संजय सिन्हा, संपादक, आजतक :
चंद्रवती हमारी जिन्दगी में जब आयी थी तब उसकी उम्र चालीस साल रही होगी। वो पिछले 25 वर्षों से हमारे साथ है।
मैं चाहे उसकी ईमानदारी और उसके हमारे साथ होने की जितनी तारीफ करूँ, पर मैं कह सकता हूँ कि चंद्रवती की जिन्दगी का ये सबसे गलत फैसला था कि वो लगातार हमारे साथ रही। अब जब हम चंद्रवती को छोड़ रहे हैं, तब मैं इस सच को स्वीकार करना चाहता हूँ कि चंद्रवती सिर्फ एक महिला का नाम नहीं, बल्कि एक फलसफे का नाम है, जो हम सब में समाहित है।
मैं चंद्रवती की पूरी कहानी लिखूँगा तो मेरा दावा है कि आप भी एक बार मुड़ कर जिन्दगी के विषय में सोचने पर मजबूर हो जाएंगे कि कहीं आप में भी कोई चंद्रवती तो नहीं। और जिस पल आपको अहसास होगा कि आप में भी एक चंद्रवती है, आप खुद को ठगा सा महसूस करने लगेंगे।
मैंने सोचा नहीं था कि मैं चंद्रवती पर भी कभी कुछ लिखूँगा। पर लिखना बनता है, बॉस।
मेरे जैसा आदमी, जो कभी अपनी पुरानी कमीज से प्यार कर बैठता है, और कभी नयी कमीज उठा कर ड्राइवर को दे देता है, उसके लिए कुछ भी मुमकिन है। वो एक पल में इस संसार को जी रहा होता है, अगले पल में वैरागी होता है। वो सबकुछ पाने के बाद मिनटों में कुछ भी लुटा देने को व्याकुल हो सकता है। जो ऐसा होता है, उसकी जिन्दगी में चंद्रवती भी एक कहानी होती है।
लिखूँगा। जरूर लिखूँगा। चंद्रवती की कहानी लिखूँगा। चंद्रवती कैसे हम सबमें समाहित है, इसकी कहानी लिखूँगा। पर आज मैं उन मछलियों की कहानी सुनाना चाहता हूँ जो बंसी में नहीं फँस रही थीं।
पर मैं आप सबसे अनुरोध करूंगा कि कल आप मुझे चंद्रवती की कहानी लिखने के लिए उकसाइएगा, ताकि मैं किसी और कहानी के पीछे पड़ कहीं चंद्रवती की कहानी टाल न दूँ। और एक बार कहानी टल गयी, फिर उसका नंबर कब आये, किसे पता। मैं ही याद करने बैठूंगा तो कम से कम एक हजार कहानियाँ मुझे याद आ जाएंगी, जिन्हें मैंने लिखते-लिखते बीच में छोड़ दिया।
अब मैं भी क्या करूं? सुबह से शाम तक अपने व्यस्त समय से सिर्फ एक कहानी के लिए समय निकाल पाता हूँ, वर्ना जिस गति से मुझे कहानियाँ याद आती हैं और जिस गति से मैं टाइप करता हूँ, मेरा यकीन कीजिए मैं रोज एक पूरा उपन्यास लिख सकता हूँ। पर मुझे नौ घंटे दफ्तर में रहना पड़ता है, तीन घंटे सोना पड़ता है, और नहाने, तैयार होने, खाने और दफ्तर आने-जाने में भी कुल जमा तीन घंटे खर्च करता ही हूँ, तो इस तरह 15 घंटे तो एकदम बुक हैं। बाकी के बचे नौ घंटे, तो मेरे प्यारे परिजनों, मुझे लगता है कि उन नौ घंटों में से दो घंटे में मैं करीब 14 अखबार रोज पढ़ता हूँ और सोने से पहले करीब एक घंटा एक साथ दो किताबें पढ़ता हूँ। मतलब आधी किताब पढ़ने के बाद दूसरी किताब उठा लेता हूँ। तो इस तरह नौ में से तीन घंटे निकल गये। बाकी बचे छह घंटे। मुझे लगता है रोज सुबह मैं अपनी पत्नी से कम से कम दो घंटे बातें करता हूँ। फिर भी बचे चार घंटे। इसमें से एक घंटा रोज आपके लिए एक पोस्ट लिखने में लगता हैं और किश्तों में जोड़ूं तो एक घंटा सारे कमेंट को पढ़ने और लाइक बटन दबाने में खर्च होता है। अब रह गये दो घंटे।
छोड़िए, उन दो घंटों का क्या हिसाब दूँ। वो भी इधर-उधर खर्च हो ही जाते हैं। मतलब अपना शेड्यूल एकदम टाइट चलता है।
अपनी मर्जी के बिना एक भी मीटिंग करनी पड़ जाये, तो मेरा पूरा दिन हिल जाता है। सबकुछ एकदम तय हिसाब से चलता है, इतना कि अपना सारा कार्यक्रम करीब-करीब पहले से तय होना चाहिए। यात्रा करनी हो, किसी से मिलना हो, किसी के साथ लंच हो, मार्केट जाना हो, यह सब मुमकिन है, पर पहले से तय हो तभी।
खैर, मुझे कहानी सुनानी थी चंद्रवती की। उसे रोक कर कहानी सुनाने बैठा उन मछलियों की, जो बंसी में फंस ही नहीं रही थीं, और सुनाने लगा अपनी राम कहानी।
शाबाश संजय सिन्हा, मिनट भर में कहाँ से कहाँ पहुँच जाते हो?
