फेयरी क्वीन से एक मुलाकात

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विद्युत प्रकाश मौर्य, वरिष्ठ पत्रकार:  

दिल्ली से रेवाड़ी। हरियाणा का शहर। दूरी 80 किलोमीटर। पहचान स्टीम लोकोमोटिव का सुंदर संग्रहालय। रेलवे के इतिहास में रुचि रखने वालों के लिए रेवाड़ी के स्टीम लोकोमोटिव संग्रहालय की यात्रा जरूरी है।

दिल्ली से रेवाड़ी महज 20 रुपये के पैसेंजर ट्रेन के टिकट में दो घंटे में पहुँचा जा सकता है। रेवाड़ी रेलवे स्टेशन के दाहिनी तरफ बाहर की ओर निकलिए। रेलवे कालोनी की तरफ स्टीम लोकोमोटिव का संग्रहालय है। इस संग्रहालय की व्यवस्था उत्तर रेलवे देखता है। हालांकि रेवाड़ी रेलवे स्टेशन जयपुर डिविजन में आता है। यहाँ का रनिंग स्टाफ जयपुर और जोधपुर दोनों ही डिविजन के हैं।

हिंदी फिल्मों के कई मशहूर दृश्यों में रेवाड़ी के स्टीम लोकोमोटिव का इस्तेमाल कर अतीत को फिल्माया गया है। सुंदर से हरे भरे प्रांगण में मीटर गेज और ब्राडगेज के कई स्टीम लोकोमोटिव यहाँ आराम फरमा रहे हैं। संग्रहालय सुबह 9 बजे से शाम 4 बजे तक खुला रहता है। कोई प्रवेश टिकट नहीं है। पर यह भारतीय रेलवे के इतिहास की अनमोल धरोहर है। हरे भरे सुंदर परिसर में आपकी मुलाकात फेयरी क्वीन से होती है। कौन फेयरी क्वीन।

भारतीय रेलवे के इतिहास में लोकोमोटिव फेयरी क्वीन का नाम स्वर्णाक्षरों में अंकित है। यह सबसे पुराना लोकोमोटिव है जो अभी भी चालू अवस्था में है। इसका निर्माण काल 1855 का है। ठीक दो साल बाद जब भारत में पहली रेल चली थी। फेयरी क्वीन दुनिया में काम करने की हालत में सबसे पुराना भाप इंजन है। इस नाते इसका नाम गिनिज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकार्ड्स में दर्ज है। 

“फेयरी क्वीन” को लीड्स, ब्रिटेन में 1855 में कीट्सन थामसन एंड हेविस्टन नामक लोकोमोटिव कंपनी ने बनाया गया था। भारत में यह ब्राडगेज का लोकोमोटिव इस्ट इंडियन रेलवे को अपनी सेवाएं दे रहा था। तब इसका नंबर ईआईआर 22 हुआ करता था। 

कई दशक तक भारतीय रेलवे की सेवा देने के बाद फेयरी क्वीन को 1909 में रिटायर कर दिया गया। 

फेयरी क्वीन ने लंबे समय तक हावड़ा से रानीगंज के बीच अपनी सेवाएं दीं। इसकी मदद से बंगाल में 1857 की क्रांति के दौरान फौज को ढोने का काम किया गया। 1909 में सेवा से बाहर होने के बाद फेयरी क्वीन लोको 1943 तक हावड़ा में यूं ही पड़ा रहा। इसके बाद इसे यूपी के चंदौसी में रेलवे के प्रशिक्षण केंद्र में लाकर रखा गया। साल 1972 में फेयरी क्वीन को हेरिटेज दर्जा प्रदान किया गया। बाद में इसे दिल्ली के राष्ट्रीय रेल संग्रहालय में भी लंबे समय तक रखा गया।

साल 1997 में इसे एक बार फिर सेवा में उतारा गया। एक फरवरी 1997 को फेयरी क्वीन ने दिल्ली से अलवर के बीच एक बार फिर कुलांचे भरी तो दुनिया भर के स्टीम इंजन में रूचि रखने वालों को कौतूहल हुआ क्योंकि 142 साल पुराना लोकोमोटिव फिर फार्म में था। इसे पर्यटकों के लिए चलाया गया। बड़ी संख्या में विदेशी सैलानी इस लोकोमोटिव को देखने के लिए आते हैं। लोको में खराबी आने पर 2014 में इसे एक बार फिर सेवा से हटाया गया। पर फेयरी क्वीन अभी भी तैयार है एक नए सफर के लिए।

फेयरी क्वीन पर नजर डालें तो यह वाकई रानी की तरह सुंदर दिखाई देता है। इसकी लंबाई 28 फीट 10 इंच और चौड़ाई तकरीबन 9 फीट है। ऊंचाई 10 फीट 8 ईंच है। पहियों के लिहाज से यह 2-2-2 श्रेणी का लोकोमोटिव है। काम करने की स्थित में इसका वजन 26 टन है। इसके पानी के टैंक की क्षमता 3 हजार लीटर की है, जबकि कोयला लेने की क्षमता 2 टन की है। दो सीलिंडर का यह लोकोमोटिव है जिसके इंजन की क्षमता 130 हार्स पावर की है और अधिकतम गति 40 किलोमीटर प्रति घंटे की है।

एक बार फिर फेयरी क्वीन को रेलवे ने काफी परिश्रम से रिस्टोर किया। यह 1997 में 18 जुलाई को एक बार फिर पटरियों पर दौड़ा।  88 साल बाद किसी लोकोमोटिव को एक बार फिर पटरी पर दौड़ाया गया। साल 1998 में इसे गिनिज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकार्ड में विश्व के सबसे पुराने लोकोमोटिव के तौर पर शामिल किया गया। साल 2011 में फेयरी क्वीन के कुछ पार्ट पुर्जे चोरी चले गए। बाद में इसे चेन्नई के पास स्थित पेरांबुर रेल इंजन कारखाना भेजा गया जहां से दुबारा चलने योग्य बनाया गया। एक बार फिर इसने 22 दिसंबर 2012 के पटरियों पर कुलांचे भरी।

सैलानियों ने किया शाही सफर 

कई साल तक इसे अक्तूबर से मार्च तक हर माह के दूसरे और चौथे शनिवार को सैलानियों केलिए चलाया गया। इसके साथ एक 60 सीट वाला वातानुकूलित कोच लगाया जाता है। इस सफर का अपना शाही अंदाज है। फेयरी क्वीन से यात्रा के लिए दोनों ओर का प्रति व्यक्ति खर्च 8600 रुपया है जबकि एक तरफ का खर्च 6000 रुपया है। 

(देश मंथन,  07 अप्रैल 2017)

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