संजय सिन्हा, संपादक, आजतक :
दो दिन बाद मेरी शादी होनी थी।
मैंने किसी से पूछा नहीं था, खुद ही तय कर लिया था कि शादी 20 अप्रैल को होगी। कैसे होगी, कौन कराएगा, होगी कि नहीं होगी, ये मेरे सोचने की ही बात थी, लेकिन मैं सोच नहीं रहा था।
मुझे इस बात पर हैरानी भी नहीं हो रही थी कि आखिर बैठे बिठाए मैंने 20 अप्रैल की तारीख ही क्यों चुन ली।
अपनी तरफ से इतनी ही तैयारी थी कि मैंने दाढ़ी बनानी शुरू कर दी थी और मन ही मन ऐलान कर चुका था कि मैं बड़ा हो गया हूँ। हालाँकि मेरे दफ्तर वाले मेरी शादी को बाल विवाह कह कर मुझे चिढ़ाने की कोशिश करते थे, लेकिन मैं एकदम अड़ा हुआ था।
होने वाली पत्नी की छोड़िए, तब मेरी ही कमर 30 इंच थी। मैं अपनी शादी के लिए एक पैंट, शर्ट, टाई, बेल्ट, जूते सब खरीद लाया था। तब अप्रैल में गर्मी पड़ने लगी थी इसलिए कोट-पैंट के बारे में सोचने की भी जरूरत नहीं थी। मतलब मेरी शादी में मुझ पर जो खर्च हो रहा था वो कुल जमा एक पैंट, शर्ट, टाई, बेल्ट, जूते तक सीमित था।
होने वाली पत्नी से मैंने कह दिया था कि अपने घर से कुछ मत लाना। तो, मैंने उसके लिए भी कुछ साड़ियाँ खरीद ली थीं।
अब इंतजार था कि बस 20 अप्रैल आए और शादी हो जाये।
आज मेरी यादों का ये सफर मुझे 25 साल पीछे लेकर चला गया है। लगता है कल की ही बात है।
मैं दिल्ली शहर में अकेला था। मेरे रिश्तेदारों के नाम पर मेरा छोटा भाई आ गया था और मेरी छोटी बहन तब दिल्ली में ही रहती थी, शादी के दिन वो भी आ गयी थी।
इन दोनों के अलावा मैंने कुल जमा दो साल की अपनी नौकरी में रिश्तों का जो कारवाँ बिछाया था, वो पूरा कारवाँ खड़ा था मेरी शादी की तैयारी में। जिस घर में मैं बतौर पेइंग गेस्ट था, वहाँ की मकान मालकिन, उनकी पड़ोस वाली भाभी जी, पड़ोस वाली भाभी जी के दूर के देवर, दूर के देवर की साली भी मेरे परिजनों में शामिल थे। इसके अलावा जनसत्ता और इंडियन एक्सप्रेस के सभी लोग।
इंडियन एक्सप्रेस से कोई कन्यादान करने वाला पिता था, तो जनसत्ता से गुरहत्थी करने वाले कई बड़े भाई।
आज जब मैं 25 साल पीछे जाकर झाँकने की कोशिश कर रहा हूँ, तो यकीन नहीं हो रहा कि एक हड्डी का कोई आदमी इस तरह के फैसले भी ले सकता है। ये तो कोई और ताकत थी जो मुझे उकसा रही थी कि मैं ऐसा करूं। वर्ना ऐसी कोई उम्र तो हो नहीं गयी थी कि शादी अगर उस साल न होती तो फिर होती ही नहीं! शादी को लेकर अपनी समझ की कई कहानियाँ मैं आपको पहले भी सुना चुका हूँ। पर वो सब होता चला जा रहा था, जो होना था।
दो दिन बाद शादी थी, लेकिन मेरे मन में ये ख्याल तक नहीं आया था कि शादी के बाद कहाँ रहूँगा। जिस आंटी के घर में मैं रह रहा था, उसमें मेरे हिस्से में बस एक कमरा भर था। कमरे में एक फोल्डिंग चारपाई थी, एक कुर्सी थी, साल भर का जमा किये हुए अखबार थे और कोई दो सौ किताबें। उस कमरे में एक छोटी सी आलमारी भी बनी हुई थी, जिसमें मेरे ही कपड़े बहुत मुश्किल से आते थे।
शादी हो जायेगी फिर कहाँ जाऊंगा, ये सोचा ही नहीं।
मकान मालकिन आंटी ने एक दो बार पूछा भी , “शादी करके कहाँ रहोगे, संजू?”
