शाही गधे, शाही कचौड़ी

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आलोक पुराणिक, व्यंग्यकार :

कसम से दिल बैठ जाता है, ऐसा बोर्ड देखकर – फलाँ शाही कचौड़ी की दुकान। 

शाह ना बचे, सिर्फ कचौड़ियाँ बची रह गयी। एक दम फिलोसोफिकल किस्म की उदासी घेरने लगती है। शाहों से ज्यादा स्थायी तो कचौड़ियाँ निकलीं। एक ही सड़क पर चौदह दुकानें शाही कचौड़ियों की।

कचौड़ी शाही, खानेवाले आम आदमी। इसे कचौड़ियों का लोकतंत्रीकरण कहा जा सकता है। एक शाही कचौड़ियों के दुकानदार के सामने मैंने जिज्ञासा रखी – जी एक दुकान शाह के नाम की, राजा के नाम की हो, तो समझ में आता है। सारे के सारे यहाँ शाही हो लिये हैं। इतने शाह कहाँ से आ लिये और उनके नाम पर इतनी कचौड़ियाँ कैसे चल निकलीं।

उसका जवाब था – एक दर्जन से ज्यादा शाही कचौड़ियों के ठिकाने इधर हैं, कई बार उन पर छह कस्टमर भी मुश्किल से होते हैं। उफ्फ, शाही पना कितना सतही है। 

शाहों के दिन बहुत खराब चल रहे हैं।

एक दुकान के बोर्ड पर लिखा था – शाही पराँठा भंडार। आगे देखा वही कचौड़ी वाली कहानी आधा दर्जन पराँठेवाले यह क्लेम कर रहे थे कि एक जमाने में शाही रसोई में पराँठों की सप्लाई उन्ही की दुकान से जाती थी।

पराँठों को मैंने खाया, तो उन तमाम शाहों को पतन का कारण पता चल गया। पराँठों को वहाँ घी में तला जाता है। घी में तैरते रहने के लिए पाँच – सात मिनट तक छोड़ दिया जाता है। पराँठा घी के स्विमिंग पूल से बाहर आकर एक हथियार में तब्दील हो जाता है। रोज यह पराँठा खाने वाले सोने और कोलस्ट्रोल की दवायें तलाशने के अलावा कुछ ना कर सकते।

मुगल सल्तनत इस तरह के शाही पराँठों ने तबाह की होगी। ऐसे तबाह की, कि शाह तो निपट लिये, पराँठे चलते रहे। शाही पराँठा दुकान में पराँठा खाने के बाद मैंने निवेदन किया – सर आप दुकान का नाम रखें, शाही हथियार सेंटर।

शाही की एक दुकान ने मुझे अंदर तक हिला दिया – दुकान का नाम था शाही गधा ढुलाई सेंटर। 

कई गधे दुकान के आगे बंधे थे, जिनके बारे में दुकानदार का दावा था कि ये सब उन घोड़ों के वंशज हैं, जो बाबर के साथ भारत में आये थे।

मैंने निवेदन किया – सर, घोड़ों के वंशज ये गधे कैसे हो गये। 

दुकानदार ने फरमाया – पालिटिक्स में यही होता है, हुकूमती परिवारों में इसके अलावा और कुछ ना हो सकता। सब घोड़ों से शुरू होते हैं, गधों पर आकर निपट जाते हैं।

दुकानदार ने मुल्क के पाँच – सात राजनीतिक परिवारों के बारे में तथ्य देने शुरू किये।

मैं सहमत हुआ, मैंने निवेदन किया – सर, यहाँ क्या गधों के कारोबार में नष्ट हो रहे हैं। तमाम न्यूज चैनल आपकी राह तक रहे हैं, आप जाइये बतौर राजनीतिक विश्लेषक के तौर पर अपनी बात रखें वहाँ।

शाही गधा सेंटर के मालिक उखड़कर बोले – जी हम शाही गधोंवाला कारोबार करते हैं, आम गधेपने के कारोबार में हमारी दिलचस्पी नहीं है। हमारे गधे शाही गधे हैं, सिकंदर इन्ही गधों के पूर्वजों पर बैठकर इंडिया से भागा था। अब वक्त की मार है कि ये शाही गधे कंस्ट्रक्शन के काम में लगकर ईंट, रेत, बजरी ढो रहे हैं।

बताइये, अब भी शाही से सहानुभूति बनती है या नहीं।

(देश मंथन, 13 अप्रैल 2015)

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