संजय सिन्हा, संपादक, आजतक :
जितना आसान मैंने सोचा था, उतना आसान नहीं है चंद्रवती की कहानी लिखना।
सुबह समय पर नींद खुली। समय पर कम्यूटर भी ऑन किया। चंद्रवती पर मैंने लिख भी लिया, पर लगा कि कुछ छूट रहा है। क्या छूट रहा है, पता नहीं चल पा रहा, ऐसे में नहीं चाहते हुए भी मुझे चंद्रवती की कहानी आज भर के लिये रोकनी पड़ रही है।
कहानी तो पूरी लिख चुका हूँ, पर एक महिला जो 25 सालों तक मेरी रोज की जिन्दगी में समाहित रही है, उस पर लिखना और उसके साथ न्याय का होना बहुत जरूरी है। इसलिए यही समझ लीजिए कि कई हजार शब्द टाइप करने के बाद मैं आपके लिए आज पूरी पोस्ट नये सिरे से लिखने बैठा हूँ।
मैं जानता हूँ कि आप में से कई परिजन चंद्रवती की कहानी सुनने को व्याकुल हैं। पर कभी-कभी इसे आप मेरी इमोशनल मज़बूरी समझ लीजिए।
अब जबकि मैं कल से सिर्फ चंद्रवती की कहानी मन में संजोए बैठा हूँ, तब आज क्या लिखूं ये तय करना भी आसान नहीं।
तो ऐसा करता हूँ कि आज मैं आपको उस किसान की कहानी सुना देता हूँ जो बहुत उन्नत किस्म के बीज से खेती करता था और अपने आस-पास के किसानों को भी मुफ्त में उन्नत बीज दिया करता था ताकि उनके खेत में भी अच्छी फसल हो।
वो कहानी सुनाऊँगा, पर कल आपको मैंने मौन की कहानी सुनाई थी, एक चर्चा उस पर भी बनती है।
कल मैंने लिखा था कि किसी गाँव में तलाब की मछलियाँ मछुआरे की बंसी में इस लिए नहीं फंसती थीं क्योंकि उन मछलियों ने एक महात्मा के मुँह से मौन की महिमा पर प्रवचन सुन लिया था, उसके बाद से वो तालाब के किनारे आ कर मुँह खोलती ही नहीं थीं। जब मुँह खोलती ही नहीं, तो फंसती कैसे?
मौन की महिमा पर कई लोगों ने कई तरह की टिप्पणी की। किसी ने कहा कि मौन की वजह से ही देश का ये हाल हुआ, किसी ने कहा कि मौन कायरता है।
सबसे शानदार टिप्पणी की Alka Srivastava ने।
उन्होंने मौन को बहुत ही सुंदर ढंग से परिभाषित किया।
उन्होंने लिखा कि मौन का अर्थ विभिन्न परिस्थितियों में अलग-अलग होता है। जब हम किसी बड़े के आगे मौन हो जाते हैं, तो ये हमारा उनके प्रति सम्मान होता है। जब किसी छोटे के आगे मौन होते हैं, तो ये हमारा बड़प्पन होता है। और जहाँ तर्क-वितर्क छोड़ कर कोई कुतर्क करने लगे, तो मौन हो जाना समझदारी होती है।
मौन को इससे अधिक शानदार तरीके से परिभाषित नहीं किया जा सकता। यह कुल मिला कर उन सभी लोगों को एक जवाब भी था जो मौन का एक शाब्दिक अर्थ ले कर उसे मानव मन की कमजोरी ठहराते हैं।
खैर, अब सुनिए आज की कहानी।
पर कहानी से पहले मुझे याद आया कि लड़कियाँ कितनी बारीक नजर रखती हैं।
कल चंद्रवती की याद पर मेरी पोस्ट में Surekha Sharma ने एक कमेंट लिखा कि “भैया, मुझे चंद्रवती आंटी का छोटा-सा जूड़ा बहुत अच्छा लगता है।” सच्ची में, आज मैं चंद्रवती को याद करने बैठा तो मुझे याद आया कि उसके पतले बालों का छोटा सा जूड़ा सिर के पीछे बंधा होता है। मतलब पिछले 25 सालों में सचमुच उसके खुले बाल कभी नजर नहीं आये। वो रोज छोटू सा जूड़ा बना कर ही आती है और उस पर हमारा कभी ध्यान गया ही नहीं, सुरेखा ने दो दिन में नोट कर लिया।
पर अब और इधर-उधर की बात करने में समय जाया करना ठीक नहीं। पर मैं भी क्या करूँ? आपसे मुखातिब होता हूँ एक बात कहने के लिए और करने लगता हूँ इधर-उधर की सौ बातें। एकदम औरतों वाला गुण पाया है आपके संजय सिन्हा ने। माँ कहती ही थी कि मुझे तो उसकी सुंदर बेटी होना चाहिए था। बेटी होती तो फुल मस्ती करती। बेटियों को मस्त ही होना चाहिए।
बेटे तो नौकरी करने के लिए पैदा होते हैं। नौकरी मिल गयी, बेटा होना सार्थक हो गया। पर बेटियाँ?
