उनसे मिलें जो निराश हैं

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संजय सिन्हा, संपादक, आज तक :

मैं जिन दिनों जनसत्ता में काम करता था, मैंने वहाँ काम करने वाले बड़े-बड़े लोगों को प्रधान संपादक प्रभाष जोशी के पाँव छूते देखा था। शुरू में मैं बहुत हैरान होता था कि दफ्तर में पाँव छूने का ये कैसा रिवाज है। लेकिन जल्दी ही मैं समझने लगा कि लोगों की निगाह में प्रभाष जोशी का कद इतना बड़ा है कि लोग उनके पाँव छू कर उनसे आशीर्वाद लेना चाहते हैं। हालाँकि तब मैं कभी ऐसा नहीं कर पाया। 

एक दिन प्रभाष जोशी जनसत्ता के प्रधान संपादक पद से हट गये। वो सिर्फ सलाहकार संपादक रह गये। 

मैंने देखा कि धीरे-धीरे प्रभाष जोशी के कमरे में जाने वालों की गिनती घटने लगी है। जो लोग उन्हें अपना भगवान मानते थे, उनकी निगाह में उनका भगवानत्व कम हो गया था। जो लोग इस फिराक में रहते थे कि एक निगाह प्रभाष जी की उन पर पड़ जाए, वो उनसे कतरा कर निकलने लगे थे। फिर धीरे-धीरे प्रभाष जोशी खुद ही रोज दफ्तर आना कम करने लगे।

मैं जनसत्ता छोड़ कर टीवी चैनल में चला गया। 

एक दिन प्रभाष जोशी हमारे न्यूज चैनल में बतौर गेस्ट बुलाए गये। प्रभाष जोशी हमारे दफ्तर आये और मुझे ही उनसे बात करने को कहा गया। जनसत्ता में रहते हुए हम कभी इतना करीब नहीं हुए थे, जितना करीब मैं उस दिन टीवी दफ्तर में हुआ था। प्रभाष जोशी मेरे सामने आये, अब वो मेरे बॉस नहीं थे। पर जैसे ही वो सामने आए, मैंने उनके पाँव छू लिए। 

पहली बार ऐसा हुआ जब मैंने उनके पाँव को छूए होंगे।

प्रभाष जी ने मुझे गले से लगाया और बहुत देर कर गले से लगे रहे।

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मैं जब भी मुंबई आता हूँ मुझे सितारों से मिलने का मौका मिलता है। मैं कम से कम एक हजार बार मुंबई आया हूँ। 

मैंने यहाँ न जाने कितने सितारों को चमचमाते देखा है, फिर उन्हें टूट कर ज़मीन पर पत्थर बन कर मिट्टी में मिलते भी देखा है। कल मैं एक ऐसी ही चकाचौंध भरी पार्टी में गया था। सितारों से सजी महफिल। 

मैं चुपचाप कोने में बैठ कर जूस का आनंद उठा रहा था। मैंने देखा कि गये समय का एक सितारा अकेला हर चमकते सितारे को हैरत भरी निगाहों से देख रहा था। 

मैं उसके पास गया। उसने मुझे पहचाना। हम दोनों मिले। मैं उसके साथ बैठ गया। वो मुझे बताने लगा कि ये मुंबई नगरी है। माया नगरी। कल तक जब वो ऐसी पार्टियों में आता था, तो न जाने कितने पत्रकारों, लड़कियों की भीड़ उसे घेर लेती थी। वो कह रह था, “आज मुझे देखो। अकेला बैठा हूँ। अब तो लगता है कि कोई मुझे पहचानता भी नहीं।” 

मैंने उसे बताया कि ऐसा ही होता है। 

सितारे जब तक आसमान में होते हैं, चमचमाते हैं। जब वो आसमान से गिर जाते हैं, तो उल्कापिंड बन जाते हैं। कहानियाँ सितारों की होती हैं, उल्कापिंडों की नहीं।

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आज पहली बार मैं आपको एक रहस्यमयी मोड़ पर छोड़ कर अपनी पोस्ट रोक रहा हूँ।

जानते हैं क्यों? 

क्योंकि जब भी मैं मुंबई आता हूँ, मुझे यहाँ ढेरों ‘कागज के फूल’ वाले गुरुदत मिलते हैं। जिन लोगों ने ‘कागज के फूल’ फिल्म देखी है, वो आसानी से समझ जाएँगे कि मैं क्या कहना चाह रहा हूँ। जिन लोगों ने नहीं देखी है, उनसे मेरा अनुरोध है कि इस फिल्म को एक बार जरूर देखें। जब आप इस फिल्म को देख लेंगे, तो आप समझ जाएँगे कि मैं आज क्या कहना चाह रहा हूँ।

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कभी-कभी उन लोगों से भी मिलना चाहिए जो निराश हो चुके होते हैं। उन्हें यह बताना चाहिए कि जब वो अपनी जिन्दगी से निराश हो चुके हैं, उस वक्त भी कुछ लोग दुनिया में उनकी जैसी जिन्दगी जीने का सपना देख रहे होते हैं।(देश मंथन, 18 दिसंबर 2015)

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