गरम हवाओं ने पूरब की शीतलता में उष्णता भर दी

0
317

संजय सिन्हा, संपादक, आज तक :

“गरम हवाओं ने पूरब की शीतलता में कब और कैसे उष्णता भर दी, हम देखते रह गये…”

मैंने कल यहाँ फेसबुक पर अपनी पोस्ट में लिखा था कि कैसे मैं रेडियो मिर्ची के एक शो में गया, तो रेडियो जॉकी शशि ने मुझे बताया कि एक बुजुर्ग दंपति, जिनके तीनों बच्चे अमेरिका में सेटल हो गये हैं, पटना में अकेले जिन्दगी गुजार रहे हैं।

उनके अकेलेपन को दूर करता है रेडियो जॉकी जादू भरी अपनी आवाज से। उस बुजुर्ग दंपति की आँखें कमजोर हो गई हैं, इसलिए वो टीवी देख कर समय नहीं काटते, अखबार पढ़ कर संसार से रिश्ता नहीं जोड़े रख पा रहे, ऐसे में जब कभी अपने बच्चों की याद आती है, वो रेडियो मिर्ची पर फोन करके अपने मन की कुछ कह लेते हैं, और उन्हें लगता है कि उन्होंने अपने बेटों से बात कर ली है।

मैंने यही सवाल आपसे पूछा था कि क्या सचमुच हमारी सारी जिन्दगी सिर्फ इस तैयारी में खर्च हो जाती है कि एक दिन हमें अकेलेपन का दंश सहना पड़ेगा। क्या यही हमारी नियति है।

आप सबने एक से बढ़ कर एक शानदार टिप्पणियाँ कीं। लेकिन एक टिप्पणी पर मैं रुक गया। कानपुर के सुनील ने अपने कमेंट में लिखा, “गरम हवाओं ने पूरब की शीतलता में कब और कैसे उष्णता भर दी, हम देखते रह गये…।”

उफ! इतना दर्द? इतनी शिकायत?

मानव के विकास के क्रम में हमने जो पाया, उसकी तुलना में जो हमने खोया, ये उसी का संत्राष है कि आज कानपुर में बैठ कर कोई पटना के दर्द को महसूस कर रहा है और कह रहा है कि पता ही नहीं चला कि हम सबकी जिन्दगी की शीतलता कब और कैसे उष्णता में तब्दील होती चली गई। किसी को कानों कान खबर नहीं हुई और कोई हमारी शीतलता को चुरा कर ले गया।

मैं जानता हूँ कि सचमुच बहुतों को खबर भी नहीं है कि सचमुच कोई जिन्दगी से शीतलता कोई चुरा कर ले गया।

मै संजय सिन्हा, पत्रकार हूँ। मेरा रिश्ता चोर से, पुलिस से, जिसके घर चोरी हुई उससे, जिसने चोरी की उसके घर से, सबसे है। 

मैं संजय हूँ। मैंने तो धृतराष्ट्र को भी बता दिया था कि कौन है तुम्हारे सौ पुत्रों का हत्यारा। मैंने स्पष्ट बताया था कि राजन तुम खुद हो, अपने वंश के हत्यारे। लेकिन राजन नहीं समझ पाया था मेरी बात। उसने आँख के अंधेपन को अपने दिल के इतने गहरे में उतर जाने दिया था कि उसे पता ही नहीं चला कि कब वो और उसका पूरा राज्य शीतलता की मधुर बयार से ऐटमी उष्मा में बदतलते चले गये। मेरी सीमा थीं। मैं मर्यादा में बंधा था, इसलिए मैंने सबकुछ कह कर भी कुछ नहीं कहा। 

पर जिसे सहा उसे धृतराष्ट्र के साथ-साथ मैंने भी सहा। 

सबको सहना पड़ता है। मन के अन्धेपन की सजा सिर्फ उसे ही नहीं सहनी पड़ती, जिसकी आँखें नहीं होतीं, उसे भी सहनी पड़ती हैं जो उन आँखों पर भरोसा करने की भूल करते हैं, जिनकी रोशनी स्वार्थ की बलि चढ़ चुकी होती हैं। जब-जब हम मन के अन्धे को अपना रहनुमा बनने देते हैं, तब-तब वो शीतल बयारों को चुरा कर भाग खड़ा होता है। 

