आलोक पुराणिक, व्यंग्यकार
शिष्टाचार अलग है और फेसबुक का शिष्टाचार अलग है।
आम जिन्दगी में आपको अगर मैं आपको बीमार होने की खबर दूँ, तो आप यूँ ना कहेंगे- आई लाइक इट। चाहे भले ही मन में आप मेरे बीमार होने को लाइक ही कर रहे हों। पर फेसबुक में बीमारी की खबर को भी लाइक किया जाता है। कई बार मुझे टेंशन हो जाता है, मेरी मौत के बाद मेरी बेटियाँ मेरा फेसबुक स्टेटस अपडेट करे कि पापा नहीं रहे, तो मुझे पक्का पता है कि बहुत लोग इसे लाइक करके जायेंगे।
खैर, लेखक की मौत को लाइक किया जाना तो समझ में आता है। समकालीन लेखक- मित्र यूँ लाइक करके जायेंगे, चलो अच्छा है निपट लिया, बहुत जगह घेरता था, अखबारों में, मैगजीनों में, अब उस खाली जगह पर अपना दाँव लगेगा। प्रकाशक लाइक यूँ करेंगे कि बहुत परेशान कर मारता था, हर छह महीने पर एक नयी किताब छपवाने का प्रस्ताव लेकर कूद लेता था। पाठक तो स्वभावत लाइक करेंगे ही कि भाई कित्ता पढ़ते इसे, अच्छा हुआ, निकल लिया। मेरी राय यह है कि हिन्दी का लेखक अगर इंश्योरेंस ठीक-ठाक करा ले और मौत के बाद घरवालों को ठीक सी रकम मिलने का इंतजाम हो, तो घरवाले भी लेखक के टें बोलने को लाइक ही करेंगे कि इस लेखक ने कभी कायदे से फुलटू ऐश ना करायी घरवालों को, अब इंश्योरेंस की रकम से फुल ऐश करेंगे।
फिर भी लेखक की मौत पर भी आम जिन्दगी में रीयल लाइफ में लोग यूँ ना कहते- आई लाइक इट।
पर फेसबुक का शिष्टाचार अलग है, वहाँ सब कुछ लाइक हो लेता है- बीमारी से लेकर मौत तक।
फेसबुक का हिसाब-किताब देखें तो, भारतीय समाज उदार भी हो रहा है।
किंचित-घूंघटनशीं, अर्ध-घूंघिटाएँ भी करवा-चौथ पर अपनी करवा-चौथी फोटुएँ फेसबुक पर लोड करने लगी हैं। उन फोटुओं में सैकड़ों पराये मर्दों द्वारा लाइक होकर भी वे मुस्कारायमान होती हैं। किंचित शर्माती नहीं, या प्रतिवाद ना करतीं कि हाय दूर हट, मुझे तो मेरे पति ने लाइक कर लिया, अब तू क्यों लाइक कर रहा है, दुष्ट, पराये-मर्द।
एक बुजुर्ग से इस विषय पर मेरी चर्चा हो रही थी-तो मैंने निवेदन किया कि ठीक है कि पराये मर्दों ने लाइक किया मिसेज करवा-चौथ को, पर मतलब उस सेंस में लाइक नहीं किया है, जिस सेंस में आप या कोई और समझ सकता है।
उस सेंस में नहीं किया-यह हर छिछोरे का सूत्र -वाक्य होता है- बुजुर्गवार ने यह बयान देते हुए मेरे निवेदन को कतई लाइक नहीं किया।
ऐसे पहलवानों (जो फेसबुक पर नहीं हैं) को समझाने में उन पराये मर्दों को बहुतै दिक्कत आ सकती है, जिन्होने पहलवानों की बहू-बेटियों को फेसबुक पर लाइक किया है। इस संबंध में एक (गैर-फेसबुकी) पहलवान ने मेरी बात पूरी सुने बिना ही घोषणा कर दी, हाथ-पैर तोड़ दूँगा उसके, जिसने मेरी बहन को फेसबुक पर लाइक किया।
इस पहलवानी घोषणा को सुनने के बाद मैं अपनी उस महिला-मित्र की फेसबुक वाल पर करवा-चौथी दिनों में कतई ना गया, जिसके पति एक(गैर-फेसबुकी) शूटर हैं। इस मुल्क में अब फेसबुकी-पब्लिक और गैर-फेसबुकी पब्लिक के आचार-विचार पर बात करने का वक्त आ गया है। फेसबुकी लाइक को कुछ और समझता है, गैर-फेसबुकी लाइक को कुछ और समझ सकता है। कोई दस करोड़ से ऊपर भारतवासी फेसबुकी हो चुके हैं, यानी एक तिहाई अमेरिकन आबादी जितनी आबादी तो भारत में फेसबुकी हो चुकी है।
खैर मसला यह है कि इस मुल्क को अभी समझना-समझाना है कि लाइक किस सेंस में। यूएस में आमतौर पर लोग लाइक को दिल पे ना लेते, इंडिया में कई लड़के-पुरुष फेसबुकी सुन्दरियों के लाइक को दिल पे जाते हैं। एक लाइक पर सपनों की मल्टी-स्टोरी बिल्डिंग तान देते हैं।
कोई फेसबुक पर दस बजे लाइक करके दस बजकर सात मिनट पर अनलाइक कर सकता है। कई नौजवान किसी सुन्दरी के सात मिनट के लाइक पर ही सात जन्मों का बंधन बाँधने को तैयार हो सकते हैं।
इन्डिया में होना यह चाहिए कि जैसे ही कोई सुन्दरी फेसबुक पर किसी को लाइक करे, फौरन एक मैसेज स्क्रीन पर उभरे-दिल पे मत ले यार, बी कूल। फेसबुक पर लाइक किया है, आनलाइन लाइक किया, दूर रहकर लाइक किया है। पास आने की कोशिश ना करना, लाइक सिर्फ ऑनलाइन ही है, ऑफलाइन नहीं।
(देश मंथन, 03 अगस्त 2015)