संजय सिन्हा, संपादक, आजतक :
सुबह नींद खुल गयी थी और कम्यूटर को ऑन करने जा ही रहा था कि दरवाजे पर घंटी बजी।
इतनी सुबह कौन? दूध वाला देर से आता है। खाना बनाने वाली भी नौ बजे तक ही आती है। चंद्रवती के आने का समय तो एकदम तय है। आप चाहें तो घड़ी मिला लें, सुबह 8.20 पर घंटी बजेगी और सामने चंद्रवती खड़ी होगी।
बाकी किसी के आने में और जाने में आधे घंटे की देर हो जाए, पर क्या मजाल जो चंद्रवती कभी पाँच मिनट भी आगे-पीछे हुई हो। चंद्रवती अगर पाँच मिनट देर से आई, मतलब कोई न कोई घटना घट गयी है, अन्यथा उसके भीतर कुदरती घड़ी है।
इसलिए जब आज सुबह-सुबह घंटी बजी तो मैं हैरान रह गया।
घंटी बजने पर दरवाजा खोलने का काम पत्नी का है। सुबह बजने वाली करीब-करीब हर घंटी के पीछे उगने वाले चेहरे का अंदाज हमको है, इसलिए दरवाजा भी उसी तैयारी के साथ खोला जाता है। दूध वाला अगर घंटी बजाएगा, तो पत्नी गहरी नींद से उठने के बाद भी दुपट्टा लिए बिना दरवाजे तक नहीं जाएगी। पर खाना बनाने वाली, कपड़े धोने वाली, चंद्रवती की आहट पर वो अंगड़ाई लेती हुई उठ कर दरवाजा खोलती है और मन हुआ तो फिर रजाई में दुबक जाती है, क्योंकि उसके बाद दरवाज़ा खोलने की ज़िम्मेदारी चंद्रवती की है।
मैं जानता हूँ कि इस गर्मी में रजाई की चर्चा करना भी बेमानी है। पर पिछले कई वर्षों से हम पूरे साल रात में एसी चला कर रजाई ओढ़ कर ही सोते हैं, इसलिए हमारे बेडरूम में साल भर एक सा मौसम होता है।
खैर, इसकी कहानी भी है। पर आज मैं भटकने वाला नहीं।
दरवाजे पर घंटी बजी, मैंने गौर से देखा कि पत्नी दोनों आँखें बंद किए हुए सपनों के संसार में टहल रही है, तो मैं ही उठ गया दरवाजा खोलने के लिए।
दरवाजा खोला तो हैरान रह गया। सामने मेरी कई कहानियाँ खड़ी थीं।
“संजय सिन्हा, ये क्या तुम तो रोज-रोज चंद्रवती की कहानी लेकर बैठ गये हो। पहले तो तुम रोज एक कहानी लिखा करते थे, तो हमें उम्मीद रहती थी कि अब हमारा नंबर भी आएगा। पर ऐसे तुम किसी एक की कहानी लेकर बैठ गये, फिर तो हम यूँ ही पड़े रह जाएंगे। तुम घर में काम करने वाली एक महिला की कहानी को सीने से चिपका कर बैठ जाओगे, ये तो ठीक नहीं। देखो, तुम्हारे कई परिजन भी शिकायत करने लगे हैं कि तुम एक कहानी के पीछे मत पड़ जाओ। अरे काम वालियों की कहानी भी कोई कहानी होती है? निकलो, निकलो, इससे बाहर निकलो।
तुम्हें हजारों कहानियाँ सुनानी हैं, हम लाइन में अपनी बारी का इंतजार कर रहे हैं। प्लीज, आज इस चंद्रवती को निपटा दो।”
मैं ठगा सा खड़ा था। इससे पहले मैंने कभी सोचा भी नहीं था कि मेरी कहानियाँ मेरे पास आ कर इस तरह मुझ पर ही धौंस जमाएंगी और कह बैठेंगी कि चंद्रवती तो एक काम वाली है। काम वाली की कहानी में किसकी दिलचस्पी होगी।
मैंने अपनी कहानियों को मनाने के अंदाज में कहा कि अरे, तुम नाराज मत हो। चंद्रवती कोई काम वाली नहीं, वो तो मैं खुद हूँ। वो तो मेरे ढेर सारे परिजनों की ही कहानी है। मैं चंद्रवती के रूप की गाथा लिखने थोड़े बैठा हूँ। मैं तो सिर्फ ये कहना चाहता हूँ कि चंद्रवती होना एक मानसिक भय है और हम सब इस भय में जीते हैं, इसी में मर जाते हैं।
कुछ परिजनों ने मेरी कहानी के इशारे को समझ भी लिया है। मैंने कई बार इशारे में उन्हें ये बताया कि चंद्रवती होना अच्छा नहीं होता।
“बातें न बनाओ, संजय सिन्हा।” मेरी कहानियाँ बिदकीं।
“चंद्रवती पुराण बंद करो। आज ही बंद करो। तुम्हें जो कहना है, संक्षेप में अपने परिजनों को सुना दो। सच सब जानते हैं। पर जानने और मानने में अंतर होता है। सब तुम्हारी कहानियाँ सुबह पढ़ेंगे और फिर चंद्रवती की तरह शरीर में घड़ी छिपाए निकल पड़ेंगे अपने काम पर। यही सच है, यही होता है, यही होगा। न चंद्रवती ने खुद की ताकत को पहचाना, न तुमने और न ही तुम्हारे परिजन अपनी ताकत पहचानते हैं। सबके सब तुम्हारे पंजाबी कवि अवतार सिंह पाश के मरे हुए पात्र हैं। तुम लोग साँसों के चलने को जिन्दगी मानने की भूल कर बैठे हो। चंद्रवती तो अनपढ़ महिला है, तुम और तुम्हारे परिजन जो स्कूल गये हैं, कॉलेज गये हैं, वो चंद्रवती से रत्ती भर जुदा नहीं। अब खग की कहानी खग को ही सुनाने का क्या फायदा?”
