संजय सिन्हा, संपादक, आज तक :
अपने एक परिचित का हालचाल पूछने के लिए मुझे कल दिल्ली के मैक्स अस्पताल में जाना पड़ा। वहाँ ऑपरेशन थिएटर के पास मैं अपने परिचित के बाहर आने का इंतजार कर रहा था। एक-एक कर कई मरीज स्ट्रेचर पर बाहर लाये जा रहे थे। मैं सभी मरीजों और उनके परिजनों को गौर से देखता। जैसे ही कोई मरीजा बाहर आता, उनके परिजनों के चेहरे खिल उठते। डॉक्टर बाहर आकर पूछता कि क्या आप फलाँ के साथ हैं?
“जी, मैं इनके साथ हूँ।”
फिर डॉक्टर बताता कि ऑपरेशन सफल रहा है। मरीज होश में होता, वह आँखें खोल कर अपने परिचित की ओर देखता, परिचित उसकी ओर देखते और पल भर के लिए भावनाओं का सैलाब उमड़ पड़ता।
मेरे परिचित के बाहर आने में समय था। डॉक्टर ने बता दिया था कि ऑपरेशन हो चुका है, सब कुछ सामान्य है, बस थोड़ी देर में मरीज को बाहर ले आएँगे और वार्ड में शिफ्ट कर देंगे।
मेरे आगे एक लड़की बहुत देर से किसी के बाहर आने का इंतजार कर रही थी। वह बाहर खड़ी बार-बार उस कमरे की ओर झाँकती, जिधर से मरीज को बाहर लाया जा रहा था। बहुत देर इंतजार के बाद एक स्ट्रेचर बाहर लाया गया। डॉक्टर ने बाहर आते ही पूछा कि फलाँ के साथ कौन है?
“लड़की दौड़ी, मैं हूँ। ये मेरे पापा हैं।”
“अच्छा। आप मिल लीजिए। इनका ऑपरेशन ठीक हो गया है।”
लड़की ने पापा की ओर देखा। उनके सिर को छुआ। उसकी आँखें खुशी से भीगी थीं। पापा ने भी आँखें खोलीं। बेटी को सामने देख उनका चेहरा भी खिला।
बेटी ने डॉक्टर की ओर देखा और पूछा, “डॉक्टर क्या मैं इनकी एक तस्वीर ले सकती हूँ! मुझे व्हाट्सऐप पर अपने भाई को पापा की फोटो भेजनी है। मेरा भाई अमेरिका में है। वो बहुत खुश होगा, पापा की तस्वीर देख कर। वो वहां इंतजार कर रहा है, पापा के ऑपरेशन की खबर को सुनने की।”
डॉक्टर ने कहा, “हाँ, हाँ जरूर लीजिए। बल्कि आप चाहें तो फोन पर पापा से बात भी करा दीजिए। ये पूरी तरह होश में आ चुके हैं। बेटे से बात करके इन्हें खुशी होगी।”
बेटी ने फोन मिलाया। पापा के कान में फोन लगाने की कोशिश की, तो डॉक्टर ने कहा कि स्पीकर पर करके उनके सामने कर दीजिए। वो आसानी से सुन लेंगे।
लड़की ने गौर से पापा की ओर देखा। पापा ने भी आँखें खोलीं। फिर धीरे से कहा कि रहने दो।
डॉक्टर ने कहा, “अरे रहने क्यों दे? आप देखिए आपको ठीक देख कर आपकी बिटिया कितनी खुश है। बेटे से बात कर लीजिए, आपको अच्छा लगेगा। बेटा भी चिंतित होगा। उसे भी राहत मिलेगी।”
फोन स्पीकर पर हो चुका था।
उधर से आवाज़ आई, “हैलो!”
इधर से बेटी ने कहा, “भाई, पापा का ऑपरेशन हो चुका है। वो एकदम ठीक हैं। लो तुम बात कर लो।”
उधर से आवाज आई, अरे अभी यहाँ बहुत रात है। कल बात करुँगा। अभी तुम परेशान मत हो।”
जाहिर है, बेटे को नहीं पता था कि फोन स्पीकर पर था।
फोन कट चुका था। बेटी ने पापा की ओर देखा। पापा की आँखें बंद थीं। आँखों के कोनों से बूंद भर पानी रिस रहा था। डॉक्टर खामोश खड़ा था। बेटी चुप थी। अब तक पापा को बाहर आते देख उसके चेहरे पर जो चमक थी, वो पता नहीं कहाँ चली गयी थी।
पल भर में बेटी ने खुद को संभाला।
“पापा उदास मत हो। भाई दिन भर काम के बाद देर रात घर लौटा होगा। यहाँ दिन है, वहाँ रात होगी। असल में वो आपको परेशान नहीं करना चाहता। वहाँ सुबह होते ही वो आपसे बात करेगा।”
पापा ने कुछ नहीं कहा।
कोने में खड़े संजय सिन्हा चुपचाप यह सब देखते रहे।
सचमुच यहाँ दिन था। वहाँ रात थी।
बेटी जहाँ थी, वहाँ उजाला था। बेटा जहाँ था, वहाँ अंधेरा था।
बेटियाँ अच्छी होती हैं। उनके पास उजाला होता है।
(देश मंथन, 21 अगस्त 2015)