डरते हो क्या?”
“साहब, मेरा हैंडसम होना, मेरा छह फीट का होना कोई मायने नहीं रखता। वो आदमी मुझसे अधिक पढ़ा लिखा है।”
“पढ़ा-लिखा है तो क्या हुआ, तुमसे ज़्यादा शक्तिशाली थोड़े न है?
“कैसी बातें करते हैं साहब! उसके पास कलम की ताकत है। यह तो आप भी जानते ही होंगे कि शरीर की ताकत से अधिक ताकत कलम में होती है।”
“फिर तुमने पढ़ायी क्यों नहीं की?”
“इस बात का तो जिन्दगी भर अफसोस रहेगा। माँ-बाप स्कूल भेजते थे, मैं ही स्कूल से भाग कर खेलने निकल जाता था। माँ-बाप ने गाँव में टीचर को घर बुला कर भी पढ़ाने की कोशिश की, पर अफसोस की मेरी किस्मत में पढ़ायी थी ही नहीं।”
अब मुझे लगने लगा कि मैंने बेकार में ये टॉपिक इस गार्ड से छेड़ दिया। उसे सांत्वना देने के लिए मैंने कहा कि गाँव में पढ़ायी का माहौल भी तो नहीं होता। स्कूल-कॉलेज भी ठीक नहीं होते।
“नहीं साहब! ये सही बहाना नहीं है पढ़ायी न कर पाने के लिए। गाँव में भी सरकार ने स्कूल खोले हैं। और तो और थोड़ी दूर ही शहर में कॉलेज भी है। नहीं पढ़ने के हजार बहाने होते हैं। मैं तो कहता हूँ कि जो भी यह बहाना करता है कि उसे पढ़ने का मौका नहीं मिला, वो एकदम झूठ बोलता है। मैं यह तो मान सकता हूँ कि शहर के स्कूलों में अलग टीचर होते होंगे, पर गाँव में भी वही किताबें पढ़ायी जाती हैं। असल में पढ़ वही बच्चा सकता है, जिसके सामने पढ़ने की मजबूरी हो या फिर उसे पढ़ने का शौक हो।”
“तुम इतना समझदार हो, फिर तो तुम्हें पढ़ायी करनी चाहिए थी।”
“बस साहब इसी को किस्मत कहते हैं। ये जो मैनेजर है न! वो मेरे गाँव का ही है। वो भी उसी स्कूल में पढ़ा है। बाद में ये आगे पढ़ायी के लिए शहर चला गया। पर अपने बूते पर गया। हम ढेर सारे बच्चे जो आज छह फीट के हैं, बचपन में इसका मजाक उड़ाया करते थे। जिस दिन स्कूल में मास्टर नहीं आते हम वहाँ से निकल कर दो मील दूर सिनेमा देखने पैदल चले जाते थे। ये पेड़ के नीचे बैठ कर कुछ-कुछ पढ़ता था। मेरे पिताजी के पास जमीन थी, इसके पास कुछ नहीं था। मुझे जमीन का घमंड था। पिताजी ने बहुत कोशिश की कि मैं पढ़ लूँ। पर मैं नहीं पढ़ पाया। फिर पिताजी की बीमारी में जमीन बिक गयी। मैं बेरोजगार बैठा था। गाँव में कोई पूछने वाला नहीं था। बहुत दिनों बाद यही लड़का, जिसे आप मरियल कह रहे हैं, मुझसे मिलने आया। मैंने इससे अपनी तकलीफ साझा की। ये मुझे अपने साथ दिल्ली लेकर आया। मुझे किसी तरह यहाँ इसने नौकरी दिलायी। फिलहाल खर्चा-पानी चल रहा है। साहब ये तो कहता है कि अभी भी कुछ नहीं बिगड़ा, अभी भी प्राइवेट पढ़ायी पूरी करो। ये मुझे आज भी पढ़ने के लिए उकसाता है। इसने गाँव के ढेर सारे बच्चों की, जो कुछ नहीं करते थे, अपनी तरफ से मदद की है। ये कहता है कि सरकार को कोसना बंद करो। लोगों पर हंसना बंद करो। पढ़ायी करो। नहीं तो एक दिन लोग तुम पर हंसेंगे, तुम्हें कोसेंगे।
साहब! मैं तो कहता हूँ कि आप भी उन बच्चों को, जो बच्चे स्कूल से भाग कर यहाँ मॉल में शॉपिंग करते या सिनेमा देखते नजर आएँ, समझाइएगा कि आज की ये मस्ती कल तुम्हें भारी पड़ेगी।”
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मैं हैरान होकर उस गार्ड की बातें सुनता रहा। सोचता रहा।
फिर मुझे लगा कि कुल दो मिनट में यह गार्ड मुझे कितनी बड़ी बात समझा गया।
“लोगों को कोसना बंद करो। लोगों पर हँसना बंद करो। पढ़ायी करो। नहीं तो एक दिन लोग तुम पर हंसेंगे, तुम्हें कोसेंगे।”
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मैनेजर वापस आ चुका था। उसने मेरे पैसे रिफंड करने का वाउचर मुझे दिया। असुविधा के लिए स्टोर की ओर से मुझसे माफी माँगी। हाथ मिला कर चला गया।
(देश मंथन 15 फरवरी 2016)