संजय सिन्हा, संपादक, आजतक :
वैसे तो मेरे पास इतना समय नहीं है कि मैं रोज आइने में अपना चेहरा देख सकूँ। सुबह ब्रश करते हुए जितना दिख जाता है, उतना ही काफी है।
चेहरे पर दाढ़ी कम है, तो मुझे दाढ़ी बनाने के लिए पुराने जमाने के लोगों की तरह गरम पानी और साबुन की जरूरत नहीं पड़ती। पहले तो दाढ़ी साफ करने के लिए सेफ्टी रेजर का इस्तेमाल करता था, लेकिन पिछले कई वर्षों से इस काम के लिए गालों पर मशीन दौड़ा लेता हूँ, जितने बाल हैं, सब सफाचट हो जाते हैं। इसके लिए आइना देखने की दरकार ही नहीं होती। गालों पर हर जगह मशीन घुमा लीजिए, चेहरा साफ।
दाढ़ी बनाने के अलावा एक मौका है, कन्घी के दौरान आइना देखा जा सकता है। नहा कर मैं बालों पर उंगलियाँ फिरा लेता हूँ, कन्घी की जरूरत ही नहीं पड़ती।
पता नहीं कल सुबह कैसे अपने चेहरे को मैंने आइने में गौर से देख लिया। मेरी आँखें मेरी कनपटी के नीचे के उस सफेद बाल पर जाकर टिक गई, जिसे देख कर भगवती चरण वर्मा की चित्रलेखा ने संसार से वैराग्य ले लिया था। कान के ठीक बगल में मुझे चमकता हुआ एक सफेद बाल दिखा। मैंने उसे बहुत गौर से देखा, ये मेरा ही चेहरा था, जिसके कानों के बगल में एक बाल सफेद हो चुका है।
मुझे पूरा यकीन है कि आप लोगों ने चित्रलेखा उपन्यास को पढ़ा होगा। मैंने चित्रलेखा से पहले अनातोले फ्रांस का उपन्यास ‘थायस’ पढ़ा था। थायस और चित्रलेखा दोनों एक ही दौर की कहानियाँ हैं और दोनों में अजीब सी समानता है। एक में पूरब की एक नर्तकी चित्रलेखा तमाम भोग विलास में डूबी है, दूसरे में पश्चिम की थायस।
एक सुबह चित्रलेखा आइने में अपने सिर पर एक सफेद बाल देख कर हैरान रह जाती है। उस एक सफेद बाल की वजह से आइने में उसे उसका पूरा भविष्य दिख जाता है। आइने के भीतर उसे एक लाचार बुड्ढी नजर आती है, और वो समझ जाती है कि यही है हर खूबसूरती का अन्त।
रात दिन महाराज बीजगुप्त के संग रंगरेलियों में डूबी चित्रलेखा का मन सन्सार से उचट जाता है। उसे पता चल जाता है कि सारा खेल समय का है। उसके साथ भी वही होगा, जो सबके साथ होता है। सिद्धार्थ ने एक बीमार, एक बूढ़े और एक लाश को देख कर जीवन के क्षणभंगुर होने की पूरी कहानी मन में समझ ली थी और सिद्धार्थ से बुद्ध बन बैठे।
चित्रलेखा ने अपने एक सफेद बाल से संसार के सच को समझ लिया और वो जीवन के सत्य की तलाश में निकल पड़ी। एक नर्तकी ने सन्यास ले लिया।
अनातोले की नायिका थायस और उसके प्रेमी का अहँकार जब टूटता है तब तक जिन्दगी अपना काम कर चुकी होती है। दोनों ही उपन्यास में मूल बात तो पाप और पुण्य की तलाश है, लेकिन रूप और जवानी के अहँकार के टूटने की इस घटना को मैंने पुण्य और पाप की तुलना में अधिक संजीदगी से लिया।