मैं ठगा सा खड़ा रहा। मेरी कहानियों का हौसला तो देखो। कहाँ चंद्रवती, कहाँ ‘पाश’ की कविताएँ। ये सुबह-सुबह मुझे उस पाश की याद दिला रही हैं, जिसका मैं जिन्दगी भर दीवाना रहा हूँ।
1 मार्च 1988 को मैं दिल्ली में जनसत्ता अखबार ज्वॉयन कर चुका था। मैं रात की शिफ्ट में था, टेलीप्रिंटर चर्र-चर्र चल रहा था। तारीख थी 23 मार्च, खबर आई की अवातार सिंह संधू उर्फ ‘पाश’ की पंजाब में आतंकवादियों ने हत्या कर दी।
खबरों के संसार में होने की वजह से मैं पाश के नाम से परिचित था।
पंजाब में तब आतंकवाद अपने चरम पर था और रोज ऐसी खबरें आती रहती थीं कि आज इसे मार दिया, आज उसे मार दिया। पर पाश जैसे नौजवान को क्यों मार दिया? वो तो बंदूक नहीं चलाता था। वो तो कलम का सिपाही था। वो तो मेहनतकशों पर कविताएँ लिखा करता था।
खबर मेरे सामने थी। मैं पढ़ रहा था- “खालिस्तानी आतंकवादियों ने पंजाबी कवि पाश को गोलियों से भून दिया।
कसूर?
कसूर इतना ही कि जंगलतंत्र में वो चिड़ियों का हितैषी बन बैठा था। यह तो सब जानते हैं कि कोई किसी की हत्या तब करता है, जब सामने वाले से उसे अपने अस्तीत्व पर खतरा नजर आने लगता है। यानी कोई भी हत्या डर का नतीजा है। पाश की कलम से डरे हुए आतंकवादियों ने उनकी हत्या कर दी थी।
मैं खबर बना रहा था। अगले दिन अखबार में छपने के लिए। आप तक पहुँचाने के लिए। और मेरी आँखों के आगे कई शब्द तैर रहे थे।
“हम चाहते हैं अपनी हथेली पर कोई इस तरह का सच
जैसे गुड़ की चाशनी में कण होता है
जैसे हुक्के में निकोटीन होती है
जैसे मिलन के समय महबूब के होठों पर
कोई मलाई जैसी चीज होती है।”
गुड़ में कण, हुक्के में निकोटीन और महबूब के होठों पर मलाई जैसी किसी चीज के बिंब में मैं खोया था।
मुझे याद है कि मुझे इस खबर से निकलने में कई साल लगे थे। आज मेरी इन शिकायती कहानियों ने आ कर मुझे एक बार फिर उन्हीं यादों में झोंक दिया। मैंने चंद्रवती की कहानी क्या लिखनी शुरू की, वो मुझे ही जीवन का पाठ पढ़ाने लगीं।
***
आज मुझे चंद्रवती से बाहर निकलना होगा। आज मुझे सिर्फ इतना बता कर फिर रजाई में घुस जाना होगा कि काश चंद्रवती हमें बहुत पहले छोड़ कर चली गयी होती। वो हमें छोड़ कर चली जाती तो यकीनन कुछ और करती।
पर वो कुछ कर ही नहीं सकती थी। वो हमारे घर आराम से थी। उस आराम ने उसके सपनों की हत्या कर दी थी।
वो जितनी ईमानदार और मेहनती है, उसमें मेरा दावा है कि वो कुछ भी और करती तो अच्छा करती। मेरे घर अपनी जिन्दगी के 25 वर्ष खर्च कर वो संतुष्ट भले हो, पर मैं संतुष्ट नहीं हूँ। मुझे लगता है कि वो और बेहतर पाने की हकदार थी।
अब जब मैं घर बदल रहा हूँ, तो मैंने बहुत कोशिश की कि वो हमारे साथ चले, पर नहीं। मेरा नया घर उसके लिए दूर है। वो अपना परिवार नहीं छोड़ सकती। शराबी पति अब उसे पीटता है या नहीं, मैं नहीं जानता, पर इतना जानता हूँ कि वो मेरे जाने के बाद किसी नये घर को पकड़ने की कोशिश करेगी। उसे अब दिखाई कम देता है, सुनाई कम देता है, पर काम करेगी।
