संजय सिन्हा, संपादक, आजतक :
मैंने तो पहले ही बता दिया था कि दो दिन पहले जब मथुरा से Pavan Chaturvedi भैया मेरे घर आए थे, तो उन्होंने मुझे कई कहानियाँ सुनाई थीं। एक नहीं, दो नहीं, तीन या चार भी नहीं, ढेरों कहानियाँ। मैंने उसी में से एक चिड़िया की कहानी आपको परसों सुनाई थी।
मैंने आपको बताया था कि जंगल में आग लग जाने के बाद सारे जानवर आग के दोषी को कोस रहे थे। पर एक नन्ही चिड़िया अपनी चोंच में पानी भर कर लाती और आग पर छिड़कती। सारे जानवरों ने उसे चिढ़ाया था, उसका मज़ाक उड़ाया था और सच यही है कि चिड़िया की कोशिशों से जंगल की आग बुझी भी नहीं थी, लेकिन चिड़िया ने उसका मजाक उड़ाए जाने के जवाब में इतना ही कहा था कि जब कभी जंगल की आग की कहानी संजय सिन्हा अपनी वाल पर लिखेंगे तो उसका नाम आग बुझाने वालों में दर्ज होगा, तमाशबीनों में, मजाक उड़ाने वालों में या कोसने वालों में नहीं।
पवन भैया ने ये वाली कहानी सुनाई थी और जेब से रूमाल निकाल कर अपने आँसू पोंछे थे। उनके साथ ही उनकी पत्नी भी बैठी थीं। Alka भाभी की आँखें भी पता नहीं क्यों, पर इस कहानी को सुन कर नम हो गयी थीं। फिर उन्होंने पवन भैया से कहा था कि आप ही बोले जा रहे हो, संजय भैया की कहानियाँ भी तो सुनो।
पर कुरुक्षेत्र के मैदान पर अर्जुन तो सिर्फ श्रोता था, वक्ता तो कृष्ण थे।
तो, उस दिन अपने घर में मैं श्रोता था।
वैसे भी मैं वक्ता से अधिक बढ़िया श्रोता हूँ।
श्रोता होने का ही लाभ था कि पवन भैया एक से बढ़ कर एक कहानियाँ मुझे सुना रहे थे और मैं सुन रहा था।
मछली वाली कहानी आपने पहले भी सुनी होगी, पर मैंने नहीं सुनी थी। मछली वाली कहानी मुझे आपसे साझा करने का बहुत मन है, हालाँकि मेरी परसों की पोस्ट में भैया ने कमेंट बॉक्स में वो कहानी आपसे साझा कर ली है। फिर भी मुझे लग रहा है कि मैं उसे अपने अंदाज में आपको सुनाऊं। हालाँकि मेरी भाषा उतनी अलंकृत नहीं है, और इसके पीछे दोष प्रभाष जोशी का है, मेरी पहली नौकरी का है।
मेरी पहली नौकरी जनसत्ता में लगी थी। प्रभाष जोशी प्रधान संपादक थे। उन्होंने हमें ट्रेनिंग दी कि आम बोलचाल की भाषा में लिखना चाहिए। वो हमें बहुत बार समझाते थे कि जो भाषा घर में बोलते हो, जिन शब्दों का इस्तेमाल घर में करते हो, वही सहज है, सरल है। इसलिए मैं पत्रकार चाहे जैसा बना, साहित्यकार नहीं बन पाया। करीब 11 साल उनके साथ काम किया है, अब तो जाते-जाते भी ये आदत नहीं जाने वाली।
खैर, कल ढाका वाली कहानी मैंने लिखी थी। आपने अपनी प्रतिक्रियाएँ भी जताई थीं। कई लोगों ने मुझसे कहा भी था कि मेरी ओर से ऐसी पोस्ट लिखे जाने का कोई फायदा नहीं। एक परिजन तो बार-बार कहते हैं कि मैं अधिक गहराई में नहीं उतरता। इस तरह बाहर बैठ कर, उथली पोस्ट लिख कर किया जाने वाला मेरा प्रयास किसी के काम नहीं आएगा।
मेरा प्रयास जरूर काम आएगा।
पर किसके काम आएगा?
बस यहीं से शुरू होती है मछली वाली वो कहानी, जिसे आप सौ बार सुन चुके हैं। सुना चुके हैं। पर मेरा अनुरोध है कि इस छोटी-सी और बहुत साधारण सी कहानी को आप और लोगों से जरूर साझा कीजिएगा। अपने बच्चों को भी जरूर सुनाइएगा।
तो अब कहानी।
एक छोटा बच्चा समंदर के किनारे माँ के साथ घूम रहा था।
बच्चे ने देखा कि समंदर की लहरों के साथ बहुत सी छोटी-छोटी मछलियाँ तट पर आईं और लहरों के साथ वापस नहीं लौट पाई थीं। लहरों ने उन्हें रेत पर ला पटका था। मछलियाँ तड़प रही थीं।
बच्चे से देखा नहीं गया। उसने एक मछली को अपनी नन्ही मुट्ठी में उठाया और समंदर की लहर में प्रवाहित कर दिया। ऐसा उसने कई बार किया। माँ उसे ऐसा करते देख रही थी। आखिर माँ से नहीं रहा गया। उसने बच्चे से कहा, “तुम कब तक ऐसा करोगे? इतनी सारी मछलियाँ बाहर पड़ी हैं, तुम कितनों को समंदर की लहरों तक पहुँचा पाओगे? चलो, घर चलो। तुम्हारी इस कोशिश से कुछ नहीं होगा। इन मछलियों का जो होना था, हुआ। तुम्हारी कोशिशों से किसी कोई फायदा नहीं होगा।”
बच्चा माँ की ओर देखता रहा। फिर उसने वहाँ रेत पर पड़ी एक छोटी सी मछली को अपनी हथेली पर उठाया और संमदर की लहरों तक उसे पहुँचाते हुए कहा, “माँ मेरी इस कोशिश से इस एक मछली को तो फायदा होगा न!”
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पवन भैया ने इस छोटी-सी कहानी को मुझसे साझा किया, फिर रूमाल निकाल कर अपने आँसू पोंछे।
भैया जितनी देर अपने आँसू पोंछ रहे थे, मेरी आँखों के आगे माँ थी। समंदर का किनारा था। ढेर सारी मछलियाँ थीं। मैं एक मछली को अपनी नन्हीं-सी हथेली में उठा कर समंदर की लहरों तक पहुँचा रहा था।
मैं जानता हूँ मेरी कोशिशों से कुछ नहीं होगा। पर मैं नहीं चाहता कि कभी कोई और संजय सिन्हा मछली और चिड़िया की कहानी लिखें, या जंगल में आग की चर्चा करें तो मेरा नाम तमाशबीनों में दर्ज हो, बस।
मैं आपके जैसा नहीं सोच पाता।
पर जैसा प्रभाष जोशी ने कहा था सामान्य भाषा बोलनी और लिखनी चाहिए, उसी तरह माँ ने कहा था कि अपनी जिन्दगी में सामान्य ढंग से भी कुछ-कुछ ऐसा करना जिससे तुम्हें संतोष मिले। मैं बड़े काम नहीं करता। पर मुझे छोटी-छोटी मछलियों को समंदर तक पहुँचाने में भी संतोष मिलता है। इसीलिए रोज सुबह आपके लिए लेकर आता हूँ एक कहानी।
(देश मंथन 06 जुलाई 2016)