चित्रलेखा की कहानी तो आपको पता ही है – पाप और पुण्य की तलाश में रत्नांबर के दो शिष्य श्वेतांक और विशालदेव दो अलग-अलग जगहों पर जाते हैं। एक राजा बीजगुप्त के पास जाता है, दूसरा योगी कुमार गिरि के पास। दोनों पाप और पुण्य को अपनी निगाहों से समझने की कोशिश करते हैं और पाते हैं कि दुनिया में पाप और पुण्य कुछ नहीं है। यह केवल नजरिये का फर्क है। मतलब हम न पाप करते हैं, न पुण्य। हम वही करते हैं, जो हमें करना पड़ता है।
अपनी जवानी मदिरा और नृत्य के नशे में खर्च करती हुई चित्रलेखा एक सुबह एक बाल की सफेदी से विह्वल हो उठती है। अपने एक बाल की सफेदी से वो ये सच समझ लेती है कि प्रकृति किसी को नहीं छोड़ती। हर दमकते चेहरे को एक दिन झुर्रियों में तब्दील होना ही पड़ता है। हर काले केश को एक दिन उम्र का दंश सहना ही पड़ता है। उम्र का यही दंश आदमी को धीरे-धीरे तैयार करता है कि जो हो रहा है, वो होकर रहेगा। जो लोग शरीर को मूल मानते हैं, वो पूरी जिन्दगी सिवाय धोखे के कुछ और नहीं पाते। रूप और यौवन के अहँकार में जीने वाले दरअसल जी ही नहीं पाते।
कल सुबह जब मुझे अपने कान के बगल में सफेद बाल नजर आ ही गया, तो लगा कि पहली बार मैंने खुद को आइने में गौर से देखा है। मैंने देखा कि रे बैन का चश्मा लगा कर अपनी हथेली ठुड्डी पर टिका कर, काले रंग की टी शर्ट में चाहे जितनी तस्वीरें खिंचवा लूँ, चाहे खुद को कभी करीना कपूर की बगल में खड़ा कर लूँ या कैटरिना कैफ की बगल में, और चाहे जितना इतरा लूँ कि बड़े-बड़े सितारों के बाल सफेद हो गये, लेकिन संजय सिन्हा ने ईश्वर की असीम अनुकंपा से अब तक बालों का कालापन नहीं खोया है, सब ढहता हुआ नजर आया। एक बाल सफेद क्या दिखा, मुझे आइने में चित्रलेखा की जगह खुद का भविष्य दिख गया।
मुझे यकीन है कि ये बाल कल सुबह ही सफेद नहीं हुआ होगा। मुमकिन है पहले भी यही वाला बाल मुझे सफेद नजर आया होगा। ये बड़ी बात नहीं। लेकिन कल बाल की सफेदी के साथ मुझे जीवन का सच नजर आ गया, ये बड़ी बात है।
ऐसा मत सोचिएगा कि मैंने एक बाल की सफेदी क्या देख ली, परेशान हो गया हूँ। मैं परेशान नहीं हूँ, हाँ, ये जरूर सोच रहा हूँ कि क्या मेरा भी वक्त आ गया है जब मुझे जीवन के सत्य की तलाश करनी शुरू कर देनी चाहिए।
जिन्दगी की तलाश तो मैं कई वर्षों से कर रहा हूँ। लेकिन मेरी ये तलाश अब तक महाराज बीजगुप्त के महल में हो रही है। कल से सोच रहा हूँ कि क्या अब मुझे अपनी ये तलाश बीजगुप्त के महल को छोड़ कर कुमार गिरि के आश्रम में शुरू कर देनी चाहिए। चित्रलेखा का हश्र तो मुझे पता है। हश्र तो मुझे खुद कुमार गिरि का भी पता है, लेकिन हश्र पता होने से मेरी समस्या का समाधान तो नहीं होगा।
सवाल सुनने में अजीब और छोटा सा लग रहा होगा, लेकिन जब-जब आपको आइने में अपने बालों की सफेदी और चेहरे पर कोई झुर्री नजर आयेगी, आपका मन भी आपसे यही सवाल पूछेगा ही – “अब क्या?”
जब राजनर्तकी नहीं बची, जब राजा नहीं बचा, जब योगी नहीं बचा, तो मैं क्या?
इसका मतलब कि जिन्दगी की गाड़ी अपने समय से चल रही है। कल एक सफेद बाल दिखा है, फिर दो दिखेंगे, फिर तीन और…
ओह! अगर यही जीवन का सच है, तो फिर इतना दर्प क्यों?
(देश मंथन, 26 मई 2015)