“कहाँ रहूंगा, यहीं रहूंगा।”
आंटी कुछ कहती नहीं, लेकिन मुझे यकीन है कि मन ही मन सोचती जरूर होंगी कि अजीब पागल है। शादी करके इस फोल्डिंग चारपाई पर जीवन गुजारेगा ये आदमी।
मेरे कई दोस्तों ने भी पूछा कि तुम क्या शादी के बाद भी वहीं रहोगे?
“हाँ, मकान बदलने की क्या जरूरत है? जैसे मैं रहता हूँ, वैसे ही पत्नी भी रह लेगी।”
“विचित्र है ये। कुछ सोचता ही नहीं, बस मन की किये चला जा रहा है।”
“मैं मन की कर रहा हूँ? अरे जो होना है, वही तो हो रहा है। जो होना है, वही होगा। मैं खुद से कुछ नहीं कर रहा।”
“तुम नहीं कर रहे तो कौन कर रहा है ये सब?”
“मुझे नहीं पता कि कौन कर रहा है। पर इतना तय है कि कोई और है जो ये सब करा रहा है। सारी परिस्थितियाँ उसी ने बनाई हैं। मेरे हाथ में कुछ भी नहीं है। मुझे पूरा भरोसा है कि कोई और शक्ति है जो मेरा ख्याल रख रही है। वही सारे इंतजाम करेगी।”
मेरे कुछ मित्र कहते, “छोड़ो यार, हमें क्या? ये सुनेगा नहीं किसी की। खुद भुगतेगा, तभी समझेगा। अरे शादी हो रही है, कोई मजाक थोड़े ही है।”
मुझे किसी बात की चिंता नहीं थी। दो दिन बाद शादी होगी, बस मैं इतना ही सोच पा रहा था। मेरी शादी के कुछ दिनों बाद मेरे इंडियन एक्सप्रेस के दो और वरिष्ठ साथियों की भी शादी होनी थी, आलोक तोमर और अजीत साही की। मैं उम्र में दोनों से छोटा था, लेकिन शादी में सीनियर होने जा रहा था।
अपनी इस सीनियरिटी पर इतराता हुआ मैं 18 अप्रैल को सारा दिन दफ्तर में काम करता रहा। 19 अप्रैल को भी मैं दफ्तर में रहा। लोग चिंतित थे, मैं नहीं था।
आज पीछे मुड़ कर सोचता हूँ, तो मुझे यकीन होता है कि मैं गलत नहीं था।
सारी परिस्थितियां कोई और तय कर रहा था। मेरी शादी तय तारीख और समय पर हो गयी।
कई बार पूरी कहानी लिख चुका हूँ। फिर कभी और लिखूंगा कि कैसे अपनी गृहस्थी की गाड़ी हमने सिर्फ प्यार के इंधन से चला ली, लेकिन परसों जब मेरी शादी की रजत जयंती सचमुच पूरी होगी तो मैं दावे से कह सकता हूँ कि कोई और शक्ति होती है जो हमें संचालित करती है, जो हमारा ख्याल रखती है, जो बिना सामने आये भी हमारा ध्यान रखती है। जो हमारा भला चाहती है, वो कोई ऐसी शक्ति होती है, जो हमेशा आपके आसपास रहती है। उसका नाम है विश्वास।
आदमी को अपने किये पर भरोसा करना चाहिए। जब आप बिना फायदा या नुकसान सोचे हुए कुछ करेंगे, तो मेरा यकीन है कि वो काम गलत हो ही नहीं सकता। वर्ना मैं एक हजार लोगों को जानता हूँ, जिन्होंने बहुत सोच समझ कर, मोल-भाव करके शादी की और हजारों ख्वाहिशों के साथ रिश्ते बनाये, पर नाकाम रहे। 25 साल बाद मैं अपने अनुभव से कह सकता हूँ कि जितने लोग मुझे सलाह देने आये थे कि तुम बिना सोचे समझे जो कर रहे हो, वो ठीक नहीं, उनकी तुलना में मैं ज्यादा ठीक निकला।
बात सिर्फ इतनी है कि विश्वास के साथ कुछ करेंगे तो आप सफल होंगे ही।
किसी ने कहा है कि संसार किसी की राय से नहीं बदलता, वो बदलता है आपके पेश किये हुए उदाहरणों से। मेरा उदाहरण आपके सामने है कि सही नीयत और संपूर्ण भरोसे से किया गया हर काम सफल होता ही है।
मैं आज भी बहुत से काम बिना बहुत सोचे-विचारे ही करता हूँ। मन के किसी कोने में ये बात हमेशा रहती है कि कोई न कोई शक्ति है, जो मेरे आसपास है। वो मुझसे गलत नहीं करायेगी और मेरा बुरा नहीं होने देगी।
आप भी उस पर भरोसा करके देखिए, सचमुच बात बन जाएगी।
(देश मंथन, 20 अप्रैल 2015)