अब सुनिए वो कहानी।
एक बार एक आदमी एक नए गाँव में पहुँचा। वहाँ उसने तालाब के किनारे देखा कि ढेरों मछलियाँ तैर रही हैं।
आदमी को लगा कि इतनी मछलियाँ और इन्हें कोई पकड़ नहीं रहा? वो फटाफट बाजार गया और मछली पकड़ने वाली बंसी खरीद लाया।
वो मन ही मन बहुत खुश था कि इतनी सारी मछलियाँ हैं, अगर रोज वो इन्हें पकड़ कर बाजार में बेच देगा तो जल्दी ही अमीर हो जाएगा।
आदमी बंसी में चारा लगा कर तालाब के किनारे बंसी डाल कर बैठ गया।
वो सारा दिन बैठा रहा, पर एक भी मछली उसकी बंसी में नहीं फँसी। मछलियाँ तालाब के किनारे आतीं, आराम से तैरतीं और फिर बीच में गहरे में जा कर बैठ जातीं।
आदमी बहुत हैरान हुआ कि आखिर मछलियाँ उसके डाले चारे को खाने क्यों नहीं आ रहीं?
बहुत देर हो गयी, सूरज डूबने लगा, मछलियाँ किनारे से बीच तालाब में पहुँच गयीं। आदमी उदास मन से बंसी डाले बैठा था। कहाँ तो सोच रहा था कि कई-कई मछलियाँ उसकी बंसी में फँसेंगी, यहाँ तो एक नहीं आयी। वो सोच रहा था कि एक भी फँस जाये तो आज का काम निकल जाएगा। वो बैठा था, तभी उधर से एक बुजुर्ग गुजर रहा था। उसने युवक को तालाब में बंसी डाले देखा, तो हैरान रह गया।
उसने उस युवक से पूछा कि तुम इस गाँव में नये आये हो क्या?
“हाँ, नया आया हूँ।”
“ओह! तभी।”
युवक चौंका। “ओह, तभी से आपका क्या मतलब है?”
“बाबू, तुम नये हो। तुम्हें नहीं पता कि इस गाँव में कुछ दिन पहले एक महात्मा आए थे। इस तालाब के किनारे उन्होंन सत्संग किया था और गाँव वालों को मौन का महत्व समझाया था। इस तालाब की मछलियों ने भी महात्मा के प्रवचन को सुना था। और वो भी मौन के महत्व को समझ गयीं। जब से उन्होंने मौन के महत्व को समझ लिया, उनका बंसी में फँसना बंद हो गया। अब वो किनारे आ कर मुँह बंद रखती हैं। बल्कि सच कहूँ तो किनारे तो वो सिर्फ प्रवचन के दो बोल सुनने आती हैं। खाना खाने तो बीच तालाब की तलहटी में ही जाती हैं।
बेटा, ये तो तुम भी जानते ही हो कि जब कोई मुँह ही नहीं खोलेगा, तो फँसेगा कैसे? तो तुम यहाँ से चले जाओ। जाओ, उस गाँव में मछलियों का शिकार करो, जिस गाँव की मछलियों ने मौन के महत्व को नहीं जाना है। यहाँ तो सालों साल बैठोगे, तो बैठे ही रह जाओगे।
***
आदमी हो या मछली। जिसने मौन की महिमा को समझ लिया, वो कभी फँसेगा ही नहीं।
यही तो महात्मा जी ने कहा था।
तो आज के लिए इतना ही। कल फिर आपका दोस्त संजय सिन्हा आएगा चंद्रवती की कहानी के साथ, अगर आपने याद दिला दिया तो!
(देश मंथन, 30 अप्रैल 2016)