जुबाँ से दिये जख्म जिन्दगी भर नहीं भरते

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संजय सिन्हा, संपादक, आजतक : 

मेरी एक परिचित किसी को कुछ भी कह सकती हैं। वो स्पष्टवादी हैं। उन्हें किसी को कुछ भी कह देने में कोई गुरेज नहीं है। 

वो कोई भी बात कहने के बाद कहती हैं, “माफ कीजिएगा, मैं साफ बोलती हूँ।

मेरी बात आपको बुरी लगे तो लगे, लेकिन मैं लल्लो-चप्पो नहीं कर सकती। जो है, वो मैं बोल देती हूँ।”

इस संसार में बहुत से लोग बेवजह स्पष्टवादी होते हैं। बहुत से लोग किसी को किसी भी हद तक आहत करने के बाद ये कहते हुए पाये जाते हैं, “बुरा लगा, तो मैं क्या करूं, मैंने सच कहा है। जो मुझे लगा, मैंने कह दिया।” 

पिछले दिनों मेरी वो परिचित बीमार पड़ गयीं। बहुत बीमार। 

हम लोग सोच ही रहे थे कि चाहे जो भी हो, एकबार उन्हें देख आना चाहिये। हालाँकि मेरे मन में उनकी वाणी को लेकर हमेशा संशय रहता है और मेरी परिचित होने के बावजूद मैं नहीं चाहता कि उनसे मुलाकात हो। 

कुछ साल पहले उनकी बेटी का एक्सिडेंट हो गया था और पाँव टूट गया था। मेरे दूसरे परिचित उनके घर गये, तो जाते ही उन्होंने ताना मारा “अब आये हैं आप? आपके बच्चे का एक्सिडेंट होगा, तब पता चलेगा।” इतना बोल कर वो जोर से हंसीं, और कहने लगीं, “भई मेरी बात का बुरा मत मानिये, मैं तो जो कहती हूँ साफ-साफ कहती हूँ।”

मेरे उस परिचित ने उस वक्त तो उनसे कुछ नहीं कहा, लेकिन वहाँ से लौटने के बाद मुझसे कह रहे थे, “संजय अब मैं उनके घर कभी नहीं जाऊंगा, चाहे जो भी हो जाये। उनका ऐसा साफ बोलना मुझे जरा रास नहीं आता। पता नहीं कटु बोलने को लोग साफ बोलना क्यों कहते हैं?”

मतलब उनका एक रिश्ता टूट गया।

उनकी स्पष्टवादिता का आलम ये है कि वो जिसके घर जाती हैं, वो उनसे कन्नी काटने लगता है। मसलन वो मोटे को मोटा, अंधे को अंधा, काने को काना, काले को काला बिना संकोच के कह सकती हैं और फिर हंस कर कहती हैं, “भई बुरा न मानना, मुझे साफ बोलने की आदत है।”

अब जब वो बीमार पड़ ही गईं तो पत्नी ने कहा कि चलो एकबार देख आते हैं। मेरा तो रत्ती भर मन नहीं था। पर जाने की औपचारिकता करनी थी। मैं जाने को तैयार हो गया था, घर से निकल रहा था कि एक सज्जन मिल गये। पूछने लगे कि कहाँ जा रहे हैं। मैंने बताया कि फलाँ के घर। 

“फलाँ के घर?”

“हाँ, क्यों?”

“अरे बिल्कुल मत जाइये। मैं गलती से कल चला गया था, उन्होंने इतनी जली कटी सुनायी है कि मन खट्टा हो गया है। उन्हें तो जो बीमारी है, वो है ही, लेकिन जो मिलने जाता है, उससे कहती हैं कि तुम्हें अगर यही बीमारी होगी तब पता चलेगा, तकलीफ क्या होती है। अब किसी मरीज से हमदर्दी जताने जायें और उनकी ऐसी मंशा सुन कर आयें, तो तकलीफ तो होगी ही।”

ओह! उनका एक और रिश्ता टूटा।

मैं गाड़ी से उतर गया। पत्नी मेरी ओर देख रही थी। मैंने कहा कि वहाँ नहीं जाना। हम नहीं गये। 

पिछले दिनों उनकी बेटी की शादी थी। हम तो नहीं जा पाये, लेकिन मेरे दो परिचित गये थे। वो बता रहे थे कि बस वही दो लोग पहुँचे थे। बाकी कोई रिश्तेदार या परिचित नहीं आया, जिसे भी उन्होंने बुलाया, कोई नहीं। जो दो लोग पहुँचे थे, वो भी शादी से पहले लौट आये, ये कहते हुये कि तौबा अब नहीं आयेंगे। कभी नहीं। मतलब उनके सारे रिश्ते टूट चुके हैं। 

संसार में ऐसे बहुत से लोग होते हैं, जो स्पष्टवादी होते हैं। वो फेसबुक पर भी किसी को कुछ भी लिख सकते हैं। वो किसी को कुछ भी मेसेज कर सकते हैं। वो कुछ भी लिख कर कह देते हैं, “माफ कीजिएगा आपको बुरा लगा हो तो, लेकिन मैं स्पष्ट बात करता हूँ।”

मै जानता हूँ कि ‘सच’ अच्छा होता है, लेकिन सच या झूठ, जिसे भी हम महत्वपूर्ण मानते हैं, उसका इस्तेमाल कैसे किया जा रहा है, ये भी जानना जरूरी है। एक दार्शनिक और आध्यात्मिक व्यक्ति के अनुसार संसार में जो भी हो रहा है सब सच है, लेकिन एक सांसारिक व्यक्ति के लिए सच और झूठ दोनों अलग अलग हैं। व्यावहारिकता मे इन दोनोँ का कैसे इस्तेमाल किया जाये, ये पता होना बहुत जरूरी है। 

मैं सच-झूठ का पाठ पढ़ाने वाला गुरू नहीं हूँ, लेकिन इतना तो बता ही सकता हूँ कि आदमी मौन रह जाये, वो बेहतर है, बजाए इसके कि किसी को आहत करने वाला ‘सत्य वचन’ बोले। आदमी चाहे जितनी बार कह ले कि बुरा मत मानियेगा मैं तो सच बोलता या बोलती हूँ, लेकिन एक सच ये भी है कि बुरा किसी के लिये नहीं बोलना चाहिये।

हर बोली गयी बात सच या झूठ नहीं होती है। सच के नाम पर वो कटु बात होती है। 

पहले भी लिखा था, फिर दोहरा रहा हूं, ऐसे लोग जीवन में अकेले पड़ जाते हैं, बहुत अकेले, और अकेलापन किसी को अच्छा नहीं लगता। 

वाणी तो ऐसी ही बोलनी चाहिये, जिससे सचमुच अपना मन शीतल हो और दूसरों को भी शीतलता मिले। याद रखिए ये जुबान ही है जो आपको किसी के दिल में उतार देता है या किसी के दिल से उतार देता है।

(देश मंथन, 16 मार्च 2015)

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