‘बेब’ कहीं का

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संजय सिन्हा, संपादक, आज तक :

‘बेब’ – ये नाम सुअर के एक बच्चे का है। 

मैं बार-बार सुअर नहीं लिख पाऊँगा, इसलिए उसे सिर्फ ‘बेब’ कह कर ही संबोधित करूँगा। मुझे नहीं याद कि मैंने कभी आपके साथ अपने सबसे प्रिय दोस्त ‘बेब’ की कहानी साझा की है या नहीं। अगर की भी हो तो कोई बात नहीं, क्योंकि आज मैं अपने सबसे प्रिय दोस्त ‘बेब’ को अगर याद कर रहा हूँ, तो यकीनन संदर्भ कोई और होगा। 

जिन दिनों मैं अमेरिका में था, मैंने ‘बेब’ फिल्म देखी थी। ‘बेब’ बच्चों की फिल्म है, जिसमें जानवरों की भावनाओं को कैमरे से फिल्माया गया है। फिल्म की कहानी में ढेर सारे जानवर हैं। भेड़, कुत्ते और एक सुअर। 

आइए, पहले आपको ‘बेब’ का पूरा परिचय दे दूँ। फिर आप संदर्भ खुद ब खुद समझ जाएँगे कि क्यो मुझे मेरा ये दोस्त आज इतना याद आ रहा है।

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एक फार्म हाऊस के मालिक के बाड़े में कहीं से सुअर का एक बच्चा आ जाता है, जिसका नाम ‘बेब’ है। उस फार्म हाऊस में बहुत सारी भेंड़ें हैं, और उन भेंड़ों की रक्षा के लिए कई शिकारी कुत्ते भी हैं। फार्म हाऊस का मालिक ‘बेब’ को उन भेड़ों और कुत्तों के बीच पलने देता है। उसके मन में कई बार ये बात भी रहती है कि जब ‘बेब’ बड़ा हो जाएगा, फिर उसे काट कर पका लेंगे। लेकिन अभी वो छोटा सा बच्चा है, और उसे उन्ही जानवरों के बीच बड़ा होने दिया जा रहा है। 

गुजरते समय के साथ ‘बेब’ ये समझ जाता है कि फार्म हाऊस के मालिक ने मूल रूप से भेड़ों को पाला है और कुत्ते उन भेड़ों के पहरेदार है, रक्षक हैं। भेड़ जब सुबह-सुबह घास चरने जंगल में जाती हैं, तो उनके आगे-पीछे उन शिकारी कुत्तों का काफिला ऐसे चलता है, मानो वो उन कमज़ोर भेड़ों के रहनुमा हों। उन कुत्तों की अकड़ ही इस बात को बयां करने के लिए काफी है कि भेड़ जनता है, कुत्ते उनके रक्षक और मालिक तो मालिक है ही।।

मालिक, भेड़ और कुत्तों के बीच ‘बेब’ के मन में उलझन है कि वो क्या है। 

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बहुत बड़ा सवाल है कि जानवरों के उस फार्म हाउस में अकेला ‘बेब’ आखिर क्या है?

क्योंकि ‘बेब’ बच्चा है, इसलिए उसके मन में ये बात बैठ जाती है कि वो भी कुत्ता है। कुत्तों के बीच रहते हुए उसे लगने लगता है कि उसे भी यहाँ उन मासूम भेड़ों की रक्षा के लिए रखा गया है। बहुत द्वंद्व है। भेड़, कुत्तों, फार्म हाउस के मालिक और ‘बेब’ के बीच। 

कुत्ते ‘बेब’ को गंभीरता से नहीं लेते। मालिक ‘बेब’ का सच जानता है, और उसके बड़े होने का इंतजार सिर्फ इसलिए कर रहा है कि एक दिन दावत की टेबल पर उसके माँस की खुशबू उड़ेगी, और रही बात भेड़ों की, तो उन्हें ‘बेब’ भला कब अपना रहनुमा लगने लगा?

