दूसरी बड़ी सभ्यता रोम

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संजय सिन्हा, संपादक, आज तक :

जब आप मेरी पोस्ट पढ़ रहे होते हैं, मैं सातवें आसमान की सैर कर रहा होता हूँ। आप एक-एक पंक्ति पढ़ते हैं और मैं उस आसमान से आपके चेहरे की मुस्कुराहट को महसूस करता हूँ। फिर आप लाइक बटन दबाते हैं और मैं खुशी के मारे आसमान में ही नृत्य करने लगता हूँ। यही है प्यार। 

यकीन कीजिए पिछले 21 महीनों से यह मेरी रोज की कहानी है। मेरा हर सुबह लिखना, आपका हर सुबह पढ़ना और फिर मेरा आसमान में उड़ना। कभी सोच कर नहीं लिखता। कभी पहले से तय नहीं करता कि आज ये लिखना है, कल ये लिखना है। कई बार सोचता जरूर हूँ कि कल आपको यह बताऊँगा, वह बताऊँगा, लेकिन प्यार में पड़ा दीवाना सोच कर भला कब कुछ कहता है, कब कुछ करता है। 

मैं जानता हूँ कि मैं जो लिखता हूँ वह साहित्य नहीं है। बहुतों के लिए कुछ भी नहीं है, लेकिन आपके लिए यह हर सुबह मुहब्बत का पैगाम है। प्यार में पड़े दो दिलों के लिए कुछ कहा और सुना जाने वाला पैगाम। ऐसे पैगाम साहित्य की श्रेणी में भले कहीं खड़े न हों, पर उनका दर्जा साहित्य से कम भी नहीं होता। याद कीजिए, मजनूँ जब रेत के टीले पर बेतरतीब बिखर कर अपनी उँगलियों से लैला-लैला लिख रहा होता है और गुनगुना रहा होता है, 

“कहना इक दीवाना तेरी याद में आहें भरता है, लिख कर तेरा नाम जमीं पर उस को सजदे करता है…”

हवा का एक झोंका आता है और मजनूँ की उँगलियों से लिखा लैला शब्द रेत के ढेर में खो कर रह जाता है। पर क्या वो साहित्य नहीं था! कौन कहेगा कि वह साहित्य नहीं है। मुहब्बत की स्याही में डूबे दिल की कलम से चलने वाली उँगलियों का हर एक शब्द साहित्य होता है। साहित्य नीले आसमान और झील के किनारे रची गई कहानी ही नहीं होता। साहित्य शब्द नहीं होता। साहित्य बस इतना है कि कोई अपने लिखे शब्दों को अपने परिजनों को पढ़ते देख कर सातवें आसमान में उड़ने लगे और वहीं से गुनगुनाए “

“शाख गिरेबाँ खाक बसर फिरता है सूनी राहों में, सायों को लिपटाता है और लैला लैला करता है…।”

***

आज जब आप मेरी यह पोस्ट पढ़ रहे होंगे, उस वक्त मैं सचमुच सातवें आसमान में उड़ रहा होऊँगा। मेरा विमान कई हजार मील ऊपर आसमान में कई समंदरों को पार करता हुआ यूरोप के आसमान में तैर रहा होगा। मैं ‘येलेना’ के वतन के ऊपर से गुजर रहा होऊँगा। आप यहाँ मेरे शब्दों को पढ़ेंगे, मैं बेशक तुरन्त उस पर लाइक बटन दबा कर आपको यह नहीं बता पाऊँगा कि मुझे आपका पैगाम मिल गया है। पर यह भी एक सच होगा कि आपके दिल में मेरे लिए उठने वाली भावनाओं की हर तरंग मुझ तक मेरा कासिद पहुँचा देगा, और मैं कई दिनों तक यूरोप की अपनी इस यात्रा में यही गुनगुनाता फिरूँगा कि मेरा मसीहा अब भी मुझ पर मरता है…।

*** 

मेरी यात्रा का पहला पड़ाव नीले आसमान, खिली हुई धूप और छिटकी हुई चाँदनी वाला वो शहर होगा, जहाँ के लोगों का रंग यूरोप के बाकी देश के लोगों की तरह एकदम श्वेत नहीं होता, जहाँ के लोगों की आँखों की पुतलियाँ कुछ हमारी तरह काली और भूरी होती हैं, जहाँ के लोग कला को बहुत प्यार करते हैं। वैसे तो मैं कई बार यूरोप आ चुका हूँ, लेकिन इस बार मेरा विमान वहाँ लैंड करेगा, जहाँ ईसा पूर्व सात सौ पहले एशिया कोचक की एक रियासत का बेटा अती लिदिया की आधी जनसंख्या को साथ लेकर पहुँचा था। ये लोग खुद को अपने वैदिक आर्य गुरु के नाम पर ‘तिरहेनी’ कह कर संबोधित करते थे। इन लोगों ने समंदर के किनारे अपनी बस्ती बसायी। धीरे-धीरे यही बस्ती बढ़ कर पास के गाँव रोमा तक पहुँची। आज मैं उसी रोमा गाँव में रुकुंगा। 

तिरहेनी ही इतालिया बना और इतालिया इटली में तब्दील हुआ, रोमा रोम बन गया। 

मैं उस रोम में रहूँगा जहाँ हमारे आर्य भाइयों ने जूपितर के नाम से विशाल मन्दिर का निर्माण किया था। मैं उस रोम में रहूँगा जहाँ के जूलियस सीजर की कहानी आपने न जाने कितनी बार पढ़ी है। 

इटली यूरोप का एक ऐसा देश है, जहाँ का इतिहास शायद हिन्दुस्तान के इतिहास से बहुत मिलता जुलता है। यूनान के बाद दुनिया की दूसरी बड़ी सभ्यता इतिहासकारों की निगाह में रोम से शुरू होती है। मैंने इतिहास को किताबों में पढ़ा है, पर उससे ज्यादा इतिहास को मैंने मन में गुना है। मुझे लगता है कि एशिया कोचक की रियायत का बेटा अती अपनी आधी जनता के साथ रोमा पहुँचा होगा, उससे तो हजारों साल पहले हमारे कृष्ण अपने लोगों के साथ मथुरा से द्वारिका पहुँच गये थे। अती ने समंदर के किनारे अपना ठिकाना गढ़ा था। कृष्ण ने तो द्वारिका में पूरा महल खड़ा कर लिया था। 

खैर मुझे इन बातों में कोई दिलचस्पी नहीं। मुझे तो इतना पता है कि कृष्ण मेरे थे, अती की कुंडली निकलवाऊँगा तो वह भी अपना ही निकलेगा। 

फिलहाल तो मुझे नीले आसमान, खिली धूप और छिटकी चाँदनी वाले देश में किसी की याद आएगी, तो वो बस आप हैं। 

“मैं जहाँ रहूँ, मैं कहीं भी रहूँ, तेरी याद साथ है…।”

(देश मंथन, 10 अगस्त 2015)

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