हमारे स्कूल में इतिहास के मास्टर प्रसाद बाबू जब लॉर्ड मैकॉले की चर्चा करते तो उनकी मुट्ठियाँ भिंच जाती थीं, होठ फड़फड़ाने लगते थे। वो मुँह से गालियाँ नहीं निकालते, लेकिन कभी ब्रिटिश संसद में दिये उसके भाषण की चर्चा खूब करते थे। कहते थे, “मैकॉले ने अपने भाषण में कहा था कि उसने भारत की यात्रा की है और पाया कि उसे इस देश में एक भी भिखारी नहीं मिला। उसने कहा था कि उसे इस देश में नैतिक मूल्यों वाले ऐसे लोग मिले, जिन्हें लुभाना और ललचाना मुमकिन ही नहीं। मैकॉले नें अपने भाषण में कहा था कि उसे नहीं लगता कि हिन्दुस्तान पर कभी ब्रिटिश हुकूमत संपूर्ण नियन्त्रण प्राप्त कर सकती है। उन्हें वहाँ व्यापारी बने रहने के अलावा कभी कुछ हासिल नहीं होने वाला। भारत एक देश है, जहाँ के लोगों को विरासत में आध्यात्म और संस्कार मिले हैं। ये आध्यात्म और संस्कार भारत की रीढ़ हैं। अगर कभी इस देश पर राज करना हो, तो पहले इसी रीढ़ को तोड़ने की जरूरत होगी। उनके मन में ये बात बिठानी पड़ेगी कि उनके पास जो है, उसका कोई मोल नहीं। मोल जो है, वो दूसरे देश से आने वाली चीजों का है। चाहे वो मान हो या सामान। उनकी शिक्षा, उनकी सोच, उनके संस्कार को तोड़ना होगा। उनके मन में बिठाना होगा कि वो कुछ नहीं हैं। उनके संस्कारों पर हमला करना होगा। उन्हें धन का लोभ समझाना होगा। ये सब हो पायेगा तभी पश्चिम का झन्डा पूरब में फहराया जा सकेगा। उसने हवा में मुट्ठियां लहरा-लहरा कर ये बात कही थी कि बड़ी बात ये नहीं होगी कि हम भारत में धृतराष्ट्र को कहाँ तलाशेंगे। बड़ी बात ये होगी कि हमें वो लोग मिलें, जो धृतराष्ट्र की सत्ता को स्वीकार करने का दम रखते हों। अगर ऐसा हुआ तो मैं वादा करता हूँ कि आपको मैं दूँगा, एक गुलाम भारत।”

प्रसाद मास्टर इतना बोलने के बाद चुप हो जाते। उनकी आँखें कहीं शून्य में खो जातीं। ऐसा लगता कि उनकी जिन्दगी की सारी शीतलता जिसने चुरा कर उसमें उष्णता भर दी है। उनके चेहरे की निरीहता को मैं पढ़ने की कोशिश करता। मैं समझने की कोशिश करता कि उनके सीने में किस बात की पीड़ा है।

मुझे तब मेरे सवाल का जवाब नहीं मिला था। लेकिन जब मैंने कल पटना के उस बुजुर्ग दंपति की कहानी पर सुनील मिश्र की ये टिप्पणी पढ़ी, तो मुझे लगा कि किसी ने मेरे स्कूल के मास्टर प्रसाद बाबू की शून्य में खोई आँखों को पढ़ लिया है। किसी ने उन्हें बता दिया है कि कौन है वो, जिसने आदमी को आदमी से चुरा लिया है। कौन है वो, जिसने बड़े घर के छोटे से कोने में सिर्फ एक रेडियो जॉकी की आवाज के सहारे शाम का इंतजार करने के लिए उन बुजुर्गों को छोड़ दिया है।

अगर यही है जिन्दगी, तो फिर से एक बार सोचना बनता है कि हमने क्या खोया, हमने क्या पाया…।

(देश मंथन 15 जून 2015)

कोई जवाब दें

कृपया अपनी टिप्पणी दर्ज करें!
कृपया अपना नाम यहाँ दर्ज करें