बेटियाँ तो थोड़ी चंचल, थोड़ी समझदार, थोड़ी घर जोड़ने वाली और ढेर सारी ममता बरसाने वाली होनी चाहिए।
ओह! इंदिरा गाँधी ने कहा था, “बातें कम, काम ज्यादा।” तो मेरे प्यारे परिजनों, सुनिए आज की कहानी।
एक किसान उन्नत बीजों से गेंहूँ की खेती करता। उसकी फसल बहुत अच्छी होती।
एक बार उसके गाँव में एक कृषि वैज्ञानिक आया यह देखने के लिए कि वो किस तरह के बीजों से खेती करता है और उसकी फसल इतनी अच्छी कैसे होती है। उसने किसान से पूछा कि तुम अपनी फसल को अच्छी करने के लिए क्या करते हो? किसान ने जवाब दिया कि वो अच्छे बीज से खेती करता है और वो अपनी खेती से होने वाले उन्नत बीजों को आसपास के किसानों को मुफ्त बाँटता भी है।
“मुफ्त बाँटते हो? पर क्यों? इससे तो उनकी फसल भी अच्छी होगी और तुम्हारी प्रतिस्पर्धा बढ़ जाएगी।”
“आप बिल्कुल सही कह रहे हैं। पर यही तो आधार है हमारी उन्नत खेती का।”
“समझा नहीं। ठीक से समझाओ।”
“हुजूर, ऐसा है कि पहले मेरे आसपास के किसान जो खेती करते थे, उनकी फसल से दाने उड़ कर मेरे खेत तक आते थे। अब जब वो घटिया बीज बोते थे, तो मेरे खेत में भी मेरी फसल के बीच उनके घटिया बीज की फसल भी उपजने लगती थी। इससे मुझे बहुत नुकसान होता था। फिर मैंने तय किया कि उन्हें भी मैं अच्छे बीज लाकर दूँ, ताकि उनके खेतों की फसल के बीज हवा में उड़ कर मेरे खेतों तक पहुँचे तो मेरी फसल को नुकसान न हो।
बस तब से उनकी फसल भी अच्छी हो रही है, मेरी भी।
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अगर सरकार ने आजादी के बाद सबको पढ़ने की सुविधा दी होती, सबको बराबर न्याय दिया होता, सबके विकास का सोचा होता, तो आज आज सब खुश रहते। सब शिक्षित होते। सब एक-दूसरे के लिए सहायक होते।
असल में जब हम दूसरों के लिए अच्छा करते हैं, तो वो अच्छा हमारे लिए ही होता है। बात समझने की है। जो समझ गया उसकी फसल बेहतर हो जाती है। जो नहीं समझता, उसके खेत में उड़ कर खर-पतवार पहुँच ही जाते हैं।
(देश मंथन, 01 मई 2016)