मैं चाहूँ तो हर महीने उसे बिना काम किए भी पैसे भेज सकता हूँ, उसके अकाउंट में डाल सकता हूँ, पर वो नहीं लेगी। गरीब आदमी अमीर आदमी की तुलना में अधिक खुद्दार होता है।
वो कह चुकी है कि भैया, आप चिंता मत करो। देखेंगे, जो लिखा होगा वही होगा। उसे लिखे पर यकीन है। अपने सपनों पर यकीन नहीं। उसके सपने कभी थे ही नहीं।
हम सब अपने-अपने दायरे में चंद्रवती हैं। हम अपने आराम के दड़बे से निकलना नहीं चाहते। हम सब पत्थर को पकड़ कर बैठे हुए वो कीड़े हैं, जिनकी चर्चा मैंने एक बार पहले भी की थी।
मैंने आपको उन कीड़ों के विषय में बताया था, जो एक समंदर में पत्थर से चिपक कर बैठे रहते थे कि कहीं तेज लहरें उन्हें मिटा ही न दें। उनका जन्म वहीं होता था, वो वहीं मर जाते थे। वो हमेशा मृत्यु के भय में जीते थे। एक बार एक छोटे से कीड़े ने बुजुर्ग कीड़े से पूछा था कि हम पत्थर छोड़ कर समंदर में क्यों नहीं तैरते, तो बुजुर्ग कीड़े ने कहा था कि इसे छोड़ते ही समंदर की लहरें तुम्हें डुबो देंगी।
पर छोटा कीड़ा नहीं माना था। उसने पत्थर छोड़ दिया था। वो थोड़ी देर लहरों पर डूबता और तैरता रहा। पर बहुत जल्दी वो तैरने लगा था। उसने पूरे समंदर को घूम कर देखा।
एक बार जब वो तैरता हुआ उस पत्थर के पास से गुजर रहा था, तो उसके साथी चिल्लाए थे, “ये देखो, हमारी तरह का एक कीड़ा पानी पर तैर रहा है।”
छोटे कीड़े ने कहा था कि मैं वही हूँ। आओ, तुम भी तैर सकते हो। पर तब सभी कीड़े चिल्लाए थे, “नहीं-नहीं हम डूब जाएंगे। तुम जन्म से ही कुछ अलग थे। तुम मसीहा थे। मसीहा।”
***
चंद्रवती जिन्दगी भर पत्थर पकड़ कर बैठी रही। मैं भी जिन्दगी भर पत्थर पकड़ कर बैठा हूँ। चंद्रवती सब्जी का ठेला भी लगाती तो शायद इससे बेहतर कर सकती थी, पर वो पत्थर नहीं छोड़ पाई।
मैं कुछ और करता तो शायद समंदर में तैर रहा होता। पर मैंने भी 28 साल पहले एक पत्थर को पकड़ा तो उसे छोड़ नहीं पाया।
आपने भी शायद अपनी ताकत को नहीं पहचाना हो। हम सब चंद्रवती हैं।
आज जब चंद्रवती को मैं छोड़ रहा हूँ तो आत्मग्लानि में हूँ। चंद्रवती के लिए। अपने लिए। आपके लिए। सबके लिए।
काश हम अपनी ताकत को पहचानते! काश हम मरने से नहीं डरते! काश हमें डरना सिखाया ही नहीं गया होता! काश हमारे सपने जिन्दा रहते!
***
मेरी कहानियाँ मुझसे शिकायत करके चली गयी हैं। पर पाश की पंक्तियाँ मेरे कानों में गूंज रही हैं-
“सबसे खतरनाक होता है
मुर्दा शांति से भर जाना
ना होना तड़प का
सब कुछ सहन कर जाना
घर से निकलना काम पर
और काम से लौट कर घर आना
सबसे खतरनाक होता है
हमारे सपनों का मर जाना…।”
(देश मंथन, 08 मई 2016)