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पर ‘बेब’ को ये सारी बातें नहीं पता हैं। वो मन ही मन सोचता है कि वो कुत्ता है और उसे मालिक ने बहुत दुलार से भेड़ों की रक्षा के लिए रखा है। वो अपनी तरफ से भेड़ों की रक्षा भी करने की कोशिश करता है। सब उसकी उस बेवकूफी पर हँसते हैं, पर ‘बेब’ को सच समझ में नहीं आता।

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कहानी लंबी है, लेकिन मैं संक्षेप में इतना बताता हुआ आगे बढ़ चलता हूँ कि समय की चाल में और ओवर कॉन्फिडेंस में पड़े कुत्ते कई बार भेड़ों की मदद नहीं करते, बल्कि हमारी कहानी का वो पात्र ‘बेब’ एक दो बार भेड़ों की जान बहुत मुश्किल परिस्थिति में शिकारियों से बचाता है। लेकिन तब भी फार्म हाउस के मालिक उसे गंभीरता से नहीं लेते। 

इस बीच ‘बेब’ थोड़ा बड़ा हो जाता है और उसे एक दिन अहसास होता है कि वो कुछ भी कर ले, उसे शिकारी कुत्तों का दर्जा नहीं मिल सकता। हालाँकि ये सच है कि उसने अपनी सूझ-बूझ और अपनी लगन से मालिक की भेड़ों की कई बार रक्षा की है, कुत्तों से ज्यादा ईमानदार और वफादार रहा है, पर मालिक के मन मंम ये भरोसा नहीं है कि ‘बेब’ ऐसा कुछ कर सकता है।

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फिल्म में ‘बेब’ कई बार रोता है। फिल्म देखते हुए संजय सिन्हा भी कई बार रोता है। 

जितनी बार ‘बेब’ को अपने सुअर होने का अहसास होता है, अपनी लाचारगी का अहसास होता है, उतनी बार वो रोता है। 

ये तो फिल्म की कहानी थी, और इसमें जानवरों की भावनाओं और संवेदनाओं को बहुत बारिकी से उकेरा गया है, इसलिए फिल्म के अंत में मालिक का दिल पसीजता है और वो ‘बेब’ को प्यार करने लगता है। उसे उसकी अहमियत का अहसास होता है।

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जिन्दगी में ऐसा कई बार होता है कि हम होते तो ‘बेब’ हैं, लेकिन समझते खुद को शिकारी कुत्ता हैं। हम मन ही मन खुद को बहुत अहमियत दे बैठते हैं। हम अपनी जान पर खेल कर भेड़ों की रक्षा में जुट जाते हैं। हमें लगता है कि ये हमारा काम है। 

पर न तो भेड़ों को हम पर यकीन होता है, न भेड़ के मालिकों को। रही बात शिकारी कुत्तों की, तो उनके लिए तो हम हास्य के पात्र भर होते हैं। वो कई बार अपना काम हमसे करा लेते हैं, पर पीठ पीछे हंसते हैं। कहते हैं *** ‘बेब’ कहीं का। 

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बहुत मुश्किल होता है सच को समझ पाना। बहुत मुश्किल होता है मालिकों के मन में इस बात का अहसास दिला पाना कि कुत्ते जिन्हें वो इतना तवज्जो देते हैं, वो दरअसल बेईमानी करते हैं अपने काम में। 

जिन्दगी सिनेमा नहीं है, इसलिए ‘बेब’ का सच कभी सामने नहीं आ सकता। पर ‘बेबों’ को अपना सच पता होना चाहिए। सिनेमा में भी ‘बेब’ को जब तक अपना सच नहीं पता होता है, वो रोता है, बिलखता है। पर जिस दिन वो अपना सच समझ जाता है, वो करे चाहे जो भी, पर उसे दुख नहीं होता। क्योंकि वो जान लेता है कि उसकी हैसीयत एक दिन लंच टेबल पर गोश्त बन जाने से ज्यादा नहीं है। 

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फिल्म में ‘बेब’ बच जाता है। वो मालिकों का दुलारा भी बन जाता है। 

हमारी आपकी जिन्दगी भी काश फिल्म होती! 

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पुन:-

ईश्वर से दुआ कीजिए कि या तो हमारी कहानी फिल्मी हो, या फिर हमें अहसास हो कि हम ‘बेब’ हैं। नहीं तो भेड़ों की रक्षा में निकलने का अंत सिर्फ मौत है। चाहे वो दिल्ली में हो या भोपाल में, पर अन्त मौत ही है। 

(देश मंथन 10 जुलाई 2015)

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